साहित्य में नायक की पारंपरिक अवधारणा बदल दी प्रेमचंद ने

साहित्य में नायक की पारंपरिक अवधारणा बदल दी प्रेमचंद ने

मुझे पिछले वर्ष भी हाजीपुर के इस गांधी आश्रम में आने का मौका मिला था। हाजीपुर की सबसे अच्छी बात ये है कि यहां हमेशा प्रेमंचद जयंती दो तीन दिनों के बाद मनाई जाती है। वैसे भी 31 जुलाई को हर जगह प्रेमचंद जयंती कार्यक्रमों की धूम मची रहती है। पूरे बिहार में छोटी-छोटी जगहों, कस्बों व विश्वविद्यालयों में इतनी जगहों पर जयंती मनाई गई है कि मुझे याद नहीं आता कि इतने बड़े पैमाने पर प्रेमचंद की जयंती मनाई गई हो।

‘कफन’ कहानी क्या दलित विरोधी है?

हमारा आज का विषय है ‘कहानियां तब और अब’। विषय प्रवेश में कहा गया कि आज कल दो किस्म की कहानियां बड़े पैमाने पर लिखी जा रही है। पहली दलित और दूसरी स्त्री विषयक। इन दोनों विषयों का संबंध गहरे रूप से प्रेमचंद से जुड़ा हुआ है। इधर का जो दलित लेखन आया उसने सर्वाधिक हमला प्रेमचंद पर किया है। प्रेमचंद के विरूद्ध ‘सामंत का मुंशी’ और प्रमचंद की ‘नीली आँखें’ जैसी किताबें लिखी गई है। प्रेमचंद को दलित विरोधी साबित करने के लिए ये लोग प्रेमचंद की मशहूर कहानी ‘कफन’ का जिक्र लाते हैं। उनका आरोप है कि प्रेमचंद ने दलित पात्र को लुंपेन के रूप में चित्रित किया है।

‘कफन’ कहानी के संबंध में सुप्रसिद्ध कथाकार निर्मल वर्मा एक दिलचस्प बात कहा करते थे कि हिंदी में ‘ब्लासफेमी’ (ईशनिंदा) की ये पहली कहानी है ‘कफन’। क्योंकि उनका मानना था कि हिंदी कहानी में पहली बार एक व्यक्ति समाज से स्वतंत्र होकर आचरण करता है। जिस समाज के लिए घीसू-माधव ने इतना कुछ किया वही समाज मरने के बाद उसके कफन तक के लिए पैसे देने को तैयार नहीं है। समाज की जो मृत मर्यादाएं हैं उनकी वह धज्जी उड़ाता है। यानी जो भी पैसा उसके कफन के लिए मिलता है उसे खा-पीकर पुरानी परंपराओं को दिखाता है ठेंगा दिखाता है।

‘कफन’ में दोनों पिता-पुत्र यानी घीसू-माधव तीन दिनों से भूखे हैं। जिस औरत को जिंदगी में कभी ढ़ंग की साड़ी नसीब नहीं हुई उसे मरने पर कफन के रूप में ननए कपड़े दिये जाते है। ‘कफन’ कहानी में दोनों घीसू और माधव शराब पीकर नाचते हैं। नाचते समय दोनों कबीर का मशहूर पद ‘‘ठगिनी क्यों नैना मटकावे’’ गाते हैं। ये गीत कबीर द्वारा रचित उलटबांसी है जिसे दलित लेखक समझ नहीं पाते। इन्हीं वजहों से प्रेमचंद को दलित विरोधी साबित कर देते हैं।

जातिगत व धार्मिक अनुभव आधारित साहित्य एक फासिस्ट अवधारणा है

पिछले वर्ष पटना पुस्तक मेला में दलित साहित्य पर हुई बहस में ये सवाल उभर कर आया कि दलितों में जो भिन्न जातियां हैं उनका साहित्य भी अलग-अलग है। जैसे चमार साहित्य, पासवान साहित्य, पासी साहित्य आदि। इन सभी जातियों के अनुभव अलग-अलग हैं तो उनका साहित्य भी अलग-अलग होना चाहिए। पासी का अनुभव पासवान से और चमार का अनुभव घोबी के अनुभव एकदम भिन्न है। ओ.बी.सी अनुभव और दलित अनुभव तो एकदम ही अलग है। दक्षिणपंथी शक्तियां भी ऐसा ही कहती हैं कि हिंदु अनुभव, मुस्लिम अनुभव से एकदम अलहदा है।

