कम्युनिस्ट नैतिकता के बिना आर्थिक समाजवाद मुझे आकर्षित नहीं करता

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पीठ पर बंधे थैले के वजन से दब कर वे जमीन पर गिर पड़े। किसी तरह बैठने के बाद थैले को उन्होंने मुश्किल से उतारा। अपनी डायरी के लिए थैले के अंदर हाथ डाल टटोला। थैले के बाकी चीजों के बीच डायरी थोड़ी छुपी सी थी। उन्होंने इलाके के भौगौलिक नक्शे को पीछे किया। इस अभियान के दौरान पहले इस नक्शे पर खड़िया से जहां-तहां चिन्हित किया हुआ है। चेग्वेरा और उनके साथी जिस जंगल में बड़े कठिनाई से अभियान चला रहे थे वो अनजाना, अनदेखा यहां तक कि ठीक से जांचा-परखा हुआ भी नहीं था। पहाड़, नदी व रास्ते बेहद दुर्गम थे। निरंतर बारिश, बीच-बीच में त्वचा जलाने वाली कड़ी घूप और जंगल जैसे शत्रु के रूप में उपस्थित ही गए हों।

मच्छरों और कीड़ों-मकोड़ों के हमलों से भी निरंतर परेशान थे लेकिन इनके साथ सभी अभियानी रहना सीख रहे थे। बाकी लोगों की तरह चे ग्वेरा की भी शक्ति छीझ चुकी थी। वे थके, भूखे-प्यासे, बीमार और मरियल से हो गए थे। पिछले एक सप्ताह से परेशान पेट की तकलीफदेह बीमारी से बस कुछ ही दिनों पूर्व ही उबर पाए थे। उधर बचपन से लगी हुई अस्थमा की बीमारी ने उन्हें अलग घेरा हुआ था। अस्थमा चे के साथ तब से लगी हुई थी जब वो मात्र दो वर्ष के थे।

चे ने 7 अक्टूबर, 1967 को अपनी अंतिम पंक्तियां लिखीं- “सेना ने सेर्राना में 250 व्यक्तियां की उपस्थिति के बारे में विचित्र जानकारी दी। उसके अनुसार घिरे हुए लोगों को रोकने के लिए जिनकी संख्या 37 है ऐसा किया गया। वे असीरो और ओरो के बीच हमारे गुप्त ठिकानों की बात कह रहे हैं। समाचार कुछ उलझा हुआ प्रतीत होता है। उंचाई -2000 मीटर।” उस रात 1 बजे जब उन्होंने एक संकरी घाटी में रूककर घेराबंदी तोड़ने का एलान किया तभी उनका सामना एक बड़े सैनिक दस्ते से हो गया। अपने सीमित छापामारों की टुकड़ी के साथ, जिसे उस दिन की मुठभेड़ से निपटने की जिम्मेदारी दी गई थीं उन्होंने दुश्मनों का मुकाबला बहादरीपूर्वक किया। घाटी के गर्भ में छिपकर सभी छापामार घाटी को घेरे अनगिनत सैनिकों से सुबह तक डटकर लोहा लेते रहे। चे की सुरक्षा में उनके आस-पास तैनात साथियों में से कोई भी नहीं बच पाया। केवल डॉक्टर जिसकी हालत पहले से ही खराब थी तथा एक पेरूविआई छापामार जो बुरी तरह घायल था, जीवित बच पाए। इनको दुश्मनों के चंगुल से बचाने के लिए वे तब तक लड़ते रहे जब तक घायल नहीं हो गए।

यह बात ज्ञात हो गई है कि घायल होने के बावजूद चे लगातार तब तक लड़ते रहे जब एक गोली से उनकी एम-2 राइफल क्षतिग्रस्त होकर पूरी तरह बेकार नहीं हो गई। उनके पास जो पिस्तौल थी उसमें गोलियां नहीं थीं। ये अविश्वसनीय घटनाएं बताती हैं कि उन्हें किस प्रकार जीवित पकड़ा गया होगा। उनके पांव में गोली लगने के कारण वे बिना किसी सहायता के चलने में असमर्थ थे परन्तु ये जख्म जानलेवा नहीं थे। ला पाज में बैंरितोस, ओकांदो एंव अन्य उच्च सैनिक पदाधिकारी एकत्रित हुए और सी.आई.ए के इशारे पर चुपचाप उन्हें खत्म करने का निर्णय लिया गया। 10 अक्टुबर को जब चे की मृत देह के चारों ओर से घेरे बोलिवाई आर्मी और अमेरिकी एजेंटों की तस्वीर प्रकाशित हुई। एजेंसी की तस्वीरें चेग्वेरा के अविचल शरीर को हर कोण से दिखा रही थीं। बोलिविया के जनरल बैरियेन्तोस की तानाही ने दुनिया के आगे इसे एक बड़ी ट्राफी की तरह पेश किया था।

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विश्वविख्यात कला समीक्षक जॉन बर्जर ने चे की इस तस्वीर की तुलना रेनेंसा काल के चित्रकार मांतेग्ना की मृत इर्सा मसीह वाली विश्वीविख्यात पेंटिंग से की। जॉन बर्जर ने मृत देह वाली चेग्वेरा के फोटाग्राफ और मृत देह वाली ईस मसीह के चित्र के मध्य साम्य को रेखांकित करते हुए कहा- ‘‘ दोनों मृत देह में एक तस्वीर है जबकि दूसरा चित्र। दोनों एक ही उॅंचाई से ली गई है। हाथ भी दोनों के एक ही तरह से रखे हुए हैं यहां तक कि उंगलियां भी एक ही तरह से मुड़ी हुई हैं। माथा एक कोण से हल्का ऊपर उठा हुआ है। मुँह भी एक ही ढंग से खुला हुआ है। सिर्फ एक ही अंतर है ईसा मसीह की आँखें बंद है और उनके निकट दो लोग शोकाकुल अनुयायी खड़े हैं जबकि चे की तस्वीर के नजदीक कोई कोई रोने वाला नहीं है।’’

चे ग्वेरा की तस्वीर सार्वजनिक करने के पीछे राजनीतिक चेतावनी थी कि जो भी इस रास्ते पर चलेगा उसे यही अंजाम भुगतना होगा। चे की मृत देह की नुमाइश कर वे खौफ पैदा करना चाहते हैं, क्रांति की राह पर चलने की निरर्थकता का अहसास कराना चाहते हैं पर साथ ही वे डरे हुए भी थे इन्हीं वजहों से चे की पहचान के लिए उसके हाथ की कलाई काट ली गई थी और उसकी देह को एक गुप्त स्थान पर जलाकर दफ्ना दिया गया था। उसके कटे हुए हाथ को एक तरह चोरी-छुपे 1970 में क्यूबा ले जाया गया। 1997 में उसकी हड्डियों को क्यूबा की एक फोरेंसिक टीम ने बोलीविया में ढूंढ़ निकाला। 1997 में उन हड्डियों को क्यूबा ले जाकर उसका राजकीय रूप से दफ्नाया गया।

ये वर्ष चे ग्वेरा की शहादत के 50 साल पूरा होने की है। पूरी दुनिया में चे की असाधारण शहादत के पचास साल मनाए गए। अगले साल चेग्वेरा के भारत आने तथा क्यूबाई क्रांति का भी साठवां साल है। च ग्वेरा को अब तक एक रोमांटिक क्रांतिकारी एवं हथियार लिए आत्महत्या को उद्धत योद्धा की तरह पेश किया जाता रहा है। ऐसी परिस्थितियों में उनके विचारों पर भी रैशनी पड़ने लगी है। अब कई नई सामग्रियां प्रकाश में आ गई है, नयी-नयी किताबें, फिल्में आई हैं उनकी भूमिका व उनके विचारों को नये ढ़ंग से समझने की कोशिश हो रही है। अतः उनके जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ों को समझना आवयक है।

