संस्मरण: विद्याभूषण द्विवेदी जिन्हें बिहार का सफदर हाशमी कहते थे

संस्मरण: विद्याभूषण द्विवेदी जिन्हें बिहार का सफदर हाशमी कहते थे

लगभग दो महीने रहने के पश्चात 16 जुलाई, 1996 को विद्याभूषण द्विवेदी वापस दिल्ली जा रहे थे। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD) का प्रथम वर्ष पूरा करने के पश्चात वे गर्मी की छुट्टियों में पटना आए थे। पटना जंक्शन के प्लेटफॉर्म न. 2 पर उनके चाहने वाले उन्हें विदा करने पहॅंचे थे। खासी संख्या में प्रेरणा के साथी इकट्ठे थे। इसके अलावा उनको जानने वाले कुछ और लोग भी मौजूद थे। उनके साथ कनुप्रिया (उषा किरण खान की पुत्री) भी दिल्ली जा रही थीं। कनुप्रिया का उसी साल NSD के लिए चयन हुआ था। वे दोनों तब स्लीपर क्लास में साथ-साथ जा रहे थे।

गाड़ी खुलने वाली थी। तब-तक उन्हें छोड़ने वालों की संख्या बढ़ गई थी। गाड़ी ने अंतिम सीटी दी और गाड़ी खुल पड़ी। हम सबों ने विद्याभूषण से खिड़की के बाहर से हाथ मिलाया। तभी सीढ़ी से उतरकर दौड़ता हुआ आनंद (Super 30) नजर आया। किसी तरह दौड़कर वो विद्याभूषण से खिड़की से ही हाथ मिला पाया। हम सबों की विद्याभूषण द्विवेदी से ये अंतिम भेंट थी।

पटना से जाने के पूर्व विद्याभूषण द्विवेदी ने कई महत्वपूर्ण काम अपने दो महीनों की छुट्टी के दौरान किया था। NSD से पहले साल का प्रशिक्षण लेकर आने के बाद जून में एक अर्से पश्चात ‘प्रेरणा’ (जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा) से जुड़े लोगों की मंचीय गतिविधि हुई। प्रेरणा के साथी तब दो भागों में विभाजित थे। ‘प्रेरणा’ और ‘अनुकृति’। विद्याभूषण द्विवेदी अंतिम दफे दिल्ली जाने के पूर्व इन दोनों संगठनों का विलय कराने में सफल हो गए थे।

मैं विद्याभूषण द्विवेदी से ट्यूशन पढ़ा करता था। वे मुझसे कई क्लास सीनियर थे। 9वें क्लास में विद्याभूषण से ट्यूशन पढ़ने का निर्णय स्कूल के मेरे सहपाठी अंजनी तिवारी द्वारा लिया गया था। विद्याभूषण का अंजनी तिवारी के घर काफी आना-जाना था। उनकी छवि बेहद तेज एवं होनहार विद्यार्थी की थी। हम दोनों उनसे ट्यूशन पढ़ने लगे। मैट्रिक की परीक्षा नजदीक था। अंजनी तिवारी के तब के पीरमुहानी वाले किराए के मकान (अब वह मकान ढाह दिया गया है) में ट्यूशन का सिलसिला शुरू हुआ। 75 रूपया, ट्यूशन फी तय किय गया।

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10वें क्लास के मैथमेंटिक्स के कठिन सवाल हल करने में उन्हें कठिनाई होती। नाटकों की दुनिया से उनका जुड़ाव हो चला था। मैट्रिक की परीक्षा की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए उनसे ट्यूशन जारी रखना खतरे से खाली न था। फिर भी विद्याभूषण से ट्यूशन जारी रहा। उसकी प्रमुख वजह थी उनका सम्मोहक व्यक्तित्व। हम दोनों उनसे बॅंधे से थे। अब ट्यूशन के दौरान पढ़ाई कम इधर-उधर की बातें ज्यादा होने लगी। हमें मजा आने लगा था। बातों में साहित्य, नाटक और थोड़ी बहुत राजनीति की बातें होती। जब विद्याभूषण दिनकर के ‘रमिरथी’ की ये पंक्तियां-

हा हा दुर्योधन बॉंध मुझे
मुट्ठी में तीनों काल देख
पद के नीचे पाताल देख
मेंरा स्वरूप विकराल देख