अनुभव को आधार बनाकर जो साहित्य लिखा गया उसने बहुत नुकसान पहुंचाया है। दलित लेखकों का प्रतिक्रियावादी समूह कहता है कि जब आपने दलितों का अनुभव ही नहीं झेला तब आप दलितों का साहित्य कैसे लिखेंगे ? मान लीजिए मैं दलित नहीं हूँ। वे कहेंगे कि आपने तो उस जीवन को कभी भोगा ही नहीं है ? तो आपको क्या हक है दलितों पर लिखने का ? एक बड़ा अच्छा पद है ‘स्वानुभूति बनाम सहानुभूति का साहित्य’। दलितों का जीवन कभी न झेलने वाले अधिक से अधिक ‘सहानुभूति’ का साहित्य रच सकते हैं। मान लीजिए दलित घर में मेरा जन्म नहीं हुआ लेकिन हम उसको समझ तो सकते हैं, अपनी संवेदना से। मुक्तिबोध कहा भी करते थे ‘संवदेनात्मक ज्ञान’। यानी मुझे दलितों के जीवन का ज्ञान उसके प्रति संवेदना से हासिल हो सकता है। तब ये समूह पलटकर कहता है कि जब आपने दलितों का सा जीवन भोगा ही नही है तो आप उसे ‘समझ’ कैसे सकेंगे? तब यहां मैं एक कटु बात कहूंगा जो उन्हें बुरा लग सकता है। जब दलितों का जीवन हम समझ ही नहीं सकते तो फिर उसके प्रति ‘सहानुभूति’ भी कैसे हो सकती है?

नसीरूद्दीन शाह, बलराज साहनी और स्तानिस्लाव्स्की

मैं एक अभिनेता भी हूँ। मान लीजिए मंच पर हम एक ऐसे व्यक्ति का अनुभव करें कि उसकी माँ की मृत्यु हो गई है। लेकिन मुझे असल जीवन में ऐसा कोई अनुभव नहीं है तो फिर क्या मैं विश्वसनीय अभिनय नहीं का पाऊंगा ? मंच पर हम तरह-तरह की भूमिका अदा करते हैं कि कभी राजा, कभी चोर, डकैत या फिर आशिक। अब जिसको अनुभव नहीं होगा तब तो वह भूमिका अदा ही नहीं कर पाएगा? ‘पार’ फिल्म में नसीरूद्दीन शाह ने सुअर चराने वाले डोम की भूमिका अदा की थी। उतना शानदार अभिनय, चरित्र के साथ के साथ न्याय कैसे किया नसीरूद्दीन शाह ने ? या फिर आप कालजयी फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ फिल्म में हाथगाड़ी खींचने वाले गरीब मजदूर बलराज साहनी का वो महान अभिनय याद करिए। या फिर ‘सिटी ऑफ ज्वाय’ फिल्म में ओमपुरी को देखें। जो चरित्र उनलोगों ने जीया उसका तो कोई अनुभव ही नहीं था उन्हें ? इनलोगों ने अभिनय के लिए कई-कई रातें गुजारी उन समूहों के लोगों के बीच ताकि उनके कठिन जीवन का समझ सकें? प्रख्यात रूसी रंगकर्मी स्तानिस्लाव्स्की अभिनेता के लिए ‘इमोशनल मेमोरी को जगाने’ की परिघटना की बात करते हैं यानी आप खुद को पात्र की स्थितियों में रखकर देखने का प्रयास करते हैं। यानी भले ही आपकी माँ का निधन नहीं हुआ हो लेकिन उस पात्र के स्थान पर खुद को रखकर सोचिए।

खुद प्रेमचंद को दखिए। वे तो किसान नहीं थे। वे तो मुख्यतः स्कूल इंस्पेक्टर थे। किसानों के जीवन का कैसे जाना उन्होंने? किसान जीवन को उन्होंने प्रयत्न करके जाना, समझा इस कारण ऐसी कहानियां वे लिख पाए। ठीक उसी प्रकार मुख्यतः वे उर्दू के लेखक थे प्रेमचंद हिंदी में बहुत प्रयत्नपूर्वक आए।

