नियंत्रण खो रही कांग्रेस, अब केंद्रीय नेतृत्व को मजबूत होना होगा

नियंत्रण खो रही कांग्रेस, अब केंद्रीय नेतृत्व को मजबूत होना होगा

कांग्रेस पार्टी भारत का सबसे पुराना राजनीतिक दल है, जिसने आजादी के बाद से लगातार लंबे समय तक केंद्र में सरकार चलाई है परन्तु हम देखते हैं कि इंदिरा गांधी के बाद से कांग्रेस पार्टी लगातार कमज़ोर होती आई है और आज इस स्तर पर पहुंच गई है कि हर नेता अपनी मर्जियां चला रहा है। जब जिस नेता का मन होता है वो अपने पद और पार्टी से इस्तीफा दे देता है और दूसरे राजनीतिक दलों में शामिल होकर पुन: पद प्राप्त कर लेता है और इन सब घटनाओं को केंद्रीय नेतृत्व मूकदर्शक बन कर देख रहा है।

दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को जब भी लगता है कि ये मुख्यमंत्री ,मंत्री या पदाधिकारी आशानुरूप कार्य नहीं कर रहा है तो उसे तुरंत पद से हटा दिया जाता है और उसकी जगह दूसरे किसी व्यक्ति को जिम्मेदारी दी जाती है। जिस व्यक्ति को हटाया जाता है वो चुपचाप गुमनामी के अंधेरे में चला जाता है वह न तो दूसरे दल में जाता है और ना ही केंद्रीय नेतृत्व पर कोई सवाल खड़ा करता है। देश के दोनों सबसे बड़े राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में ये अंतर ही इनकी सफलता और असफलता का सबसे बड़ा कारण है।

इतिहास गवाह है कि जहां सेनापति का अपनी सेना पर नियंत्रण न हो उस सेना द्वारा कभी भी युद्ध के मैदान में जीत दर्ज नहीं की गई है। और कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी उनका सेनापति का कमज़ोर होना ही है।

इसे अभी हाल ही के पंजाब में घटे घटनाक्रमों से हम आसानी से समझ सकते हैं, नवजोत सिंह सिद्धू और पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच लंबे समय से जो अनबन चल रही थी उसे सुलझाने का केंद्रीय नेतृत्व ने कोई ठोस प्रयास नहीं किया और वो उलझते-उलझते इस स्तर पर आ गए कि कैप्टन अमरिंदर सिंह को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा और उसके बाद उन्होंने जो विचार मीडिया के सामने रखे चाहे वो राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को अनुभवहीन बताने वाला बयान हो या फिर सिद्धू के पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों वाला बयान हो उनका आने वाले समय में कांग्रेस की छवि को कमज़ोर करने में बहुत बड़ा योगदान रहेगा। इतने लंबे उथल-पुथल के बाद अब जब सब कुछ सिद्धू के अनुसार हुआ और उन्हें प्रदेश का अध्यक्ष लगाया तो उन्होंने कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी को इस्तीफे की चिट्ठी लिख दी है, अब आम जनता ये समझ नहीं पा रही कि आखिर समस्या है कहां और क्या है, जो पार्टी को इतने बड़े संकट में डाले हुए है। सिद्धू वही नेता है जिनके लिए कांग्रेस पार्टी ने अपने सबसे शक्तिशाली मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ ऐसा व्यवहार किया कि उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। अब पंजाब कांग्रेस को न तो कैप्टन चला रहे न ही सिद्धू। अब आम नेता जो दो गुटों में विभाजित हो गए थे जिसमे से एक गुट ने पहले बैनर लगवाए की कैप्टन एक ही होता है, फिर दूसरे गुट ने सिद्धू सरदार के समर्थन में लगाए, परन्तु अब गुट को चलाने वाले ही छोड़ के भाग रहे हैं।