कुछ इस अंदाज में सुनाते कि हम हिप्नोटाइज से हो जाते। बहरहाल, मैट्रिक की परीक्षा के बाद मैं और तिवारी विद्याभूषण का द्वारा अभिनीत नाटक‘हस्तक्षेप’ का मंचन देखने गए। उसमें उन्होंने हीरो ‘मंगला’ का रोल अदा किया था। देखने में वे लंबे और गोरे थे। उस वक्त ‘हीरो’ की प्रचलित छवि के अनुकूल। पहला नाटक जो मैंने किया वो ‘आदि विद्रोही स्पार्टाकस’ था । विद्याभूषण द्विवेदी ने इसे निर्देशित किया था। हार्वड फास्ट प्रख्यात के उपन्यास पर आधारित नाटक ‘आदि विद्रोही स्पार्टाकस’ संभवतः विद्याभूषण का भी पहला निर्देशन था। प्रेरणा का कार्यालय तब कंकड़बाग रेलवे काठपुल के दक्षिणी छोर स्थित जहाजीकोठी के एक छोटे से कमरे में चला करता था। यहीं कई मंच और नुक्कड़ नाटकों के रिर्हसल होते। मारीच का एक और संवाद, पूर्वाद्ध जैसे मंच नाटकों के प्रदर्शन यहीं रहते किए गए। नाटक में लड़के-लड़कियां रहा करती। आस-पास के आते-जाते लोगों को पता चला कि यहॉं नाटक होता है। एकाध दफे कुछ छुटभैया किस्म के कुछ शोहदे हल्की टीका टिप्पणी कर दिया करते। विद्याभूषण के नेतृत्व में पश्चिम लोहानीपुर के ऐसे ही दो शोहदों की जमकर ठुकाई हुई। फिर किसी ने हिम्मत नहीं दिखाई।

1989 में सफदर हाशमी की हत्या ने नुक्कड़ नाटक की गतिविधियों को बड़ा आवेग प्रदान किया। 1989 के अगस्त में हमलोगों का मसौढ़ी के एक वामपंथी कार्यकर्ता जयप्रकाश की शहादत दिवस पर जाना हुआ। वहॉं पुलिस ने कई कलाकारों को लाठी से पीटा और गिरफ्तार कर लिया। मुझे भी वहां पहली बार पुलिस की लाठी पड़ी।

उस दौरान विद्याभूषण ने सफदर हाशमी की हत्या को केंद्र में रखकर एक लोकप्रिय नुक्कड़ नाटक लिखा जिसका नाम था- ‘एक्सीडेंट’। इस नाटक के सैंकड़ों प्रदर्शन हुए। इस नाटक के ढे़र सारे प्रदर्शनों में मैं शामिल था। उस्ताद-जमूरा के फॉर्मेंट में ये नाटक लिखा गया था। इस नुक्कड़ नाटक में विद्याभूषण उस्ताद और मैं जमूरा की भूमिका किया करता। संतोष झा नेता की भूमिका किया करते। इस नाटक में संतोष की हॅंसी तत्कालीन मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह से मिला करती थी।

नवादा में एक मुस्लिम बस्ती में नाटक करने के दौरान कुछ असामाजिक तत्वों ने एक गाय की ऑंख पर पट्टी बॉंधकर नाटक देख रही भीड़ की ओर धकेल दिया। नाटक के दौरान भगदड़ मच गई। कई कलाकारों एवं र्दाकों को चोटें आईं। असगर वजाहत के नाटक ‘सबसे सस्ता गोत’ का उस समय मंचन चल रहा था। मैं हिंदू या मुस्लिम नेता की भूमिका कर रहा था। मैंने दूर से ऑंख में पट्टी बॅंधे गाय को ज्योंहि आते देखा किसी तरह बचा लेकिन नाटक में ‘आम जनता’ की भूमिका कर रहे कुछ कलाकार जिनकी पीठ गाय की ओर थी, उन्हें खासी चोटें आईं।