प्रारंभिक जीवन

अर्नेस्टो चे ग्वेरा का जन्म 1928 में हुआ और मृत्यु 1967 में। उनकी उम्र उस समय मात्र 39 वर्ष थी। उनका सक्रिय राजनीतिक जीवन 15 वर्षों से भी कम वक्त का रहा। 1954 में चे ने ग्वाटेमाला में साम्राज्यवादी हमले के खिलाफ प्रतिरोध संघर्ष में भाग लिया। 1956 से 1959 तक वे क्यूबाई क्रांतिकारी के रूप में उन्होंने काम किया। टूटी-फूटी नाव ‘ग्रैनमा’ पर सवार होकर हवाना में विजयी के रूपी में प्रवेश करने तक सब कुछ में वे शामिल रहे।

चे जिन्हें जन्म के समय उन्हें ‘टेटे’ कहा जाता था। उनके पिता अर्नेस्टो एक कंस्ट्रक्शन इंजीनियर थे। जब वो दो वर्ष के थे तभी एक नदी के बर्फीले पानी के कारण न्यूमोनिया के शिकार हो गए। बाद में यह अस्थमा में तब्दील हो गया, जो उन्हें ताउम्र परेशान करता रहा। गुरिल्ला अभियान के दौरान ये अस्थमा उन्हें विशेष तौर पर तंग करता रहा। जब थोड़े बड़े हुए तो अपनी इस गंभीर बीमारी के दर्द से मुक्ति के लिए ढ़ेर सारे पुस्तकें पढ़ने की आदत डाल ली। थोड़े और मजबूत हुए तो खुद को खेलों में को झोंक दिया मसलन तैरना, रग्बी और फुटबॉल आदि।

अपनी बीमारी और दूसरे लोगों को मदद के ख्याल से 1947 के प्रारंभ में चे ग्वेरा ने डॉक्टर बनना तय किया। मेडिकल की पढ़ाई के कारण उन्हें अपने माता-पिता को अल्टा ग्रेसिया छोड़ राजधानी ब्यूनर्स आयर्स आना पड़ा। दवाओं ने उनमें पंख भर दिए। एक मध्यमवर्गीय परिवार से आने के बावजूद उन्होंने अपने बचपन की उन स्मृतियों अभी भी सहेज कर रखा था जिसमें वे कामचलाउ घरों में रहने वाले गरीब व अभावग्रस्त इंडियन परिवारों के दोस्तों खेला करते थे। उनके पिता ने अपने निजी घर को ऐसे सार्वजनिक जगह में तब्दील कर दिया था जो सभी गरीब बच्चों के लिए खुला था। चे ग्वेरा के पिता ने 1937 में स्पेनिश रिपब्लिक के समर्थन में एक समिति भी बनाई थी।

मोटरसाईकिल डायरी

1948 में अपने मित्र अल्बेर्टो ग्रेनादो के साथ उन्होंने मोटरसाईकिल यात्रा प्रारंभ की। मोटरसाईकिल से उन्होंने लगभग पूरे लैटिन अमेरिका की यात्रा की अर्जेंटीना के अलावा चिली, पेरू, कोलंबिया, बोलीविया, ग्वाटेमाला, मेक्सिको, क्यूबा आदि। लगभग आठ सौ पचास किमी की यात्रा में पूरे महादेश का चक्कर लगा लिया। इस यात्रा ने उनकी चेतना को विस्तृत व विकसित बनाया। चे ग्वेरा ने अपनी पहली यात्रा एक पुराने नोर्टन 500 सी.सी की ला पेदेरोसा 11 मोटरसाईकिल से प्रारंभ की। 29 दिसंबर, 1951 को ग्रानाडो के साथ घूमते हुए उन्होंने एक तरफ जमींदारों की विशाल भूखंडों पर कब्जे, दूसरी ओर भूमि से वंचित किसानों की तकलीफ व दुर्दशा को नजदीक से देखा। अर्जेंटीना से वेनेजुएला के रास्ते में चिली, पेरू और कोलंबिया के उपेक्षित क्षेत्रों में अमीर-गरीब के बीच नंगे भेदभाव को चेग्वेरा ने गहराई से महसूस किया। दूसरी तरफ अमीरों का ऐश्वर्य भरा जीवन था। चेग्वेरा ने अपनी यात्रा के प्रारंभिक स्थल मीरामार में समुद्र के किनारे संपत्तिशाली लोगों के महंगे रिसार्ट व उनके ऐशगाह को देखा था। यहां चेग्वेरा अपनी प्रमिका चिचिन्ना के साथ कुछ देर ठहरे भी थे।

चिचिन्ना आरामपसंद जीवन व्यतीत करने वाली लड़की थी। वो खुद भी एक खाते-पीते अमीर खानदान से ताल्लुक रखती थी। मीरामार में चे ग्वेरा ने चिचन्ना के संग सारी सुख-सुविधाओं वाले आरामगाह में कुछ समय व्यतीत भी किया। बल्कि उनका मित्र अल्बेर्ता ग्रेनादो चेग्वेरा के अपनी प्रेमिका को छोड़ चलने में देरी के कारण परेशान भी था। समुद्र किनारे अपनी प्रमिका की गोद में अपना सर रखे चेग्वेरा को लगा कि ऐश्वर्य भरी दुनिया से परे किसी बड़े मकसद के लिए, समुद जैसे उसे बुला रहा है। चिचिन्ना अनजान रास्तों पर मोटरसाईकिल यात्रा के खिलाफ थी। अंततः चिचन्ना के साथ चेग्वेरा का संबंध अधिक दिनों तक नहीं चल सका और मोटरसाईकिल से ग्रनादो के साथ आगे बढ़ चले। इस यात्रा में चेग्वेरा गरीब किसानों में जैसे खुद की तलाश करते हैं। यह मार्ग चेग्वेरा और ग्रेनादो को लैटिन अमेरिकी पहचान की एक वास्तविक तस्वीर प्रकट करता है।

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चिली में तांबे के खदानों में मजदूरों का निर्मम शोषण देख वे शर्मिंद्रा व द्रवित हुए। इस यात्रा के दौरान ही उन्हें लैटिन अमेरिका में संयुक्त राज्य अमेरिका की ‘यूनाइटेड फ्रूट कंपनी’ के प्रभावों का अहसास हुआ। लैटिन अमेरिका के मूल निवासियों रेड इंडियन्स के विद्रोह संघर्षों से चेग्वेरा परिचित हुए और साथ भी उन्हें इस बात का भी अहसास हुआ। अपनी सभ्यता के ध्वंस के विरूद्ध इन रेड इंडियंस ने कभी भी संघर्ष करना नहीं छोड़ा चेग्वेरा का मुक्ति की लड़ाईयों के इस छिपे हुए इतिहास से परिचय हुए। 1745 के टूपक अमारू से लेकर 1825 के सिमोन बोलिवार द्वारा चलाए गए संघर्षों से उन्होंने प्रेरणा ली। लैटिन अमेरिका का यही सुलगता हुआ इतिहास था जिसे मेडिकल की पढ़ाई कर रहे चे ग्वेरा को भविष्य का क्रांतिकारी बनाया।

