फिदेल कास्त्रो की पुण्यतिथि: अगर क्यूबा गिरा तो हम सब गिर जाऐंगे

फिदेल कास्त्रो की पुण्यतिथि: अगर क्यूबा गिरा तो हम सब गिर जाऐंगे

आज 25 नवम्बर है। पांच वर्ष पूर्व आज ही के दिन क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति तथा लैटिन अमेरिका सहित समूची दुनिया में क्रांतिकारी शक्तियों के प्रतीक पुरुष फिदेल कास्त्रो का नब्बे साल की उम्र में निधन हो गया था। फिदेल कास्त्रो के बाद क्यूबा में साम्रजावादी ताक़तें खुले रूप से वहां की कम्युनिस्ट सरकार को अस्थिर करने की पुरानी योजना पर काम करने लगी है। इसी साल 11 जुलाई को क्यूबा में हुए प्रदर्शनों को किस प्रकार अमेरिका की नुमाइंदगी में पूंजीवादी मुल्क सहायता प्रदान कर रहे थे यह बात जगजाहिर हो चुकी है। मियामी स्थित केंद्र से मीडिया, संचार का उपयोग कर ‘हाइब्रिड वार’ के बहाने वहां हस्तक्षेप, तख्तापलट की कोशिशें तेज ही चली थी। लेकिन हमेशा की तरह सोशलिस्ट रिपब्लिक क्यूबा की जनता से इन अमेरिका की नापाक मंसूबों पर पानी फेर दिया। इस काम में उन्हें विश्व जनमत का भी भरपुर साथ मिला। लिहाजा पूरी दुनिया की जनता क्यूबा के समर्थन में हमेशा की तरह उठ खड़ी हुई।

अमेरिका के सत्ताधारी वर्ग के तमाम कुचक्रों के बावजूद क्यूबा आज भी दुनियाभर में समाजवाद के लिए लड़ने वाले लोगों के लिए उम्मीद की किरण की तरह है। फिदेल कास्त्रो आज भले क्यूबा में सशरीर मौजूद नहीं है लेकिन जिन मूल्यों को उन्होंने वहां के आम जीवन का हिस्सा बनाया वह उन्हें अपनी गरिमा व इंकलाब को बचाने के लिए संघर्ष में उतरने के लिए प्रेरित करती रहेगी। इन मूल्यों को महान अमेरिकी मुक्केबाज महम्मद अली की कहानी से जान सकते हैं।

फिदेल कास्त्रो, मुहम्मद अली और तियोफिलो स्टीवेंसन

फिदेल कास्त्रो की पुण्यतिथि: अगर क्यूबा गिरा तो हम सब गिर जाऐंगे

अमेरिका के महानतम मुक्केबाज मुहम्मद एक बार क्यूबा गए। क्यूबा में वे वहॉं के प्रख्यात मुक्केबाज तियोफिलो स्टीवेंसन से मिले। तियोफिलो स्टीवेंसन को अपनी मुक्केबाजी की वजह से क्यूबा राष्ट्रीय हीरो का दर्जा प्राप्त था। मुहम्मद अली तब पार्किंसन रोग से पीड़ित थे। उनका हाथ कॉंपता था। तियोफिलो स्टीवेंसन ने मुहम्मद अली से पूछा- “आपने अपना ये क्या हाल बना रखा है?” मुहम्मद अली का जवाब था- “क्या करूं हम अफ्रीकन अमेरिकियों के पास कोई फिदेल नहीं है जो तुम्हारी तरह मेरा ख्याल रखे ।”

दुनियाभर में मुहम्मद अली और फिदेल की मुलाकात वाली तस्वीर कुछ महीनों पहले मुहम्मद अली की मृत्यु के वक्त काफी देखी गई। मुहम्मद अली की मौत के बाद उन सब मुकाबलों का जिक्र किया गया जिसमें अली ने 20वीं सदी के सबसे बड़े मुक्केबाजों को धूल चटाई। लेकिन मुक्केबाजी के विशेषज्ञों ने माना है कि मुहम्मद अली से सर्वाधिक जर्बदस्त मुकाबले तियोफिलो स्टीवेंसन से हो सकता था। लेकिन 20वीं सदी का मुक्केबाजी का यह सबसे महान मुकाबला न हो सका। इसकी वजह थे फिदेल कास्त्रो।