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1990 के विधानसभा चुनाव में हमलोग हिलसा गए जहॉं से गोविंद प्रसाद सी.पी.एम के उम्मीदवार थे। वे बड़े जुझारू लगे। बाद के दिनों में गोविंद प्रसाद की लालू राज के दौरान संभवतः 1993 में बेरहमी से हत्या कर दी गई। हिलसा के बाद टीम हजारीबाग गई जहॉं रमणिका गुप्ता चुनाव में खड़ी थी। हमें बताया गया कि वे पहले भी विधायक रह चुकी हैं। वहॉं का माहौल तब बेहद सांप्रदायिक था। कुछ दिन रहने के बाद एक दिन अचानक विद्याभूषण ने हमें चलने को कहा। रमणिका गुप्ता टीम की चुनाव प्रचार में उपयोगिता देख रोकना चाहती थीं लेकिन लगता है विद्याभूषण, रमणिका गुप्ता की किसी बात से चिढ़े थे इस कारण टीम वहॉं से लौट गई। इसी चुनाव के बाद लालू यादव सत्तासीन हुए और ‘प्रेरणा’ का कार्यालय गॉंधी मैदान आ गया। चुनाव के अलावा विद्याभूषण के साथ हम लखीसराय, सोनपुर की यात्राओं में रहे। सोनुपर हमलोग साईकिल से नाटक करने गए। गंगा नदी पार करने के लिए साईकिलों को नाव पर लाद दिया गया था।

1990 में लालू यादव के सत्तासीन होने के बाद प्रेरणा का कार्यालय गॉंधी मैदान के उत्तरी-पचिमी छोर में अवस्थित रामदेव वर्मा-मंजूप्रकाश के फ्लैट में स्थानांतरित हुआ। ये दोनों पति-पत्नी नये विधायक बने थे लिहाजा दोनों को एक ही साथ एक बड़ा सा बंग्ला प्रदान कर दिया गया। ‘प्रेरणा’ का कार्यालय भी यहीं स्थानंतरित हो गया। यहॉं कार्यालय आने में विद्याभूषण की बड़ी भूमिका थी। मंजू प्रकाश से उनके अच्छे रिते के कारण ये संभव हो पाया था। मंजू प्रकाश विधायक बनने के पूर्व जहाजीकोठी में रिहर्सल देखा करतीं थीं। वैसे पार्टी से संबंध भी प्रमुख कारण था ही।

तब तक वे पूरी तरह नाटक में डूब गए। ‘प्रेरणा’ निरंतर बढ़ती जा रही थी। नये-नये लोग आते जा रहे थे। राजेंद्र मंडल, निशा सहित और कुछ पुराने लोग प्रेरणा से विदा हो चुके थे। उनकी शख्सियत बनने लगी थी। वे प्रेरणा में उनका नेतृत्व स्थापित हो चुका था। तब सुरेंद्र आनंद, नीलम, नवीन, मीना, संतोष झा, राकेश रंजन, गोपाल कुमार गोपी आदि प्रेरणा के प्रमुख लोगों में गिने जाते थे। गोपी भाई, विद्याभूषण के कट्टर समर्थक हुआ करते थे। इसी बीच 1990 में प्रेरणा के अधिकांश लोग केरल में साक्षरता आंदोलन में भाग लेने गए। मेरे अलावा विद्याभूषण द्विवेदी केरल नहीं जा पाए थे। विद्याभूषण के छोटे भाई विद्यासागर भी उस यात्रा में शामिल थे। वहॉं प्रेरणा के इन साथियों ने पहली बार गाय का मॉंस चखा था। केरल से लौटने के पचात प्रेरणा के साथियों का आपसी समीकरण बदलने लगा था। सुरेंद्र आनंद की नीलम से और नवीन की मीना से नजदीकियां बढ़ चुकी थी। बाद के दिनों में इन दोनों जोड़ों की शादी हो गई। प्रेरणा में ये पहली अंर्तजातीय शादी थी। नीलम और मीना दोनों सगी बहने थीं। लेकिन इसी के साथ इन लोगों के आपसी मतभेद भी बढ़ने लगे थे। विद्याभूषण, सुरेंद्र आनंद और नीलम के रिश्ते में कुछ ऐसा पेंच था जिस कारण सब कुछ गड़बड़ होता जा रहा था। अंततः सुरेंद्र आनंद, नीलम, नवीन और मीना को प्रेरणा से निकाल दिया गया। इन्हें निकालने में विद्याभूषण द्विवेदी की सबसे अहम भूमिका थी। इन दोनों जोड़ों को निकालने में संस्था के बाकी लोग, खासकर गोपी भाई और राकेश रंजन विद्याभूषण के साथ मजबूती से खड़े थे। इसी के साथ ही सुरेंद्र आनंद का नाटक की दुनिया से भी हमेंशा के लिए विच्छेद हो गया।