जिन्होंने जुल्म झेला है जरूरी नहीं कि जुल्म के विरूद्ध वही लड़ें भी लेकिन जैसा कि हमने बताया कि ये दलित व ओ.बी.सी अनुभव की बात एक तरह की फासिस्ट अवधारणा है। इन्हीं वजहों से दलितों-ओ.बी.सी का सबसे अच्छा इस्तेमाल दक्षिणपंथी शक्तियों ने भारत में किया है। कहा जाता है कि दलितों पर बहुत हजारों वर्षों से उत्पीड़न हुआ है। ये बिल्कुल सही बात है। लेकिन ये दुनिया की किसी किताब में नहीं लिखा हुआ है कि आप पर जुल्म हुआ है तो आप ही जुल्म के खिलाफ लड़िएगा। आपको लड़ना चाहिए लेकिन जरूरी नहीं कि आप लड़ेंगे ही। यदि दो हजार वर्षों से पिछड़े-दलितों पर उत्पीड़न हो रहा है तो कहां है आपके लड़ने का कोई उदाहरण ? यदि आठवी सदी में, पाल काल में भैंसा पर चढ़कर लड़ने के उदाहरण को छोड़ दें तो ऐसा उदाहरण फिर क्यों नहीं है? यदि अनुभव ही आधार होता तब तो आपको लड़ना चाहिए था? जिन पर जुल्म होता है उनके अनुभव से सिर्फ एक बात निकलती है वह है बदले की भावना। जिन लोगों ने हम पर जुल्म किए हैं हम भी उनके साथ वैसा ही करें।

अब जैसे उत्तर प्रदेश का उदाहरण लें। दलित वहां बड़ी संख्या में थे। दलितों के बीच निरंतर ये प्रचार चलाया गया कि अरे तुम तो अतीत में वाल्मीकि की संतान थे लेकिन जब से ये मुसलमान आए हैं तुम्हारी दुर्गति हो गई। चमारों को कहा गया कि इन मुसलमानों के कारण आप जैसे क्षत्रिय कुल में पैदा लोगों को गाय का चमड़ा उतारने के घृणित कार्य में मजबूर होना पड़ा। दलितों को रोमांटिसाइज नहीं किया करना चाहिए । अधिकांशतः ऐसे लोग अपने उत्पीड़कों के साथ ही खड़े पाए जाते हैं। आज उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है। बिहार में रणवीर सेना दलितों के नरसंहार के लिए दलितों को भी साथ रखा करते थे। सबसे नृशंस काम इन्हीं से करवाया जाता था। बड़ी संख्या में फासिस्टों के स्ट्रॉमट्रूपर्स बन जाते हैं पिछड़े-दलित।

अभी हाल ही में छपरा में नौशाद नामक के एक मुसलमान युवक का मॉब लींचिंग कर हत्या कर दी गई। मैं उसकी मौत से संबंधित जांच समिति में गया था। आपको हैरत होगी कि नौशाद को चमार जाति के लोगों ने ही पीट-पीट कर मार डाला। गाय के नाम पर आज जिस ढंग से हत्या कर दी जा रही है वो बेहद चिंताजनक है। प्रेमचंद कहा करते थे कि हिंदुओं को छोड़कर गाय का मांस सभी खाते हैं तो क्या हिंदुओं को सारी दुनिया से संग्राम से कर देना चाहिए? प्रेमचंद ये बातें 1930 के दशक में कह रहे हैं। आज यदि वे बातें कहते तो संभवतः उनका हश्र भी गोविंदा पानसारे और एम.एम कलबुर्गी की तरह होता।

नामवर जी इस संबंध में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कहा करते थे कि जो लोग अनुभव के आधार पर साहित्य रचने की बात किया करते है उनमें वस्तुस्थिति से समझौता करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। बगैर जीवनदृष्टि, बगैर किसी वैज्ञानिक नजरिए के अनुभव आपको कहीं नहीं ले जाएगा।