तियोफिलो स्टीवेंसन ने क्यूबा के लिए तीन ओलंपिक स्वर्ण जीता। मुहम्मद अली को ओलंपिक में एक ही स्वर्ण हासिल हुआ था। उसके बाद वे व्यावसायिक मुक्केबाजी में चले गए। तियोफिलो स्टीवेंसन को तब 5 लाख डॉलर की पेशकश मुहम्मद अली से लड़ने के लिए दी गई; जो उस जमाने में यह काफी बड़ी रकम थी। यह लड़ाई मुक्केबाजी की दुनिया में इसे 20वीं सदी का सबसे महान और मजेदार मुकाबला हो सकता था। लेकिन तियोफिलो स्टीवेंसन को इसके लिए क्यूबा छोड़ना पड़ता क्योंकि वहॉं व्यावसायिक मुक्केबाजी पर प्रतिबंध था। फिदेल के क्यूबा में खेल को व्यवसाय के बजाए खेल भावना से खेले जाने पर जोर दिया जाता था। तियोफिलो स्टीवेंसन ने कहा- “मैं पैसों की खातिर फिदेल और क्यूबाई जनता को नहीं छोड़ सकता।”

फिदेल कास्त्रो और डियेगो माराडोना

फिदेल कास्त्रो की पुण्यतिथि: अगर क्यूबा गिरा तो हम सब गिर जाऐंगे

फिदेल कास्त्रो के प्रति लैटिन अमेरिका के स्टार फुटबॉल खिलाड़ी डियेगो माराडोना की अगाध श्रद्धा थी। मारोडोना इतना प्रभावित थे कि अपने बायें पैर में फिदेल का टैटू लगाया करते थे। माराडोना जब अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर थे उन्हें नशीले पदार्थों की लत लग गई थी। फिदेल कास्त्रो ने मारोडोना की इस लत से बाहर आने में तब सहायता की जब अपना देश उन्हें छोड़ चुका था। माराडोना उस दौर को याद करते हुए कहते हैं- “क्यूबा ने अपने दरवाजे मेरे लिए तब खोले जब मेरा अपने देश के क्लीनिक मुझे स्वीकार करने को तैयार न थे। अब मैं भला-चंगा हो गया हूँ। मैं इसके लिए फिदेल का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ। उन्होने मुझसे खुलकर बातें की। उन बुरी चीजों के विषय में बताया जो नशीले पदार्थ करते हैं। मुझे क्या-क्या नहीं करना चाहिए। मैं क्यूबा में चार वर्षों तक रहा। फिदेल रात के दो बजे बुलाया करते और राजनीति, खेल, दुनिया में जो हो रहा था, इन सब विषयों पर बातें करते।”

फिदेल की मौत पर लैटिन अमेरिकी महाद्वीप के इस प्रख्यात खिलाड़ी ने कहा- “निःसंदेह वे महानतम थे। लेकिन उनके आख्यान व किंवदंतियां हमारे हृदय में सुरक्षित है। फिदेल मरे नहीं हैं। वे मेरे दूसरे पिता थे जिन्होंने हमारे समक्ष एक ऐसी विरासत छोड़ी है जिससे हम विवासघात नहीं कर सकते। जो लोग ये समझते हैं कि इस महान व्यक्ति के जाने से क्यूबा कमजोर हो गया है वे गलत साबित हुए हैं। मैं क्यूबा के सभी लोगों को अपनी शुभकामनाएं भेजकर ये कहना चाहता हूँ कि मेरा दिल उनके साथ है। आज मैं एक क्यूबाई सिपाही हूँ। मैं अपना हृदय और शरीर इस झंडे को, क्यूबा को फिदेल और चे के नाम करना चाहता हूँ।”