लगभग उसी दौरान प्रेरणा में जातिसूचक टाईटल बदलने का चलन शुरू हुआ था। सुरेंद्र शर्मा का नया नाम सुरेंद्र आनंद हो गया। गोपाल सिंह, गोपाल गोपी। बाद में यही नाम स्थाई-सा हो गया। नीलम को नीलम निशांत, सुनील को सुनील शशांक, प्रमोद को प्रमोद प्राांत इसी तरह मेरा नाम अनीश कुमार से अनीश अंकुर हो गया जो आगे आने वाले वर्षों में यही नाम ज्यादा प्रचलित हुआ। इन तमाम तब्दीलियों के पीछे थे विद्याभूषण द्विवेदी। लगभग सभी नाम उनके द्वारा ही सुझाए गए थे। लेकिन उनके नाम के आगे द्विवेदी को बदलने के लिए कोई उपयुक्त शब्द ढूंढ़ना था जो कोई साथी नहीं कर पाए। पुराने साथियों के निकाले जाने के पश्चात फिर नये-नये साथी जुड़ते जाते और कुछ दिन तक कमी खलने के बाद पुराने लोग धीरे-धीरे विस्मृत होते जाते। विद्याभूषण अभी भी टीम के केंद्रक थे। सब कुछ उनके इर्द-गिर्द घूमता।

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1992 में ब्रेख्त के नाटक ‘गैलीलियो’ का कालिदास में मंचन हुआ। इसी साल प्रेरणा ने चतरा, गिरीडीह की यात्राएं कीं। 1993 में ‘ज्योति प्रकाश मेंमोरियल लाईब्रेरी’ के उद्घाटन के समय टीम बक्सर गई। तब टीम काफी बड़ी थी। इसी के आसपास टीम में फिर कुछ मतभेद बढ़ने लगे। टीम की एक लड़की से संबंधित भी कुछ विवाद था। चतरा यात्रा में कुछ ऐसा घटित हो गया था जो बड़े विवाद का कारण बना।

इस बार उन्होंने खुद को संगठन से किनारा ले लिया। वे नवभारत टाइम्स के लिए लिखने लगे। सांस्कृतिक प्रतिनिधि के बतौर जल्द ही उनकी पहचान बन गई। नवभारत टाइम्स में उनकी रिपोर्ट पढ़ी जाती। शहर में उस पर चर्चा होती। रिपोर्ट के बीच में उनकी टिप्पणियां खास तौर पर महत्वपूर्ण होती। हिंदी भाषा पर उनकी पकड़ अच्छी थी। धीरे-धीरे वे पत्रकारिता के मोर्चे पर भी अपनी पहचान बनाने में कामयाब होते गए। उस वक्त ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक थे अरूण रंजन। अरूण रंजन का विद्याभूषण से बहुत स्नेह था। इस मोड़ पर विद्याभूषण अब रंगकर्म छोड़ पत्रकार बनने का सपना देखने लगे थे। उनके द्वारा लिखी गई कई रिपोर्ट आज भी मेरी याद में ताजा है। एक बार हमलोगों ने विद्याभूषण की किसी बात को लेकर आलोकधन्वा से शिकायत की तो उन्होंने जवाब में कहा- “तुम लोग पढ़ते हो उसकी रिपोर्ट? कैसी टिप्पणियां लिखता है विद्याभूषण, देखा है तुमलोगों ने कभी? सीखो… उससे सीखो।”