विवविख्यात लैटिन अमेरिकी लेखक एडुआर्डो गालियानों चेग्वेरा की इस साहसिक यात्रा के संबंध में बताते हैं- ‘‘उसके साथ बातचीत करते हुए, आप ये नहीं भूल सकते कि ये समूचे लैटिन अमेरिका की एक लंबी यात्रा करने के बाद क्यूबा पहुँचा है। वह बोलिवाई क्रांति की मृत्युवेदना में रहा है और बतौर पर्यटक नहीं। मध्य अमेरिका में उसने केले लादे, मेक्सिकन प्लाजा में अपनी आजीविका के लिए फोटो खींचे और अपने आपको उसने ‘ग्रानमा’ के जोखिम में फेंकते हुए अपनी जिंदगी खतरे में डाला।’’

पेरू में सेन पाब्लो के सूपर कॉलानी में उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि मेडिसिन अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं बल्कि इस पर अधिकार प्राप्त कर नये क्षितिज की तला के लिए संघर्ष करने का माध्यम भर है। यह यात्रा लगभग सात महीनों की थी। चेग्वेरा की ‘मोटरसाईकिल डायरी’ पर एक फिल्म भी बनी है जो काफी सफल रही। अर्जेंटीना लौटकर उसने रिकॉड समय में सभी दस परीक्षाओं को उत्तीर्णकर डिप्लोमा की डिग्री हासिल की।

ग्वाटेमाला का अनुभव

लैटिन अमेरिकी क्रांतिकारियों के लिए ग्वाटेमाला का अनुभव काफी निर्णायक रहा। ग्वाटेमाला में जैकब अरबेंज के नेतृत्व में चल रहे कृषि सुधारों के पक्ष में चे ग्वेरा, फिदेल सहित सभी क्रांतिकारी खड़े थे। ग्वाटेमाला में ही चे की मुलाकात हिल्दा गोदया नाम महिला से हुई जिसने उन्हें मार्क्सवाद से परिचित कराया। यही हिल्दा बाद में चे की पत्नी बनी। लैटिन अमेरिका में लोकतांत्रिक सरकारों के कमजोर होते जाने के दौरान 1954 अंतिम जैकब अरबेंज के नेतृत्व वाली क्रांतिकारी जनतांत्रिक सरकार अमेरिका के ठंढ़े सुनियोजित, आक्रामक हमले में गिरा दी गई।

ग्वाटेमाला में बरसों पहले इस हिंसा की शुरुआत हुई थी जब 1954 की एक दोपहर को जब कास्तिलो अरमास ने समूचे आसमान को पी-47 की गोलियों से आच्छादित कर दिया था। इस हमले का नजर आने वाला मुख्य चेहरा सेंक्रट्री ऑफ स्टेट जॉन फोस्टर डगलस था। यह कोई संयोग नहीं है कि ग्वाटेमाला में साम्राज्यवादी विस्तार की प्रमुख बदनाम कंपनी यूनाइटेड फ्रूट कंपनी का वो स्टेकहोल्डर भी हुआ करता था। बाद में ये सारी जमीनें ‘यूनाइटेड फ्रूट कंपनी’ को वापस कर दी गई और अंग्रेजी से अनूदित एक नया पेट्रोलियम कानून पारित किया गया था। यह घिनौना युद्ध इसलिए छेड़ा गया कि कृषि सुधारों को बर्बरतापूर्वक खत्म किया जा सके और फिर भूमिहीन किसानों के जेहन में इस सुधार को मिटाने के लिए इस युद्ध का विस्तार किया गया।

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चे ग्वेरा और ऐल पातीजो

क्यूबा के क्रांतिकारी संघर्षों के संस्मरण के अंतिम हिस्सों में चेग्वेरा ने ग्वाटेमाला के शहीद क्रांतिकारी जूलियो रोबेर्टो सासेरेस को बड़ी शिद्दत से याद किया है। जूलियो रोबेर्टो को उसके ठिगने व दुबले कद के कारण वहां की स्थानीय भाषा में प्यार से ‘ऐल पातोजो’ कहा जाता है। ऐल पातोजो फिदेल सहित क्यूबाई क्रांतिकारियों के पक्ष में मैक्सिको से ही परिचित था। उसने क्यूबाई मुक्ति संग्राम का हिस्सा बनने की भी कोशिश की थी लेकिन तब फिदेल क्यूबाई मुक्ति संघर्ष में करने से दूसरे देश के लोगों को शामिल करने से, अपवादस्वरूप चेग्वेरा, हिचक रहे थे। लेकिन क्यूबाई क्रांति की सफलता के बाद अल पोतीजो अपनी निजों चीजों का बेच क्यूबा पहुँच गया। उसे चेग्वेरा के उद्योग विभाग में ही काम दिया गया।

‘ऐल पातोजो’ चेग्वेरा के साथ उसके कमरे में ही रहा करता था। एक दिन चे ग्वेरा ने उसे अपने ग्वाटेमाला की स्थानीय भाषा में पढ़ते देखा। उसने चे से कहा कि अब वो आने देश ग्वाटेमाला जाकर वहां के मुक्ति संग्राम में योगदान देना चाहता है। ‘ऐल पातोजो ’ को कोई सैनिक प्रशिक्षण नहीं था लेकिन उसे अहसास हुआ कि अपने देश का कर्तव्य उसे बुला रहा है। वह ग्वाटेमाला में क्यूबा की तरह ही गुरिल्ला युद्ध चलाना चाहता था। क्यूबा छोड़ने के वक्त चेग्वेरा से उसकी अंतिम लेकिन लंबी बातचीत हुई।

चे ग्वेरा ने चलते समय अल पतोजो को गुरिल्ला युद्ध के अनुभव का निचोड़ समझाया। तीन बातें स्पष्ट समझाईं- निरंतर गतिमान रहना, निरंतर सावधानी, निरंतर चौकन्नापन। कभी ठहरो नहीं, एक जगह पर कभी दो रातें मत गुजारो, एक जगह से दूसरी जगह बदलते रहने में कभी कोताही न करना, शुरूआत में चैकन्नापन यहां तक कि अपनी छाया से भी सतर्क रहो, जब तक कि मुक्तांचल न बना लो मित्रवत किसान, जासूस, गाइड, संपर्क इन सबों पर तब तक संदेह करो। रक्षकों द्वारा निरंतर निगरानी, निरंतर टोह, सुरक्षित स्थल पर कैंप का निर्माण, किसी छत के नीचे न सोना, कभी उस घर में नहीं सोना जहां घिरने का खतरा हो।

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कुछ महीनों बाद चे को ‘ऐल पातोजो’ के अपने कई साथियों के साथ मारे जाने की सूचना मिली। उसकी मॉं ने उसके शव की शिनाख्त की। चेग्वेरा को जब ऐल पातोजो की मृत्यु की खबर मिली उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ। चे ग्वेरा ने उसकी कमियों की तरफ इशारा करते हुए कहा वे लोग शारीरिक रूप से ठीक से ट्रेंड नहीं थे इसके अलावा न तो ठीक से सावधानी बरत रहे थे और न ही चौकन्ने थे। इसका खामियाजा उन्हें अपनी जान देकर भुगतना पड़ा। सबसे त्रासद बात यही है कि चेग्वेरा ने बोलीविया ठीक वही गलतियां दुहराई जिसकी हिदायत उसने ग्वाटेमाला के लिए ऐल पातोजो को दी थी।