फिदेल कास्त्रो, अफ्रीका और नेल्सन मंडेला

फिदेल कास्त्रो की पुण्यतिथि: अगर क्यूबा गिरा तो हम सब गिर जाऐंगे

दक्षिण अफ्रीका में फिदेल कास्त्रो द्वारा निभाए गए महत्वपूर्ण भूमिका के संबंध में थोड़ी कम चर्चा होती है। यह क्यूबाई सैनिकों के हस्तक्षेप का ही प्रभाव था कि वहॉं स्वाधीनता संग्राम की रक्षा हो सकी। फिदेल कास्त्रो ने क्यूबाई सैनिकों को अंगोला और मोजाम्बिक में सत्तर व अस्सी के दशक में वहॉं के रंगभेदी शासन द्वारा समर्थित प्रतिक्रांतिकारी ताकतों के विरूद्ध भेजा था। ठीक इसी तरह 1988 के क्यूटो क्यूआनवाले में क्यूबाई सैनिकों के निर्णायक हस्तक्षेप से ही अमेरिका के सी.आई.ए के पैसे से चलने वाली यूनिटा सैन्य बल को पराजित किया गया था। इस हार का ही परिणाम था कि अंगोला से दक्षिण अफ्रीकी रंगभेदी शासन का अंत हुआ। इसी प्रकार उसे नामीबिया से भी अपनी फौज हटानी पड़ी थी। इस सैन्य मिशन में क्यूबा के दो हजार सैनिक मारे गए जबकि लगभग 10 हजार सैनिक घायल हुए। यह पहली बार था कि पचिमी गोलार्द्ध के किसी देश ने अपने महाद्वीप से बाहर के अपनी फौज भेजी।

इन्हीं वजहों से नेल्सन मंडेला ने सार्वजनिक रूप से क्यूबा और फिदेल कास्त्रो के प्रति अपना आभार प्रकट किया था। 1990 में नेल्सन मंडेला 27 वर्षों के बाद जेल से बाहर आए। उन्होंने क्यूबा की यात्रा अपने मित्र फिदेल कास्त्रो का आभार प्रकट करने के लिए किया। वहॉं मंडेला ने कहा- “हम यहॉं क्यूबाई जनता द्वारा दिए गए उस महान कर्ज के प्रति अपना आभार प्रकट करने यहॉं आया हूँ। कोई ऐसा दूसरा देश नहीं है जिसने अफ्रीकी जनता के प्रति ऐसा निःस्वार्थ व्यवहार किया हो।”

जब 1994 में दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासन समाप्त हुआ और नेल्सन मंडेला राष्ट्रपति बने, फिदेल कास्त्रो उन्हें शुभकामनाएं देने वहॉं मौजूद थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फिदेल कास्त्रो जैसा दूसरे विश्व के नेता में वो अन्तर्राष्ट्रीयतावादी प्रतिबद्धता नहीं दिखती है।

फिदेल, पाब्लो नेरूदा और मार्कवेज

फिदेल कास्त्रो की पुण्यतिथि: अगर क्यूबा गिरा तो हम सब गिर जाऐंगे

फिदेल कास्त्रो लगातार घंटों जोशीले भाषण देने की कला के कारण उन्हें उनके मित्र ‘ द ज्वाइंट’ के नाम से पुकारते थे। फिदेल ने एक छोटे से द्वीप क्यूबा को अपने समय के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य अमेरिका के सामने स्वाभिमान और खुदमुख्तारी से खड़ा होना सिखाया। फिदेल कास्त्रो दुनिया के उन विरले नेताओं में से थे जिनकी अपने समय के महान साहित्यकारों से घनिष्ठता थी। गैब्रिएल गार्सिया मार्कवेज तो उनके निकटतम मित्रो में थे ही। इसके अलावा अर्नेस्ट हमेंग्विे, सिमोन द बोउवा, ज्यां पॉल सार्त्र, जोसे सारामोगो, पाब्लो नेरूदा भी उनके मित्रों में थे।