इसी दरम्यान 1993 में आलोकधन्वा की शादी हुई। सभी काफी प्रसन्न थे। काफी लोग उसमें शामिल हुए। वो शादी हम सबों के लिए एक खास मौका और अनुभव था। विद्याभूषण ने उस विवाह समारोह का संचालन किया था। धीरे-धीरे वे अपने लेखन के फलरूवरूप लोकप्रिय होते चले गए। एक समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने प्रख्यात हिंदी कवि बाबा नागार्जुन को एक समारोह में च्यवनप्राश भेंट किया था। विद्याभूषण ने इस पर व्यंगात्मक शैली पर बहुत अच्छी रिपोर्ट लिखी थी। ऐसे ही सोवियत संघ के विघटन पर कई प्रमुख लोगों से बातचीत पर आधारित रिपोर्ट की मुझे याद है। अरूण रंजन वगैरह के साथ रहते-रहते वे एस.पी. सिंह की चर्चा किया करते। मानसिक रूप से पत्रकारिता में ही कैरियर बनाने की सोचने लगे थे। प्रेरणा उस वक्त जैसे-तैसे चल रही थी। रंगमंच से उनका नाता लगभग टूट चुका था।

1995 का चुनाव होने वाला था। नीतीश कुमार, लालू प्रसाद से अलग होकर समता पार्टी बना चुके थे। चुनाव की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थी। भाकपा-माले एवं समता पार्टी साथ-साथ चुनाव लड़ने की तैयाी कर रहे थे। प्रेम कुमार मणि तब समता पार्टी में थे, बल्कि उसे बनाने वाले प्रमुख लोगों में थे। वामपंथी पार्टियों के चुनाव प्रचार में वाम सांस्कृतिक संगठन से जुड़े रंगकर्मी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार किया करते थे। एक बार किसी पत्रकार ने प्रेम कुमार मणि से पूछ लिया कि क्या आप भी वामपंथी पार्टियों की तरह रंगकर्मियों द्वारा नुक्कड़ नाटक की तरह चुनाव प्रचार करवाएंगे। प्रेम कुमार मणि ने एक विवादास्पद बयान दे डाला- “समता पार्टी चारण और भांटों का इस्तेमाल चुनाव प्रचार में नहीं करेगी।” रंगकर्मियों के लिए‘चारण भांटों’ शब्द का उपयोग प्रेम कुमार मणि के लिए खूब आलोचना हुई थी। विद्याभूषण ने नवभारत टाइम्स में लगभग प्रेम कुमार मणि के बयान के विरूद्ध अभियान-सा छेड़ दिया। हर तरफ से प्रेम कुमार मणि के बयान की आलोचना हुई। वैसे विद्याभूषण की मुत्यु के बाद होने वाली शोकसभा में मणि जी शामिल हुए और उन्हें अपना अनुजवत बताया। विद्याभूषण ने भी मंचन के लिए जब बिहार के पांच कथाकारों का चयन किया उसमें मणि जी की कहानी ‘खेल’ शामिल किया।

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लगभग इसी समय नवभारत टाइम्स बंद हो गया और उनकी नौकरी छूट गई। विद्याभूषण की पारिवारिक पृष्ठभूमि एक गरीब किसान परिवार की थी। मॉं-पिता काफी वृद्ध थे। दो भाई एवं चार बहने थीं। बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। उनके एक बड़े चचरे भाई विद्याभूषण द्विवेदी, जो कि काफी प्रतिभाशाली माने जाते थे, के साथ उन्होंने पटना में रहकर पढ़ाई की। बाद में, विद्याभूषण द्विवेदी पटना से कहीं चले गए। विद्याभूषण ट्यूशन पढ़ाकर अपना गुजारा चलाते थे। वे कई ट्यूशन पढ़ाते। चुंकि पढ़ाई-लिखाई में उनकी काफी ख्याति थी इस कारण उन्हें कई जगहों से ट्यूशन पढ़ाने को आमंत्रित किया जाता।

लेकिन रंगमंच से जुड़ने के पचात धीरे-धीरे ट्यूशन का सिलसिला बंद होने लगा। ऐसी स्थिति में पटना में टिके रहने एवं अपने भाई को टिकाए रखने के लिए नौकरी उनकी मजबूरी भी हो गई थी। वैसे रहने के लिए प्रेरणा कार्यालय कैंपस में एक कमरा उन्हें मिल गया था। नवभारत के अचानक बंद होने से आय का श्रोत बंद हो गया था। पर उसी दरम्यान ‘आद्री’ से निकलने वाली पत्रिका ‘सुबह’ से विद्याभूषण जुड़ गए जिससे उन्हें तात्कालिक राहत मिली होगी। ये 1995 की बात है। मार्च-अप्रैल की। ‘सुबह’ पत्रिका एक अस्थाई-सा काम था।