नायक की पारंपरिक अवधारणा बदली प्रेमचंद ने

प्रेमचंद ने अपने साहित्य में अपने नायक की अवधारणा ही बदल दी। भारतीय काव्यशास्त्र में नायक कैसे हुआ करते थे? कुलीन, अभिजन, प्रभुजन, धीर-गंभीर और धीरोदात्त। प्रेमचंद के नायक कैसे हैं होरी, धनिया, गोबर, हरखू। प्रेमचंद के नायकों के नाम से ही उनकी वर्गस्थिति का पता चल जाता है। ‘रंगभूमि’ का नायक कैसा है ? सूरदास अंधा है, भिखारी है, ऊपर से चमार। जितने चमार नायक प्रेमचंद के उपन्यासों में रहे हैं उतने तो शायद ही कहीं रहे हों। वैसे ‘चमार’ शब्द अब इस्तेमाल में नहीं लाया जाता। ‘सद्गति’ व ‘ठाकुर का कुआँ’ को देखिए। ‘सद्गति’ का अंत कितना भयावह होता है। दलित पात्र को भूखे-प्यासे रखकर हाड़तोड़ परिश्रम कराया जाता है। उसे लकड़ी चीरने का काम दिया जाता है। अंततः मर जाता है। कोई दलित उसकी लाश उठाने नहीं आता। सद्गति का पंडित खुद उसके पैर को रस्सी से बाँध कर जंगल में ले जाकर छोड़ देता है। सत्यजीत रे की फिल्म में ये दृश्य बेहद प्रभावी बन पड़ा है। कहानी का अंत होता है कि मरने के बाद उसकी लाश को गीदड़, चील, कौवे नोच-नोच कर खाते रहते हैं। जीवनभर पंडित की वफादारी करने का यही इनाम था।

नये स्त्री पात्रों को ले आए प्रेमचंद

स्त्री विमर्श की भी बात इसी सदर्भ में की जाती है। प्रेमंचद की एक थोड़ी कम चर्चित कहानी है ‘बालक’। इसमें गंगू नाम का एक पात्र एक ऐसी स्त्री से विवाह करता है जो इसके पूर्व दो तीन बार पहले ही विवाह कर चुकी थी। उसका मालिक समझाता है कि क्यों एक ऐसी स्त्री से विवाह कर रहे हो जो पहले ही कई लोगों के साथ भाग चुकी है? लेकिन गंगू मालिक से कहता है नहीं हुजूर वो काफी भली व अच्छी औरत है। विवाह के बाद छह महीने के अंदर ही उस स्त्री को बच्चा होता है। मालिक फिर गंगू से पूछता है- ‘‘छह महीने में ही बच्चा कैसे पैदा हो गया? कम-से-कम तो नौ महीने होने चाहिए? मैं तो पहले ही कहता था कि ये बदचलन औरत है, अच्छे चरित्र की नहीं है। गंगू जो जवाब देता है उसे देखिए। स्त्री विमर्श की पराकाष्ठा माना जा सकता है इसे। गंगू कहता है- ‘‘हुजूर मान लीजिए मैंने कोई खेत खरीदा उसमें पहले से किसी ने बीज बोया हुआ है। लेकिन खेत का फसल तो मेरा ही होगा न?’’ देखिए प्रेमचंद स्त्री विमर्श को कहां ले जाते हैं।

उनकी एक कहानी है ‘मृतक भोज’। इस कहानी में एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो उसकी जाति का व्यक्ति ही कहता है भले उनकी मौत हो गई लेकिन उनका श्राद्ध, उनका भोज ठीक से होना चाहिए, आखिर मान-सम्मान और मर्यादा भी तो कोई चीज है। धूम-धाम से भोज कराने के चक्कर में पुश्तैनी मकान बिक जाता है। उनकी दोनों बेटियां सडक पर आ जाती है। कर्ज बढ़ जाता है, खाने-खाने को लाले पड़ जाते हैं। तब उसी जाति का एक बूढ़ा व्यक्ति अपने साथ विवाह करने का प्रस्ताव देता है ताकि कर्ज से मुक्ति मिल सके। वह लड़की आत्महत्या कर लेती है लेकिन बूढ़े के साथ शादी करना पसंद नहीं करती।