मार्कवेज तो फिदेल के दूत की तरह माने जाते थे। दोनों के मध्य घनिष्ठता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि मार्कवेज अपने उपन्यासों की पांडुलिपि तक फिदेल कास्त्रो से दिखाया करते थे। फिदेल ने कई बार उनकी पांडुलिपि में तथ्यगत अशुद्धियों को भी दुरूस्त किया था। मार्कवेज का ‘उपन्यास लव इन द टाइम ऑफ कॉलराट’, जिसे 20वीं सदी के सबसे सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों में गिना जाता है; की पांडुलिपि भी फिदेल कास्त्रो कर नजरों से गुजरी थी। मार्कवेज और फिदेल की मित्रता क्रांति के प्रांरभ से ही थी जब अमेरिका के दुष्प्रचार का मुकाबला करने के लिए क्यूबा ने एक समाचार एजेंसी की शुरूआत की थी।

मार्कवेज फिदेल के सबंध में कहते हैं- “उनकी स्मृति बहुत अच्छी थी। वे काफी पढ़ते थे। मुझे हमेशा ताज्जुब होता कि अपने व्यस्त समय से वे पढ़ने के लिए कैसे वक्त निकाल पाते हैं। वे किसी भी प्रश्न का उत्तर देने से इंकार नहीं करते थे, भले ही वो कितना भी उन्हें असहज करने वाला क्यों न हो। फिदेल को समुद्री भोजन के विषय में काफी जानकारी थी।”

फिदेल कास्त्रो से रिश्तों के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका में मार्कवेज पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। जब 1992 में बिल क्लिंटन राष्ट्रपति बने तक उनपर प्रतिबंध हटाया गया। बिल क्लिंटन से एक मुलाकात में मार्कवेज ने फिदेल कास्त्रो की तरफदारी की और क्लिंटन से कहा- “यदि आप और फिदेल आमने-सामने बैठकर समस्याओं को सुलझाएं तो बर्फ पिघल सकती है।”

पाब्लो नेरूदा ने अपनी संस्मरणों की किताब ‘मेरा जीवन, मेरा समय’ (मैमोयर्स) में फिदेल कास्त्रो को पहली दफा सुनने के अनुभवों के संबंध में लिखा है- “मैं भी उस दो लाख की भीड़ में खड़ा होकर वह लंबा भाषण सुनने वालों में से एक था। मेरे लिए और बाकी तमाम के लिए फिदेल का भाषण एक तरह से रहस्योद्घाटन था। उन्हें इतने लोगों के सामने भाषण देते सुन मुझे लगा कि लातीन अमेरिका में एक नये युग की शुरूआत हो रही है। मुझे उनकी भाषा की ताजगी बहुत अच्छी लगी।”

उनकी भाषा के संबंध में पाब्लो नेरूदा आगे कहते हैं- “आम तौर पर मजदूर वर्ग के अच्छे से अच्छे नेता और राजनेता उन्हीं घिसी-पिटी बातों को दोहराते हैं। इन बातों के अर्थ भले ही महत्वपूर्ण हों, लेकिन उनके शब्द बार-बार के दुहराव से भोथरे हो जाते हैं। फिदेल ने इस तरह की जुमलेबाजी नहीं थी। उनकी भाषा रचनात्मक और प्राकृतिक थी। ऐसा लगता है बोलते और पढ़ाते वक्त वह स्वंय भी उससे सीख रहे थे।”