इसी वर्ष जनवरी में एन.एस.डी रेपर्टरी की टीम पटना आई थी। सतीश आनंद उस पूरे आयोजन के संयोजक थे। कीर्ति जैन उस समय एन.एस.डी की निदेशक थीं। गॉंधी संग्रहालय में पटना के रंगकर्मियों के साथ बात-चीत का आयोजन किया गया। कीर्ति जैन के वक्तव्य के बाद उनसे सवाल-जवाब का एक सेशन था। विद्याभूषण ने उनसे एन.एस.डी को लेकर कई चुभने वाले सवाल पूछे। इसी महोत्सव के बीच सतीश आनंद के इकलौते पुत्र की मौत हो गई थी। उसके पहले सतीा आनंद और हृषीकेश सुलभ का चर्चित झगड़ा घटित हो चुका था। विद्याभूषण ने इस लड़ाई में हृषीकेश सुलभ के बजाए सतीश आनंद का साथ दिया था। अपने पुत्र की मौत के पचात अगली शाम को सतीश आनंद कालिदास रंगालय आए। एन.एस.डी रेपर्टरी का नाटक चल रहा था। वे कालिदास रंगालय के स्टेज की तरफ जाने वाले दरवाजे पर अकेले चुपचाप, उदास खड़े थे। सभी इतने दुःखी थे कि कोई उनसे बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। विद्याभूषण को मैंने उनके करीब जाते देखा। वे देर तक सतीश आनंद के साथ खड़े रहे और धीमें-धीमें स्वर में उनसे कुछ बात करते रहे।

1995 में एन.एस.डी परीक्षा के लिए अप्लाई कर दिया। विद्याभूषण 2-3 वर्षों से एक तरह से सक्रिय रंगमंच से अलग हो चुके थे। उनके एन.एस.डी के लिए फॉर्म भरते ही पटना के एन.एस.डी भरने वालों के बीच सरगर्मी बढ़ गई। उस वर्ष कई प्रमुख रंगकर्मी एन.एस.डी के लिए दावा ठोक रहे थे। एन.एस.डी में विद्याभूषण का होगा या नहीं? यह सबों की दिलचस्पी का विषय था। एक तो रंगमंच से कई वर्षों से अलग रहना और दूसरा वामपंथी होना विद्याभूषण के विरूद्ध जाता था। वाम रूझानों वाले रंगकर्मियों का एन.एस.डी में नामांकन नहीं होता है ऐसी उस समय आम मान्यता थी।

वैसे विद्यााभूषण एन.एस.डी के कटु आलोचक थे। लेकिन संगठन और नौकरी से अलगाव की स्थिति में उन्होंने एन.एस.डी का फॉर्म भर दिया। बंसी कौल ने, जो उनके एन.एस.डी विरोधी रूख से परिचित थे, उन्हें एन.एस.डी में देखकर कहा था- “आखिर आप भी यहॉं आ ही गए!”

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विद्याभूषण का एन.एस.डी में होना उस वक्त एक ‘फिनोमिना’ की तरह लगता था क्योकि उसके पूर्व किसी भी एक्टीविस्ट रंगकर्मी का एन.एस.डी में चयन नहीं हुआ था। पटना रंगमंच में बाद में वैसी ही खुाी शशिभूषण वर्मा के चयन वक्त देखी गई थी। दुर्भाग्य से इन दोनों का एन.एस.डी में ही असमय इंतकाल हो गया।

1996 की फरवरी में मैं पहली बार दिल्ली गया तो उनसे एन.एस.डी में भेंट हुई। वहॉं उन्होंने अपनी मूंछें हटवा ली थी और बाल भी छोटे-छोटे करवा लिए थे। उन्होंने संक्षेप में बताया कि यहॉं कैसे लड़के-लड़िकयों के रिश्ते ‘यांत्रिक’ एवं ‘कंज्यूमरिस्ट’ हैं। ऐसा लगता था कि वे खुद को अनफिट महसूस कर रहे थे।