चे ग्वेरा ने ‘ऐल पातोजो को याद करते हुए कहा है- ‘‘ हलचलों से भरी समूचे लैटिन अमरीकी महादेश में किसी साथी की मौत, जिसके साथ बेहतर भविष्य का सपना देखा गया था , बेहद तकलीफ होती है। जब भी हम अपने हथियार पर सान चढ़ाएं अपने मृत साथियों के लिए आंसू अवश्य बहाएँ।’’ ऐल पातोजो की मृत्यु के बाद उसकी डायरी से एक कविता मिली अपने देश, इंकलाब और अपनी उस प्रेमिका को संबोधित था जिससे उसे क्यूबा में रहने के दौरान प्रेम हुआ था। चेग्वेरा ने इस कविता का अंतिम हिस्सा उद्धृत किया है-

इसे लो, यह सिर्फ मेरा हृदय है
इसे अपने हाथों से थाम लो
जब सूर्य की पहली किरण पहुँचे
तब आहिस्ते से इसे खोलो
ताकि सूर्य की थोड़ी उष्मा ले सके

क्यूबाई क्रांति में

क्यूबा बहुत गरीब देश रहा था। क्रांति के पूर्व अमेरिका का वहां बेहद दबदबा था। वहां की अर्थव्यव्स्था से लेकर हर जगह अमेरिका की मर्जी चला करती। क्यूबा के उद्योग एवं ईख लगभग 90 प्रतिशत भाग पर अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों कब्जा था। जब तक फिदेल कास्त्रो सत्ता में नहीं आए थे तक तक क्यूबा से अमेरिका का ऐसा प्रबल प्रभाव था कि अमरीकी राजदूत देश का सबसे मान्य व्यक्ति था कई बार क्यूबा के राष्ट्पति से ज्यादा महत्वपूर्ण।

उस क्यूबा में फिदेल के नेतृत्व मे 82 क्रांतिकारी ‘ग्रैनमा’ नामक नौका पर सवार होकर चले। इसमें से बहुत साथी शहीद हो गए। इन क्रांतिकारियों ने किसानों के बीच धैर्यपूर्वक काम कर उनका विवास जीता। जैसा कि उन दिनों के बारे में खुद चे बताते हैं- ‘‘शनैः-शनैंः हममें से हर के विचारों में परिवर्तन आता चला गया। हम जो शहरों में पल-बढ़े बच्चे थे किसानों का सम्मान करना सीखने लगे। हमलोगों ने उनकी स्वतंत्रता तथा वफादारी की कद्र करना जाना। हमलोगों ने उनसे पहले छीनी गई जमीनों के प्रति उनकी पुरानी आकांक्षा को समझा। हमने पहाड़ी इलाकों में उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने हजारों रास्तों के अनुभव को जाना। इसके साथ-साथ किसानों ने भी हमसे ये सीखा कि एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में राइफल कितना लाभदायक होता है जो कई राइफलों वाले दुश्मनमनों पर चलाने के लिए तैयार है जबकि भले ही उसके हाथ में एक राइफल है। किसानों ने हमें तौर-तरीके व कौशल सिखाए जबकि हमने उनके अंदर विद्रोह की चेतना भर दी। उस वक्त से आज तक क्यूबा के किसान और विद्रोही दोनों क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार की रक्षा में एकजुट हैं।”

इन क्रांतिकारियों ने बेहद कम हथियार व संसाधनों के बल पर बातिस्ता तानाशाही के खिलाफ जीत हासिल की। चे उन दिनों के संबंध में यह भी बताते हैं- ‘‘जब लोगों की निगाह में हमारी ताकत बढ़ती जा रही थी, दुनिया के हर हिस्से से निकलने वाले अखबारों के अंतराष्ट्रीय पन्नों पर हमारी खबरें हेडलाइन में छपती थी। हमारे पास सिर्फ 200 राइफल हुआ करती थी, 200 लोग नहीं केवल 200 राइफल और इसी से हमें तानााही के सबसे अंतिम व आक्रामक हमले का मुकाबला करना था जिसमें दस हजार सिपाही तथा मौत ढ़ाने वाले सभी भयानक साजो सामान थे। उन दौ सौ राइफलों में से प्रत्येक अपने साथ रक्त और त्याग का इतिहास समेटे हुए है। साम्राज्यवाद के इन राइफलों को हमारे शहीदों के खून व दृढ़ंता ने गरिमा प्रदान कर इसे जनता के राइफलों में तब्दील कर दिया।’’

क्यूबाई क्रांति ने पूरी लैटिन अमेरिका में हलचल मचा दी। जोसे मार्ती व सिमोन बालीवार के सपनों को जैसे धरती पर उतारा जा रहा था। चे ने क्यूबाई क्रांति के तीन सबकों का रेखांकित किया- ‘‘क्यूबाई क्रांति ने लैटिन अमेरिका क्रांतिकारी आंदोलन के नियमों में तीन बुनियादी योगदान दिए। पहला जनता की शक्तियां सेना के विरूद्ध भी युद्ध जीत सकती है। दूसरा यह हमेशा आवश्यक नहीं है कि वर्तमान में क्रांति के लिए सभी परिस्थितियों के अनुकूल होने का इंतजार किया जाए बल्कि विद्रोह की स्थिति में वो परिस्थितयां खुद-खुद निर्मित हो सकती हैं। तीसरा लैटिन अमेरिका के अविकसित इलाकों में सशस्त्र संघर्ष का युद्ध क्षेत्र ग्रामीण इलाके होने चाहिए।’’

इस क्रांति ने कैसे साम्राज्यवादी अमेरिका को चकमा दिया इसका दिलचस्प वर्णन भी चे करते हैं- ‘‘हमारी निर्णायक सैन्य विजय के पूर्व अमेरिकी हमें लेकर सशंकित तो थे पर भयभीत न थे। दरअसल, इस खेल में अपने समूचे अनुभवों, अपनी चालाकी, कुटिलता, जिसके वे आदी रहे हैं, के आधार पर उन्होंने दोतरफा खेल खेला। कई मौकों पर अमेरिकी स्टेट विभाग के दूत हमारे पास रिपोर्टरों के वेश में हमारे देहाती क्रांति की पड़ताल करने आते लेकिन उनलोगों को अपने लिए आसन्न खतरे जैसी कोई बात नहीं नजर आई। लेकिन जब तक साम्राज्यवादी शक्तियां हस्तक्षेप करना चाहने लगी तब तक वक्त हाथ से निकल चुका था। जब हवाना की सड़कों पर जीत की ओरे बढ़ते युवाओं के छोटे से समूह के स्पष्ट राजनीतिक लक्ष्य तथा पूरा करने की उनकी दृढ़ता का उन्हें भान हुआ तब तक काफी देर हो चुकी थी। इस प्रकार 1959 की जनवरी में लैटिन अमेरिका की पहली गहन सामाजिक इंकलाब का आगाज हुआ।’’

लेकिन अब साम्राज्यवाद ने क्यूबा के अच्छी तरह सबक भी सीखा। अब वो लैटिन अमेरिका के अन्य किसी भी बीसों रिपब्लिक में से किसी को भी खुद को क्यूबा के चकित रहने वाले उदाहरण को दोहराने नहीं देने के लिए सतर्क हो गई।