वैसे तो फिदेल कास्त्रो का लगभग अकेले ही अमेरिका की दुरभिसंधियों का मुकाबला करना पड़ा पिछले दशकों के के दौरान वे लैटिन अमेरिकी वामपंथ और उसे नयी पीढ़ी के नेताओं के गॉडफादर की तरह थे। विशेषकर वेनेजुएला के हयूगो शावेज, बोलीविया के इवो मोरालेस और इक्वाडोर के राफेल कोर्रा आदि के। इसके अलावा ब्राजील, चिली आदि की वामझुकावों वाली सरकारों को मिला दिया जाए तो फिदेल कास्त्रो लैटिन अमेरिका के पॉंच वामपंथी सरकारों के नेता थे।

वैसे इन दोनों के अलावा निकारागुआ में सांदिनिस्ता की सरकार और चिली में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई पहली वामपंथी सरकार ने भी फिदेल कास्त्रो से प्रेरणा प्राप्त की। चिली के राष्ट्रपति सल्वादोर अयेंदे से जब फिदेल कास्त्रो की मुलाकात हुई तो कास्त्रो ने अयेंदे को एक राइफल भेंट किया। अमेरिका की खुफिया एजेंसी सी.आई.ए द्वारा समर्थित अगस्तो पिनोशे के नेतृत्व सैन्य तख्ता पलट कर राष्ट्रपति भवन को घेर लिया गया। जब सल्वादोर अयेंदे चारों ओर घिर चुके थे तो उनका अंतिम सहारा फिदेल कास्त्रो द्वारा दी गई वही राइफल थी जिससे लड़ते हुए वे मारे गए।

जैसा कि फिदेल कास्त्रो कहते हैं- “क्रांति कोई गुलाबों की सेज नहीं है। वर्तमान और भविष्य के बीच संघर्ष का नाम है क्रांति।”

फिदेल कास्त्रो की पुण्यतिथि: अगर क्यूबा गिरा तो हम सब गिर जाऐंगे

फिदेल कास्त्रो की इच्छा थी कि उनकी अस्थियों को क्यूबाई जनता के महानायक रहे जोसे मार्ती की कब्र तथा उनके अनन्य सहयोगी व दुनियाभर में क्रांति के प्रतीक बन चुके चे ग्वेरा की सांतियागो स्थित कब्र के बगल में रखा जाए। यह निर्णय खुद फिदेल कास्त्रो द्वारा लिया गया था ताकि भविष्य में उनके इर्द-गिर्द व्यक्ति पूजा (पर्सनलिटी कल्ट) को बढ़ावा न मिले। क्रांतिकारियों कम्युनिस्टों की मानवतावादी परंपरा के अनुकूल फिदेल कास्त्रो ने अपनी वसीयत में ये लिखा कि उनके नाम पर कोई पार्क, रेस्तरां, प्लाजा, सार्वजनिक स्थल मकान आदि के नाम न रखे जाएं। उनकी मूर्ति न बनाई जाए और न स्मारक खड़े किए जाएं।

यह कैसा संयोग है कि फिदेल कास्त्रो की मृत्यु ठीक उसी दिन हुई जिस दिन अपने 81 साथियों के साथ मैक्सिको से ‘ग्रैनमा’ नामक नाव पर सवार होकर क्यूबा की मुक्ति के लिए रवाना हुए थे। 65 वर्ष पूर्व 2 दिसंबर को फिदेल कास्त्रो, चे ग्वेरा और राउल कास्त्रो सैंटियागो में उतरे। ठीक इसी दिन फिदेल का शव सैंटियागो पहुंचा। इन वजहों से तथा क्रांतिकारियों के हवाना विजय अभियान को याद करने के लिए उसी यात्रा को दुबारा उलटा किया गया। सैंटियागो जाने के रास्ते में ही सांता क्लारा नामक शहर पड़ता है। इस शहर ने क्यूबा की स्वतंत्रता में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। यहीं चे ग्वेरा के नेतृत्व में बातिस्ता की सेना को निर्णायक पराजय का सामना करना पड़ा था। बाद में यहीं पर चे ग्वेरा को दफनाया भी गया था। फिदेल ने ये इच्छा जाहिर की थी कि उसकी अंतिम यात्रा के दौरान उसके शव के एक दिन के लिए चे ग्वेरा के कब्र के समीप अवश्य रखा जाए। फिदेल के उस स्वप्न को पूरा किया गया। फिदेल कास्त्रो को 4 दिसंबर को समूचे लैटिन अमेरिका के मुक्ति संग्राम के नायक जोसे मार्ती के स्मारक के बगल में दाह-संस्कार किया गया।