वैसे मात्र छह महीनों के अंदर वे लोकप्रिय से हो चले थे। वहीं, मुझे अनामिका हक्सर ने मिलने के लिए बुलाया था। उनसे 1995 में एन.एस.डी रेपर्टरी वाले महोत्सव के दौरान लंबी बाते हुई थी। एन.एस.डी के कैंपस में वे मुझसे मिलने आईं। मैंने अपने साथ, उनका मेरे द्वारा लिया साक्षात्कार, जो पाटलिपुत्र टाइम्स में छपा था, भी लेते गया था। अनामिका हक्सर के एन.एस.डी कैंपस में पहुँचते ही वहॉं के छात्र उनसे मॉम-मॉम करते मिलने चले आए। विद्याभूषण भी उन लड़कों में थे।

विद्याभूषण की मौत के एक वर्ष बाद अनामिका हक्सर 1997 के दिसंबर में ‘हूरिया’ नाटक की टीम के साथ पटना आईं। विद्याभूषण की स्मृति में उनके इस चर्चित नाटक का शानदार मंचन हुआ। उस नाटक की प्रस्तृति आज भी पटना के दर्शकों के जेहन में ताजा है।

विद्याभूषण एक साल की पढ़ाई कर गर्मी की छुट्टियों में पटना लौटे। हमलोगों ने बिहार के पॉंच समकालीन कथाकारों की कहानियों का मंचन करना तय किया। कथाकार थे मधुकर सिंह, हृषीकेश सुलभ, प्रेम कुमार मणि, मिथिलेवर और उषा किरण खान। प्रेरणा के दफ्तर के पीछे आम के बगीचे में स्टेज बनाना हमने तय किया। एक नये और अनूठे स्टेज की परिकल्पना की गई। लेकिन बारिश के कारण हमें स्टेज बनाने का प्लान अधूरा छोड़ना पड़ा। अंततः गॉंधी संग्रहालय में उन पॉंचों कहानियों का नाट्य वाचन हुआ। मुझे उषा किरण खान की कहानी मंचित करने की जिम्मेंवारी दी गई थी। मेरे अलावा अशोक मिश्रा, रविशंकर, अमरेंद्र अनल और सज्जन थे। काफी लोग उस प्रस्तृति को देखने आए। प्रस्तुति के दौरान वहॉं की बिजली गुम हो गई थी। मोमबत्ती की रौानी में हमने वो मंचन किया। प्रेरणा के हम सभी अभिनेताओं के लिए उन कहानियों का मंचन एक अलहदा अनुभव था।

उसी दौरान गॉंधी मैदान में विद्याभूषण हमलोगों का नुक्कड़ नाटक देखने आए। ‘भिखारी ठाकुर’ रंगभूमि पर संभवतः सफदर हाशमी रचित ‘समरथ को नहीं दोष गुसांई’ का प्रर्दान चल रहा था। प्रर्दान की समाप्ति के पचात उन्होंने कहा- “नुक्कड़ नाटक को कैजुअल तरीके से करने की आदत हमलोगों को छोड़नी चाहिए। इसे भी मंच नाटक जैसी गंभीरता से करने पर ही इसके आलोचकों को जवाब दिया जा सकेगा।”

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उनके पटना रहने के वक्त ही वीरेन डंगवाल का काव्य पाठ हुआ था। विद्याभूषण के कहने पर प्रेरणा के 20-25 साथी काव्य-पाठ में गए। हम में अधिकांश के लिए वो काव्य पाठ एक यादगार अनुभव था।

27 नवंबर 1996 को पटना जंकन के प्लेटफॉर्म न. 1 से मैंने रविशंकर को दिल्ली जाने वाली ट्रेन में चढ़ाया। उस वक्त मेरे साथ प्रेरणा के कुछ और साथी भी थे। रविशंकर को संस्था की ओर से विद्याभूषण द्विवेदी के इलाज में सहायता के लिए भेजा जा रहा था। दिल्ली से उनके भाई विद्यासागर ने एक और साथी की जरूरत महसूस की थी ताकि मरीज की देखभाल ठीक से हो सके। रविशंकर को रवाना कर ज्योंहि मैं अंजनी तिवारी के घर पहुँचा, उनकी मॉं ने विद्याभूषण की मृत्यु की सूचना दी। रविशंकर जब तक दिल्ली पहुँचे, विद्याभूषण की जीवन लीला समाप्त चुकी थी।