चे ग्वेरा और छापामार युद्ध

चे ग्वेरा ने क्यूबाई क्रांति के अपने अनुभवों के आधार पर छापामार युद्ध की एक सैद्धांतिकी भी निर्मित करने का प्रयास किया। चे इस मुद्दे पर गहराई से रौशनी डालते हैं। चे के अनुसार, “छापामार योद्धा एक समाज सुधारक होता है। वह इस सामाजिक व्यवस्था को बदलने के लिए लड़ता है जो इसके निहत्थे भाइयों को जलील करती और बदहाल बनाए रखती है।” छापामार योद्धा सबसे पहले खेतिहर क्रांतिकारी होता है। विशाल कृषक समूह में भूस्वामी बनने, अपने उत्पादन के साधनों के स्वामी बनने, जिन चीजों को अपना करने के लिए बरसों से तड़पता रहता है उस सबका स्वामी बनने, जो कुछ उसके जीवन का उत्स है उसका और जो कुछ उसके लिए कब्र का काम करेगा उसका भी स्वामी बनने की आकांक्षा होती है। छापामार योद्धा इसी आकांक्षा वाणी देता है। जो निष्क्रिय रहकर इस बहाने की आड़ लेते हैं कि एक पेशेवर फौज के मुकाबले कुछ नहीं किया जा सकता, जो हाथ पर हाथ रखे, यांत्रिक ढ़ंग से उस दिन की राह देखते हैं जब तमाम वस्तुगत और मनोगत स्थितियां अपने आप पैदा हो जाएंगी और खुद इस प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए कुछ नहीं करते।

युद्ध के छापामार चरण को इतना महत्वपूर्ण देते हुए भी चे ग्वेरा इस तथ्य को आंखों से ओझल नहीं होने देते की निर्णायक चरण का हमेशा नियमित सेना ही पूरा करती है- “छापामार युद्ध एक ऐसा चरण है जो अपने आप में पूरी जीत दर्ज करने के अवसर नहीं देता। यह युद्ध के आरंभिक चरणों में से एक होता है और तब तक निरंतर विकसित होता है जब तक लगातार अपनी ताकत बढ़ाती हुई छापामार फौज एक नियमित सेना की विशेषताएं ग्रहण नहीं कर लेती। वही क्षण होता है जब वह दुश्मन पर आखिरी चोट करने और जीत दर्ज करने के लिए तैयार होती है। जीत का सेहरा हमेशा एक नियमित सेना के ही सिर होगा। भले ही उसकी शुरूआत एक छापामार फौज के रूप में हुई हो।’’ छापामार युद्ध के ये सबक लगभग वैसे ही हैं जेसे चे ग्वेरा के समय से लगभग दो दशक पूर्व हिंदुस्तान में तेलंगाना आंदोलन के नेता पी.सुंदरैया के थे। तेलंगाना के लिए सुंदरैया के दिशानिर्देश चे ग्वेरा के निर्देशों से काफी मिलते-जुलते हैं।

क्रांति और लोकतांत्रिक रास्ता

लेकिन चे ग्वेरा ने छापामार युद्ध हर परिस्थितियों में लागू नहीं किया जा सकता। विशेषकर जहां विरोध के संवैधानिक रास्ते बचे हुए हैं- ‘‘जहां सरकार धोखाधड़ी से हो या न हो, किसी न किसी रूप में जनता का मत पाकर सत्ता में आती है और कम-से-कम संवैधानिकता का दिखावा बनाकर रखती है वहां छापामार युद्ध को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। छापामार युद्ध वहां नहीं होगा शातिपूर्ण संघर्ष की संभावनाएं समाप्त नहीं हुई हैं।’’

चे ग्वेरा चुनावों के माध्यम से बुनियादी परिवर्तन की बात करने वालों को भी आगाह करते हैं- ‘‘जब हम चुनाव के माध्यम से सत्ता प्राप्ति की बात करते हैं मेरा प्रश्न वही रहता है। जब कोई लोकप्रिय जनांदोलन लोगों का मत प्राप्त कर किसी देश में सरकार में आ पाने में सफल हो जाता है। उसके बाद वो बड़े सामाजिक रूपांतरण करने का प्रयास करता है उस समय क्या वो उस देश की प्रतिक्रियावादी शक्तियों के कोपभाजन का शिकार नहीं होगा? क्या ये सही नहीं है कि सेना हमेशा वर्गीय उत्पीड़न का औजार नहीं रहा करती है? यदि ऐसा है तो स्वाभावतः सेना प्रभुवर्गों के साथ खड़े होकर नयी क्रांतिकारी सरकार के खिलाफ नहीं होगी? ऐसी स्थिति में कम या जयादा रक्तहीन तख्तापलट के द्वारा उस क्रांतिकारी सरकार को उखाड़ फेंका जाएगा और फिर कभी न खत्म होने वाला वही पुराना खेल प्रारंभ हो जाएगा बदस्तुर जारी रहेगा।’’ ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यहां चेग्वेरा अपनी मौत के छह साल बाद चिली में जनता द्वारा चुनी हुई सल्वादोर अलेंदे की क्रांतिकारी सरकार के तख्तापलट का मानो आँखों देखा हाल प्रस्तुत कर रहे हों।

कम्युनिस्ट नैतिकता के बिना आर्थिक समाजवाद मुझे आकर्षित नहीं करता

क्यूबा में समाजवाद का निर्माण

लेकिन अब क्रांतिकारियों को एक छोटे से देश में समाजवाद निर्मित करने का बेहद मुश्किल बीड़ा उठाना था। उस हालात में जब उन्हें क्यूबा बेहद खराब आर्थिक हालात में मिला था। युवा क्रांतिकारियों को दिवालिया क्यूबा हाथ लगा। बातिस्ता ने क्यूबा के लगभग 42.24 करोड़ डॉलर अमेरिकी बैंकों में स्थानांतरित कर दिया था। लैटिन अमेरिका के विश्वविख्यात लेखक एडुआर्डो गालियानों ने 1964 में चेग्वेरा से अपनी मुलाकात का जिक्र किया है जिसमें वे क्यूबा में समाजवाद के निर्माण की कठिनाइयों का जिक्र कर रहे थे- ‘‘1964 में चेग्वेरा ने अपने ऑफिस में मुझे दिखाया कि बातिस्ता का क्यूबा सिर्फ चीनी के लिए नहीं था।” चे के अनुसार, क्रांति के प्रति अंधे क्रोध को निकेल और मैंगनीज के क्यूबा के विशाल भंडारों के माध्यम से समझा जा सकता है। जब निकेल का राष्ट्रीयकरण किया गया तो इसके परिणामस्वरूप अमरीका के निकेल के भंडार का दो तिहाई तक कम हो गए और राष्ट्रपति जानसन ने धमकी दी कि अगर फ्रांस ने क्यूबा से निकेल खरीदा तो फ्रांस के धातु निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा।

जमीन की सिंचाई और उर्वरण क्यूबा की क्रांति के लिए प्राथमिकता के कार्यभार हैं। छोटे और बड़े जलीय बॉंध तेजी से बढ़ रहे हैं, खेतों की सिंचाई हो रही है और सदियों के अत्याचार से कमजोर पड़ी धरती पर खाद डाली जा रही है। क्रांति ने हमेशा क्यूबाई लोगों की आकांक्षाओं के अनुकूल आचरण किया है। प्रत्येक किसान और मजदूर जो आज बंदूक ठीक से नहीं चलाना जानता वो प्रत्येक दिन सीख रहा है ताकि क्रांति की रक्षा कर सके।