वर्णाश्रम व्यवस्था ने जितना जड़ खोदा भारत का उतना किसी अन्य चीज ने नहीं

प्रेमचंद की कहानियों में परंपरा, रूढ़ियों, पाखंड से सर्वाधिक विरोध रहता है। प्रेमचंद के अनुसार लोग कहते है कि भारत की पहचान वीरता, दान और तप रहा है। फिर खुद पूछते हैं कि वीरता क्या थी? अपने भाइयों की हत्या करना क्या वीरता थी? दान क्या था? बड़े व अमीर लोगों का एकाधिकार, नग्न नृत्य ही दान है? और तप क्या है? इस तप ने भारत का जितना बेड़ा गर्क किया है उतना किसी अन्य चीज ने नहीं। हिंदुस्तान में लगभग 4 करोड़ साधू रहते हैं। जो कोई काम नहीं करते। मान लीजिए एक साधू पर यदि 5 रूपया भी खर्च होता है। तो साधुओं पर खर्च होने वाला ये 20 करोड़ रूपया भारत के किसानों पर बोझ के समान हैं। किसानों को साधू-संत के नाम पर खर्च करना पड़ता है। प्रेमचंद कहा करते थे कि इस वर्णाश्रम व्यवस्था ने हिंदुस्तान का जितना जड़ खोदा है उतना किसी अन्य चीज ने चीज ने नहीं। परंपरा से, धर्म से, जिसको पुनीत माना और समझा गया है, हमारा काम उसको कलंकित व कलुषित करना है। क्योंकि इसने मनुष्य को बहुत छोटा बनाया है, नीचे गिराया है। प्रेमचंद पर आरोप लगाया गया कि वे ‘ घृणा के प्रचारक’ हैं, ब्राह्मण पात्र हमेशा उनके साहित्य में काले रंग से आते हैं।

सामाजिक जीवन के अवलोकनकर्ता नहीं बल्कि सहभोक्ता

प्रेमचंद के संबंध में सबसे अच्छी बात कही फैज अहमद फैज ने। वे कहते हैं कि ऐसा लगता है कि प्रेमचंद अपनी कहानियों व उपन्यासों में महज अवलोकनकर्ता ही नहीं है बल्कि खुद उन सबमें भागीदार की तरह है। सिर्फ सहानुभूति पैदा नहीं करते बल्कि सहभोक्ता की तरह है प्रेमचंद । आज हिंदी की कहानियों को देखें जबकि किसान का सवाल आता है ऐसा प्रतीत होता है कि किसानों के यथार्थ को को लेखक महज सैलानी की निगाह से देख रहे हैं। प्रेमचंद सैलानी की तरह नहीं बल्कि खुद सब कुछ झेलते नजर आते हैं। उनके किरदार दया के पात्र नहीं है। उनके पात्र भले हारते हुए नजर आते हैं, जिंदगी के संघर्ष में अपना सब कुछ खोते जाते हैं फिर भी अपनी गरिमा, अपने डिग्निटी के साथ समझौता नहीं करते। धन के अभाव के बावजूद बिना पतित हुए, मनुष्यता की रक्षा के लिए दूर तक जाता है।

नामवर जी कहा करते है अच्छी कहानी की पहचान होती है कि उसमें बराबर ये उत्सुकता बनी रहे कि अब क्या ? और अंत होते-होते ‘क्यों ‘ का उत्तर मिल जाता है। प्रेमचंद की कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनके यहां घटनाओं और मनोव्यापार के माध्यम से कहानी आगे बढ़ती है। कहा जाता है मोपांसा की कहानियां भी ऐसे ही मनःस्थिति का सहारा लेकर आगे बढ़ती रहती है। कालिदास का ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ घटनास्थिति के जरिए मनःस्थिति को सामने लाया जाता है। सुनने में ये बहुत मामूली बात लग सकती है लेकिन कहानी में इसको साधना बेहद कठिन काम है। गहरी सर्जनात्मक परिकल्पना की मांग करता है यह काम । इस लिहाज से देखें तो प्रेमचंद अभिज्ञान शाकुंतलम की भारतीय परंपरा को आगे बढ़ाने वाले हैं।