विद्याभूषण जैसी अतुलनीय प्रतिभा, संगठनकर्ता, बेहतरीन अभिनेता, सृजनशील निर्देाक, अनूठा पत्रकार, कवि व सबसे बढ़कर आकर्षक व सम्मोहक व्यक्तित्व का स्वामी पटना के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत में फिर दूसरा नहीं हुआ। सभी विद्याभूषण के नजदीक होना चाहते थे। लोग उनकी स्मार्टनस के कायल थे। बहुत सारे युवाओं में उन्होंने रंगकर्म और वामपंथ के प्रति रूझान पैदा किया। लोगों को समझने के मामले में भी वे पारखी थे। हालांकि, कहीं-कहीं डिक्टेटोरियल एटीट्यूट भी उनमें झलकता था। जैसे बहुत पुराने साथियों का बचाया जा सकता था। अभावों में रहने बावजूद अपनी गरिमा वे हमें बरकरार रखते। अपनी बातचीत में मुदभाषी होने के साथ-साथ हमेशा युद्ध हिंदी बोला करते, उनका ‘सेंस ऑफ हयूमर’ भी लाजवाब था। उनकी मौत के पश्चात साहित्यकार, रंगकर्मी सभी काफी शोकसंतप्त थे। प्रेरणा कार्यालय में विद्याभूषण की बड़ी शोकसभा हुई। बहुत लोग आए थे।

अपूर्वानंद ने उस शोकसभा का संचालन करते हुए कहा- “हम सब कल को बूढ़े हो जाएंगे लेकिन विद्याभूषण की स्मृति हमारे जेहन हमेशा युवा रहेगी।” आलोकधन्वा बोले- “शोषण विरोधी संघर्ष में हमने अग्रिम पंक्ति का एक सिपाही खो दिया है।”

बिहार के जनपक्षधर रंगकर्म और नुक्कड़ नाटकों के उनके अप्रतिम योगदान के लिए कई लोग उनको बिहार का सफदर हाशमी भी कहा करते। मृत्यु के वक्त उनकी उम्र मात्र 27 वर्ष थी। उनकी मौत के बाद अगले दो-तीन महीनों तक विद्यााभूषण को केंद्र में कर कोई-न-कोई आयोजन होता रहता।

उषा किरण खान ने विद्याभूषण की मौत के पचात उन्हें केंद्र में रखकर एक उपन्यास भी लिखा। उस उपन्यास में विद्याभूषण और चंद्रोखर पात्र हैं। चंद्रशेखर की विद्याभूषण की मौत के चार महीनों बाद 31 मार्च, 1997 को सीवान में हत्या कर दी गई थी। दोनों सीवान के रहने वाले थे। दोनों वामपंथी। एक सी.पी.एम तो दूसरा सी.पी.आई (एम.एल ) से जुड़ा हुआ। पता नहीं दोनों एक-दूसरे से परिचित थे या नहीं?

दिल्ली जाने के एक दो दिन पूर्व उमा सिनेमा के दक्षिण, पीरमुहानी कब्रिस्तान की ओर जाने वाली सड़क में देवी दयाल उच्च विद्याालय के पास शाम के वक्त वे अचानक मिल गए। वे साइकिल से थे। देर तक खड़े होकर हम दोनों बातें करते रहे। याद नहीं हमदोनों के साथ कोई और था या नहीं। बहुत सारी बातें होती रही। अतीत के अपने कठिन संघर्षों को वे याद करते रहे। उनको लग रहा था कि अब अच्छे दिन आने वाले हैं। मैं सुनता रहा। विदा होते समय हल्के दार्शनिक अंदाज में उन्होंने एक अजीब-सी बात कही- “मैं दुर्गा हूँ, दुर्गा। दुर्गा को कई देवताओं ने मिलकर बनाया है। वैसे ही मुझे बनाने में बहुत सारे लोगों की मेंहनत लगी है, कईयों का योगदान है मेरे होने में। आसानी से नष्ट नहीं किया जा सकूंगा।”

लेकिन, विद्याभूषण बहुत आसानी से नष्ट हो गए।


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