कुशल तकनीशियनों के संयुक्त राज्य अमेरिका भाग जाने के कारण वे मानों की जटिल कार्यप्रणाली को नहीं समझ पा रहे हैं वे हरेक दिन उसके बारे में जानकारी हासिल कर रहे हैं ताकि कारखाने को बेहतर ढ़ंग से चला सकें। किसान ट्रैक्टर चलाना एवं उसकी मानी तौर-तरीकों को सीख रहे हैं जिससे उनके सहकारी खेती में अधिक से अधिक उत्पादन संभव हो सके। संयुक्त राज्य अमेरिका से क्यूबा की तकरार होने की एक बड़ी वजह क्यूबा के उद्योग एवं ईख लगभग 90 प्रतिशत भाग पर अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों कब्जा होना था। लेकिन क्रांति के बाद जब संयुक्त राज्य अमेरिका ने क्यूबा से चीनी खरीदने से इंकार कर दिया तब सोवियत संघ ने मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाए।

क्यूबा में सोवियत संघ की सहायता

अमेरिकी मोनोपॉली कंपनियों, जो बस कुछ कदमों की दूरी पर थे, के मुकाबले सोवियत संघ ने 33 प्रतिशत सस्ते दर पर तेल उपलब्ध कराया। अमेरिकी कंपनियों द्वारा दिए गए कर्जे के तुलनात्मक विलेषण करने पर हमें लगा सोवियत संघ द्वारा दिया गया कर्जा 12 वर्षों के लिए मात्र 2.5 प्रतिशत के ब्याज पर हासिल हुआ था जोकि दुनिया के व्यापारिक इतिहास का सबसे सस्ता कर्जा था। लेकिन इन सबका खामियाजा भी क्यूबा का भुगतना पड़ा। जब ‘बे ऑफ पिग्स’ का संकट उभरा। क्यूबा पर हमला किया गया। जिन लोगों की संपत्ति छीनी गई उन्होंने मौका देख ‘बे ऑफ पिग्स’ में हमला किया।
जैसा कि गालियानों ने कहा है- ‘‘क्रांति अपनी आँख खोलकर सोने के लिए मजबूर है और आर्थिक रूप से इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। आक्रमण और तोड़फोड़ से निरंतर परेशान किए जाते रहने पर भी इसका पतन नहीं होता क्योंकि यह विचित्र तानााही एकजुट हो चुकी जनता द्वारा रक्षित है। जिन सपत्तिहरण करने वालों की संपत्ति छीन ली गई थी उन्होंने हार नहीं मानी। अप्रैल 1961 में ‘बे ऑफ पिग्स’ में जो सैन्यदल उतरा वह न सिर्फ भूतपूर्व बातिस्ता सिपाहियों और पुलिसकर्मियों से बना था बल्कि उसमें तीन साख सत्तर हजार हेक्टेयर जमीन, दस हजार इमारतों, सत्तर फैक्टि्यों, दस चीनी मिलों, तीन बैंकों, पांच खानों और बारह कैबरे रेस्तराओं के पुराने मालिक शामिल थे। क्यूबाई लोगों की दृढ़ता ने विफल कर दिया। लेकिन अब इसके बाद ऐसा समय क्यूबा में आया जिसने पूरी दुनिया को युद्ध के कगार पर पहुँचा दिया। सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका यहां बिल्कुल आमने-सामने थे। इसे ‘मिसाइल संकट’ के नाम से जाना जाता है।

कम्युनिस्ट नैतिकता के बिना आर्थिक समाजवाद मुझे आकर्षित नहीं करता

सोवियत संघ के समाजवाद का रास्ता और चे ग्वेरा

यह एक स्थापित तथ्य है कि सोवियत संघ की मदद के बगैर क्यूबा में आर्थिक प्रतिबंधों को झेलते हुए समाजवाद का निर्माण बेहद मुकिल था। सोवियत संघ ने दिल खोलकर सहायता की। इसी दरम्यान सोवियत संघ तथा चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच मतभेद उभरने शुरू हो जाते हैं जिसे ‘ग्रेट डिबेट’ के नाम से जाना जाता है। समाजवाद के तौर-तरीकों व रास्तों संबंधी इस बहस की चे ग्वेरा के चिंतन में भी अनुगूंज देखी जा सकती है। जुलाई 1963 में ज्यां डैनियल नामक पत्रकार के साथ बातचीत में चे ग्वेरा कहते हैं- ‘‘कम्युनिस्ट नैतिकता के बिना आर्थिक समाजवाद मुझे आकर्षित नहीं करता। हम गरीबी के खिलाफ लड़ने के साथ-साथ अलगाव के भी विरूद्ध लड़ाई लड़ रहे हैं। यदि साम्यवाद चेतना के सवाल के प्रति उदासीन रहता है तो यह भले वितरण की एक पद्धति भले रह सकता है उसमें क्रांतिकारी नैतिकता का अभाव रहेगा।’’

चे के लिए समाजवाद का मतलब समानता, एकजुटता, सामूहिकता, उन्मुक्त विचार-विमर्श एवं जनभागीदारी के आधार पर नया समाज बनाने की एतिहासिक परियोजना है। समाजवाद के वास्तविक निजामों की उनकी निरंतर आलोचना और एक नेता के रूप में क्यूबाई क्रांति के अनुभव इस बात का सूचक है कि वो कम्युनिस्ट यूटोपिया से प्रभावित थे। यूटोपिया का मतलब उनके लिए यदि अंर्स्ट ब्लॉक के अर्थों में कहें तो ‘आकांक्षाओं का लैंडस्केप’ था।

चे चाहते थे कि समाजवादी देश विशेषकर सोवियत संघ उत्पादन, उपभोग के मामले में पूंजीवादी देशों की नकल न करे। ‘‘यदि समाजवाद, पूंजीवाद से मुकाबला, उत्पादन व उपभोग के उसके ही बनाए मैदान में, (कमोडिटी) माल, प्रतियोगिता, व्यक्तिवाद, अंहवाद के उपकरणों से करना चाहता है तो यह तय जानिए कि उसकी हार निश्चित है।’’ यह नहीं कहा जा सकता कि चेग्वेरा को सोवियत संघ के आगामी दिनों में होने वाले त्रासद अंत का अंदाजा था लेकिन उन्हें इसका भान अवश्य हो गया था कि जो समाजवादी व्यवस्था विविधता का सम्मान नहीं करती, जो नये मूल्यों का प्रतिनिधित्व नहीं करती, जो अपने पूंजीवादी शत्रु की प्रतिरूप बनना चाहती है, जिसका लक्ष्य उत्पादन के क्षेत्र में अपने पूंजीवादी केंद्रों से आगे बढ़ जाना है, उसका कोई भविष्य नहीं है।

चे ग्वेरा कोई नया सवाल नहीं उठा रहे थे। सोवियत क्रांति के बाद वहां की कम्युनिस्ट पार्टी भी इस प्रश्न से हमेशा जूझती रही है। इसे स्टालिन द्वारा लिखी सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास (बोलशेविक) में बेहद स्पष्टता के साथ देखा जा सकता है। उत्पादन पर जोर देना है या समाजवादी चेतना को विकसित करना है? किधर जाना है?