कांग्रेस पार्टी हर प्रदेश में इसी जद्दोजहद से गुजर रही है, हरियाणा में आए दिन पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुडडा का प्रदेश की अध्यक्ष कुमारी सेलजा के साथ विवाद चलता रहता है, 2019 विधानसभा चुनावों से पहले हुडा का पूर्व प्रदेशाध्यक्ष अशोक तंवर से विवाद सरेआम था और इसी सिलसिले में हुडा ने चुनावों से एन पहले रोहतक में बड़ी रैली करके अपना शक्ति प्रदर्शन किया था और कांग्रेस को चेतावनी दी थी कि यदि वो अशोक तंवर को अध्यक्ष पद से नहीं हटाती तो वो पार्टी छोड़ देंगे और मजबूरन चुनावों में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को हुडा के आगे झुकना पड़ा और अशोक तंवर की जगह कुमारी सेलजा को अध्यक्ष लगाना पड़ा। परन्तु अब हुडा का सेलजा के साथ संघर्ष चल रहा है, अभी हुडा ने हाल ही में ‘विपक्ष आपके समक्ष’ कार्यक्रम चलाने की घोषणा की है जिसमें प्रदेश की अध्यक्ष की कोई भूमिका नजर नहीं आ रही।

इसी प्रकार राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच का संघर्ष केंद्रीय नेतृत्व के दरवाजे पर कई दफा पहुंच चुका है। परन्तु इस पर भी कोई खासी कार्यवाही पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने नहीं की है। प्रदेश में अनिश्चितता बनी हुई है, किसी को कुछ नहीं पता कब क्या हो जाए। छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्री बघेल का अपने साथी टी.एस. सिंह से निरन्तर संघर्ष चल रहा है।

ऐसे अनेकों उदाहरण है, इन्हीं कारणों से पार्टी के बड़े नेता समय समय पर पार्टी छोड़ कर जा रहे है और दूसरे राजनीतिक दलों में शामिल होकर सत्ता सुख भोग रहे हैं। बात चाहे ज्योतिराज सिंधिया की करें, जितिन प्रसाद हो या फिर महिला कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सुष्मिता देव, ये सब कांग्रेस के बड़े नेता थे जिनके दम पर इन प्रदेशों में कांग्रेस पार्टी खड़ी थी, इनका अचानक से ऐसे चले जाना अपने आप में सोचनीय विषय है परन्तु हमने कभी नहीं देखा कि पार्टी ने इतने बड़े नेताओं को जाने से रोकने कि कभी कोशिश करी हो। पार्टी से कोई नाराज़ होता है तो केंद्रीय नेतृत्व का कर्तव्य बनता है कि उसे समझाया जाए और उसकी नाराजगी का उचित तरीकों से समाधान किया जाए लेकिन यहां केंद्रीय नेतृत्व इतना कमज़ोर दिखाई पड़ता है कि ऐसी बड़ी समस्याओं को सुलझाने के लिए पार्टी के आम नेताओं को जिम्मेदारी दी जाती है जैसे पंजाब में चल रहे घटनाक्रम को सुलझाने की जिम्मेवारी उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को दी हुई थी अब सोचने वाली बात ये है कि प्रदेश का जीता हुआ मुख्यमंत्री और सबसे शक्तिशाली मुख्यमंत्री जो हरीश रावत जितने ही वरिष्ठ हैं वो कैसे एक हारे हुए मुख्यमंत्री की बात माने।

अब कांग्रेस पार्टी को यदि आगामी चुनावों में सफलता दर्ज करनी है तो केंद्रीय नेतृत्व को मजबूत होना होगा और सभी मामले खुद ही निपटाने होंगे क्योंकि अब इन सचिवों से काम चलने वाला नहीं है। और मजबूती के साथ प्रदेश के नेताओं को पार्टी लाइन पर लाना होगा और इसके साथ-साथ आम जनता को भरोसा दिलवाना पड़ेगा कि कांग्रेस पार्टी में अब सब कुछ ढीला-ढाला नहीं है, अब सब कुछ नियंत्रण में है।

राजेश ओ. पी. सिंह (लेखक इंडिपेंडेंट पॉलिटिकल ऐनालिस्ट हैं और विचार उनके निजी हैं।)


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