संघर्ष ही सुख है

अखिलेश की एक कहानी है ‘चिट्ठी’ जिसका कुछ वर्ष पूर्व हमलोगों ने किया पटना में मंचन किया था। जिसमें सभी युवा पात्र अपने बेराजगारी के दिनों में ये बात करते हैं कि इस व्यवस्था ने तो हमसे हमारा होना छीन लिया है लेकिन हममें से यदि कभी कोई सुखी हुआ तो आपस में एक-दूसरे को चिट्ठी लिखेंगे। लेकिन काफी वक्त बीतने के बाद कोई भी एक दूसरे को चिट्ठी नहीं लिख पाता। क्योंकि कोई सुखी ही नहीं हो पाया। आज की हिंदी कहानी की सबसे बड़ी तलाश यह है कि ‘सुख क्या है?’ अखिलेश की एक अन्य कहानी है ‘शापग्रस्त’। कहानी के प्रमुख पात्र के पास सब कुछ है गाड़ी, बंग्ला सारा ऐश्वर्य है लेकिन उसके मन को चैन नहीं है, जीवन में सुख व सार्थकता नहीं है। उसे 112 साल की एक बूढ़ी औरत पूछती है कि तुम कभी ठीक से दुःखी हुए , कभी रोए हो ? अमीर आदमी कहता है कि पिछले पचास साल से मुझे किसी बात का दुःख और पश्चाताप नहीं हुआ है।

सुख की तलाश आज की कहानियों में स्पष्ट उभर कर आती है। जीवन का मतलब क्या है? सुख क्या है? कार्ल मार्क्स से किसी ने पूछा कि सुख क्या है? मार्क्स ने एक मिनट ठहर कर जवाब दिया- ‘‘संघर्ष ही सुख हैं।’’ प्रेमचंद की कहानियों में भी संघर्ष में ही सुख तलाशने की बात है।

पुराने नहीं आधुनिक भावबोध की कहानी चाहिए

कहानी का चरित्र कैसा है, कथानक क्या है, किरदार कैसे हैं से ज्यादा महत्वपूर्ण है उसकी प्रभावोन्विति कैसी होती है? सिर्फ भावुकता पैदा करने वाली कहानी कहीं नहीं ले जाती? पुराने भावबोध को आवेग प्रदान करने वाली कहानी का क्या काम है ? हमें आधुनिक भावबोध पैदा करनी वाली कहानी चाहिए। कई बार बेहद खराब कहानी को पढ़कर भी लोग रोते मिलेंगे। ठीक वैसे ही जैसे बंबइया फिल्मों को देखकर घटिया आदमी भी जार-जार कर रोता है। इन फिल्मों के यथार्थ से किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता। प्रेमचंद की कहानियों का यथार्थवाद ऐसा नहीं है। उनकी कहानियां आपको विचलित करती है। कहानी पढ़कर भीतर कुछ घटता है, सबकुछ पूर्ववत ही नहीं रहता हे बल्कि बदलता है। हमारे आस-पास के चले आ रहे रिश्तों को प्रश्नांकित करता है उनकी कहानियां।

जीवन को सुंदर बनाने के लिए दी शहादत

प्रेमचंद के समय से दुनिया बहुत बदल चुकी है। प्रेमचंद ने अपने समय से मुठभेड़ करने के लिए गहरे पैठ जो सर्जनात्मक प्रयास किया वो आज भी अनुकरणीय है। मानव मुक्ति का सवाल उन्होंने केंद्र में रखा। जीवन को सुंदर बनाने की एक संकल्पना सामने रखते है प्रेमचंद। यदि जीवन को सुंदर बनाने की बात न हो तो क्यों कोई देश के लिए जान देगा? लोग सिर्फ जीना ही नहीं चाहते बल्कि सुंदर ढ़ंग से जीना चाहते हैं। भगत सिंह क्यों शहीद होते हैं देश के लिए? मानव मुक्ति के लिए। मानव मुक्ति का सपना न हो तो क्या वे जान की बाजी लगाते ? मानवमुक्ति के वृहत स्वप्न के लिए ही खतरे उठाए जाते हैं। दलित व स्त्री विमर्श में मानव मुक्ति का भी सवाल आना चाहिए। मुक्ति इसलिए कि जीवन को सुंदर बनाया जाए। सुंदरता का मुतलब है जीवन का समग्र विकास। मनुष्य के समग्र विकास में जो बाधाएं समाज के समक्ष उपस्थित है उसके विरूद्ध अपने साहित्य में संघर्ष करना। यही प्रेमचंद का मकसद था।

[पिछले वर्ष प्रेमचंद जयंती सप्ताह के अवसर पर हाजीपुर के गाँधी आश्रम में ‘कहानियां: तब और अब’ पर अनीश अंकुर द्वारा दिया गया वक्तव्य]

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