फिदेल और भारत

फिदेल कास्त्रो की पुण्यतिथि: अगर क्यूबा गिरा तो हम सब गिर जाऐंगे

फिदेल कास्त्रो का भारत से खासा लगाव था। 1959 में क्यूबाई क्रांति के पश्चात वे पहली बार जब संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में भाग लेने अमेरिका गए तो उन्हें रहने के लिए कोई होटल तक नहीं उपलब्ध नहीं कराया गया। बाद में, जब फिदेल ने संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष धरना देने की धमकी दी तब जाकर उन्हें एक होटल में जगह मुहैया कराया गया। उस होटल में उनसे मिलने जाने वालों में सबसे पहले नाम था जवाहर लाल नहरू का। नेहरू ने फिदेल कास्त्रो का हौसला बढ़ाया। फिदेल कास्त्रो के इंदिरा गॉंधी से भी अच्छे ताल्लुकात थे। भारत में 1983 में गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन के समय वे अध्यक्ष भी थे। इसके अलावा 1973 में भी भारत आए थे।

भारत के वामपंथी दलों से भी फिदेल कास्त्रो के घनिष्ठ संबंध थे। सोवियत संघ के विघटन के समय जब क्यूबा अन्न संकट से जूझ रहा था तब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत की पहलकदमी पर दस हजार टन से भी अधिक अनाज क्यूबा को भेजा था। समुद्री मार्ग से अनाज लिए हुए जहाज जब क्यूबा पहुँचा तब फिदेल कास्त्रो खुद मौजूद थे।

भारत यात्रा के दौरान फिदेल कास्त्रों बहुत लोगों से मिले। शहीद रंगकर्मी सफदर हाशमी ने फिदेल कास्त्रो से हाथ मिला पाने में सफल हो गए थे। सफदर हाशमी काफी दिनों तक फिदेल के हाथों की ग्रिप की गरमाहट चर्चा किया करते।

फिदेल कास्त्रो की पुण्यतिथि: अगर क्यूबा गिरा तो हम सब गिर जाऐंगे

हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि अरूण कमल अपनी एक कविता में कहते हैं- “कहॉं है पृथ्वी का वह देश जहॉं एक भी विज्ञापन नहीं है।”

फिदेल पर कास्त्रो पर लिखी अपनी कविता में पाब्लो नेरूदा कहते हैं-

यही वो प्याला है, लो फिदेल

इतनी उम्मीदों से भरा है यह प्याला

कि इसे होंठ से लगाते ही तुम्हें लगेगा कि तुम्हारी जीत

मेरे दो की परिपक्व मदिरा की तरह है

एक नहीं अनेक हाथों से बनी हुई मदिरा

एक दाना अँगूर नहीं अनेक लत्तरों से बनी हुई:

यह एक बूंद नहीं अनेकों नदियों हैं

एक कप्तान नहीं अनेकों लड़ाईयां।

अगर क्यूबा गिरा तो हम सब गिर जाऐंगे

और तब आएंगे हम उसे उठाने हम सब, सब के सब

और अगर क्यूबा में खिलते हैं फूल

तो उनमें भरा है हमारा ही शहद

वे छू के तो देखें क्यूबा का मस्तक

लोगों की मुट्ठियां बरसेंगी उन पर

हम निकाल लाएंगे अपने भूले हथियार

अपने प्यारे क्यूबा को बचाने

न्योछावर उस पर सब कुछ हमारा

गौरव बलिदान

(कविता का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद अरूण कमल )


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