चे ग्वेरा का ध्यान कम्युनिस्ट चेतना पर अधिक है। जैसा कि प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक एजाज अहमद कहते हैं- ‘‘क्यूबाई क्रांति के सबसे प्रमुख नेता फिदेल और चे के लिए कम्युनिज्म का मतलब ‘उत्पादक शक्तियों को विकसित करने’ से उतना नहीं था जोकि किसानों और खेती के सामूहिकीकरण की समाजवाद के आदिम संचय की स्टालिन मॉडल पर आधारित थी। बल्कि यह उत्पादन के सामाजिक संबंधों को तब्दील कर नये चेतना के निर्माण पर था। जिसे चे ग्वेरा ‘नया समाजवादी मनुष्य’ कहा करते थे।

समाजवाद और नया मनुष्य

चे ग्वेरा समाजवाद के लिए नये मनुष्य के निर्माण पर जोर दिया करते थे। युवा कम्युनिस्टों के एक समूह को संबोधित करते हुए चे ग्वेरा ने कहा- ‘‘एक युवा कम्युनिस्ट को आम लोगों के प्रति हमेशा ध्यान देना चाहिए। युवा कम्युनिस्ट को मानवीय होना चाहिए तथा मनुष्य की सर्वोत्तम गुणों से लैस होना चाहिए। मनुष्य ने अपने श्रम, अध्ययन और अपने तथा दुनिया भर के लोगों के प्रति एकजुटता की भावना से लैस होना चाहिए। उसे इतना संवेदनशील होना चाहिए कि दुनिया में यदि किसी का कत्ल हो तो उसे प्रति उसके अंदर गुस्सा तथा विश्व के किसी कोने में स्वाधीनता का झंडा बुलंद हो तो उस अंदर उत्साह की भावना का संचार होना चाहिए।’’

जब साम्राज्यवादी खेमे में समाजवाद के विरूद्ध ये प्रचार चलाया जाने लगा कि समाजवादी राज्य एक व्यक्ति की भूमिका को समाप्त कर देता है। चेग्वेरा ने क्यूबा के अपने अनुभवों के आधार पर अपना मशहूर आलेख ‘सोशलिज्म एंड मैन इन क्यूबा’ में इसका जवाब दिया। चे ग्वेरा ने ऐसे मनुष्य को बनाने की बात की जो नैतिक जरूरतों से प्रेरित होकर श्रम करे। कम्युनिज्म के निर्माण के लिए भौतिक आधारों के साथ-साथ नये किस्म के नर-नारी का निर्माण आवयक है। इन्हीं वजहों से जनता की गोलबंदी के लिए सही माध्यम का होना आवश्यक है। हालांकि, सामाजिक चरित्र वाले भौतिक प्रोत्साहन की बिना अनदेखी किए हुए यह माध्यम मुख्यतः अपने चरित्र में नैतिक होने चाहिए।

समाजवाद के अंदर एक व्यक्ति परेशान करने वाले इस तथ्य से मुक्त होने लगता है कि उसे अपनी जैविक जरूरतों को संतुष्ट करने के लिए श्रम करना है। व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति खुद अपने द्वारा गए कार्यों में तलाता है। अपनी संपूर्ण महत्ता का अहसास उसे खुद द्वारा सृजित किए गए वस्तुओं और पूरा किए गए कामों से होता है। अब काम का मतलब अपने अस्तित्व का समर्पण कर श्रमशक्ति बेचेने के रूप में नहीं होता। श्रमशक्ति अब माल में तब्दील नहीं होती बल्कि खुद अपने अस्तित्व की अभिव्यक्ति होती है जो सार्वजनिक जीवन में सहयोग तथा अपने सामाजिक कर्तव्य की पूर्णता की ओर ले जाती है।

कम्युनिस्ट नैतिकता के बिना आर्थिक समाजवाद मुझे आकर्षित नहीं करता

चे ग्वेरा समाजवादी मनुष्य के लिए ये आवश्यक है जिसे मार्क्स के शब्दों में- “आवश्यकता के क्षेत्र से स्वतंत्रता के क्षेत्र में” की ओर आगे बढ़े। चेग्वेरा इस सम्बन्ध में क्यूबा की आम जनता व इसके नेता फिदेल का उदाहरण देते हुए कहते हैं- “हम इसी तरह परेड कर रहे हैं। बिना शर्मिंदा और डरे हुए मैं कहना चाहता हूं कि हमारी इस टुकड़ी के वर्ष पर फिदेल का व्यक्तित्व हैं। उनके बाद पार्टी के सर्वात्तम कैडरों की बारी आती है इन पीछे संपूर्णता में आम जनता की ताकत है। यह आम जनता ठोस व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो एक समान लक्ष्य की ओर बढ़ता जा रहा है। स्त्री-पुरूष जिन्हें इस बात की अच्छी तरह समझ व चेतना है कि उन्हें क्या करना चाहिए। ये ऐसे लोग हैं जो आवश्यकता के क्षेत्र से छुटकारा पाकर स्वतंत्रता के क्षेत्र की ओर जाना चाहते हैं।

अल्जीरिया व्याख्यान और सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयता

चे ग्वेरा सर्वहारा अंतराष्ट्रीयतावाद के प्रतीक पुरूष की तरह थे। क्यूबा में एक बेहद सुविधाजनक स्थिति में रहने के बाद यह अंतरराष्ट्रीयतावाद ही था जो उन्हें बोलीविया के जंगलों में ले गया। इसी दौरान अल्जीरिया में दिया गया उनका व्याख्यान काफी निर्णायक माना जाता है। अल्जीरिया व्याख्यान में चेग्वेरा ने समाजवादी देशों पर अंतरराष्ट्रीय एकजुटता की भावना से काम न करने का गंभीर आरोप लगाया। चेग्वेरा इस बात को नहीं समझ पाए तीसरी दुनिया के देशों को सोवियत संघ द्वारा दिया जाने वाले कर्ज, पूंजीवादी देशों की तरह, मुनाफा कमाने का जरिया कैसे हो सकता है? लगभग इसी समय वे साम्राज्यवाद के विरूद्ध गरीब देशों के सबसे सशक्त प्रवक्ता बन कर उभरे।

अतः यह संयोग नहीं कि अल्जीरिया से लौटने के बाद चेग्वेरा क्यूबा में सार्वजनिक रूप से दिखाई देना बंद कर दिया था। अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेजों और साक्ष्यों के आधार पर यह प्रतीत होता है कि सोवियत नेतृत्व ने क्यूबाई नेताओं का कह दिया कि चे ग्वेरा अब अवांछनीय बन चुके हैं। क्यूबाई क्रांति की नुमाइंदगी वे अब और नहीं कर सकते। अब या तो उन्हें रास्ते से हटाया जाए या उनके लिए दूसरा काम ढूंढ़ा जाए। 1966 में कांगो में उनकी मौजूदगी और अगले वर्ष बोलीविया में उनके अभियान का असली राज यही है।

हवाना में फिदेल कास्त्रो से उनके संबंध 1959 की जनवरी से लेकर 15 मार्च, 1965 को हुई। इस दरम्यान उन्होंने अल्जीरिया में उनके चर्चित व्याख्यान के बाद इतिहास के कई पन्ने पलटे जा चुके हैं। अल्जीरिया से लौटने के बाद दो दिनों तक फिदेल से उनकी बातें होती रहीं। ऐसा नहीं है कि दोनों की दोस्ती में दरार आ गई लेकिन उनके विचार अलग-अलग थे। क्यूबा को लेकर नहीं बल्कि सोवियत संघ के रिते को लेकर।

कम्युनिस्ट नैतिकता के बिना आर्थिक समाजवाद मुझे आकर्षित नहीं करता

लेकिन चे ग्वेरा के सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद में कुछ लोगों को लियोन त्रोत्स्की की झलक मिलने लगती है। चे ग्वेरा कहते हैं- ‘‘पार्टी के अंदर वैचारिक ध्वजवाहक क्रांतिकारी को, जब तक वैश्विक पैमाने पर समाजवाद न स्थापित हो जाए, खुद को बिना रूके लगातार मृत्युपर्यंत गतिविधियों में झोंके रहना पड़ता है। जो क्रांतिकारी देश या स्थानीय स्तर पर सबसे आवश्यक काम पूरे हो जाने (सत्ता प्राप्त कर लेने) के बाद सर्वहारा अंतराष्ट्रीयता का भुला देता है उसकी क्रांतिकारी धार भी कुंद पड़ जाती है। इन परिस्थितियों में जिस इंकलाब का उसने नेतृत्व किया वो अब प्रेरक शक्ति नहीं रह जाती और ऐसी सुस्ती का शिकार हो जाती है जो हमारे स्थाई शत्रु साम्राज्यवाद के लिए बेहद अनुकूल बन जाती है। उसे पैर जमाने का मौका मिल जाता है। अतः सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद हमारा सिर्फ ही कर्तव्य बल्कि क्रांतिकारी आवयकता भी है।’’

अपने अंतिम दिनों में चे ग्वेरा ने त्रोत्स्की को पढ़ा, जो उसके नोटबुक से भी साबित होता है। त्रोत्स्की की किताब ‘परमानेंट रिवोल्यून’ और ‘हिस्ट्री ऑफ रसियन रिवोल्यूशन से उन्होंने पूरे पन्ने की कॉपी की। बोलीविया के जंगलों से चेग्वेरा ने दो, तीन वियतनाम का नारा दिया। वियतनामी की जनता अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध भीषण संघर्ष से जूझ रही थी। इसी वक्त उन्होंने दो, तीन, कई वियतनाम पर खड़ा करने की आवश्यकता पर बल दया। साम्राज्यवाद से लड़ने में वियतनामी जनता के असाधारण बहादुराना प्रतिरोध से प्रेरित होकर उन्होंने ये नारा दिया जो काफी लोकप्रिय हुआ। इस नारे के संबंध में एजाज अहमद की ये टिप्पणी द्रष्टव्य है- ‘‘चे द्वारा उछाला गया का प्रसिद्ध नारा ‘ दो, तीन कई वियतनाम’ महज खोखला नारा नहीं था। वह संजीदगी से इस बात पर विश्वास करते थे कि अमेरिकी आक्रमण का प्रतिरोध कर रही इंडो-चाइना की (वियतनामी) जनता के साथ एकजुटता कायम करने का सबसे अच्छा तरीका है कि अमेरिका के खिलाफ दुनिया के किसी अन्य जगह और सैन्य मार्चे खोले जाएं। इसी प्रतिबद्धता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने खुद बोलीविया में ऐसा मोर्चा खोला। और उसी बोलीविया में वे मारे गए।”

क्या चे की लाइन गलत थी?

क्या चे ने बोलीविया जाने में जल्दबाजी दिखाई? जब फिदेल से इस संबंध में पूछा गया कि यदि चे की जगह आप होते तो क्या करते? फिदेल का जवाब था- ‘‘यहां केवल एक चीज है जो मैंने अलग तरीके से की होती। उन्हें तब तक इंतजार करना चाहिए था जब तक मजबूत आंदोलन न विकसित हो जाता। उनके जैसे गुण तथा रणनीतिक महत्व वाले नेता के संघर्ष में शामिल होने से पहले। उन्हें प्रारंभिक चरण में नहीं जाना चाहिए था। यह संघर्ष का सबसे कठिन व खतरनाक चरण होता है जैसा कि तथ्य दिखलाते हैं और इसने उनकी मृत्यु के रूप में परिणाम दिया।”

फिदेल आगे यह भी जोड़ते हैं- “मैंने हमेशा कहा है कि यह सफलता या असफलता नहीं है जो यह इंगित करती है कि लाइन सही है या नहीं। अपने संघर्षों के दौरान हम सभी मर सकते थे, हम कई बार मौत के किनारे पर थे। अगर हमलोगों की मृत्यु हो जाती तो कई लोग कहते कि हम गलत थे। पर मैं यह सोचता हूं कि यदि हमारी मृत्यु हो जाती तो कई लोग कहते कि हम गलत थे। पर मैं यह सोचता हूं कि यदि हमारी मृत्यु हो जाती तो यह साबित नहीं होता कि हम गलत थे। हमारा रास्ता सही था। कई तत्वों की एक श्रृंखला थी बहुत हल्के अनपेक्षित तत्वों ने हस्तक्षेप किया-किस्मत मिला के-तथा हम उन कठिन दिनों में लगभग चमत्कारिक ढ़ंग से बचे थे। यह एक दूसरी लंबी कहानी बन जाएगी। पर इन परिस्थितियों में हम नहीं कह सकते कि सफलता इस बात का पैमाना है कि लाइन सही या नहीं। कुछ कारकों के चलते विपरीत परिणाम निकले पर मैं चे की लाइन के सही होने पर सवाल नहीं उठाऊंगा। मुझे जो कहना है वो यह है कि मैं चाहता था कि वे प्रारंभ के अत्यंत खतरनाक चरण को छोड़ दें कि वे दल में राजनीतिक व सैन्य नेता की तरह शामिल हों आंदोलन में एक रणनीतिकार की तरह जो प्रारंभिक चरण पार कर चुका हो।’’

चे की मौत को बेहद दुःखद व महान मस्तिष्क का अंत बताते हुए फिदेल कहते हैं- ‘‘मैं, वास्तव में, बड़े दुःख के साथ यह मानता हूं कि चे की मृत्यु एक महान मस्तिष्क को खोना है। वे एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें समाजवाद को बनाने के सिद्धांत तथा व्यवहार में अभी अपना बहुत योगदान देना था।’’

चे ग्वेरा के कातिल

ये विचित्र संयोग है कि चे ग्वेरा के लगभग सभी कातिल बेमौत मारे गए। विभिन्न परिस्थियों में बोलीविया के अंदर ही जैसे चे की हत्या में शामिल होने की सज़ा मिल गई। गालियानो कहते हैं- “चे ग्वेरा के कातिलों का ख्याल आया। तानाशाह रेने बैरियेंतोस न उनके कत्ल का हुक्म दिया था। बरियेंतोस का अंत डेढ़ साल बाद अपने हेलीकॉप्टर में लगी आग की लपटों में हुआ। कोलेनेल सेंतेनो अनाया ने उस हुक्म को आगे भेजा, वह कमांडर जिसकी टुकड़ी ने नान्काउआसु में चे को घेरा, फॅंसाया था। तब के तानाशाह को यह बात पता चली। जेंतेनो अनाया की पेरिस में वसंत की एक सुबह गोली मारकर हत्या कर दी गई। रेंजर कमांडर आंद्रेस सेलिच ने चे को मारने की तैयारी को पूरा किया था। 1972 में सेलिच को उसके अपने कर्मचारियों ने पीट-पीट कर मार दिया। ये लोग गृहमंत्रालय के यातना देने वाले कर्मचारी थे। सार्जेंट मारियो तेरान ने चे के मारने के हुक्म पर अमल किया था। उसने मशीनगन से अनेक राउंड, चे ग्वेरा की देह पर दागे थे, जो ला इगेरा में एक छोटे से स्कूल की इमारत में रखह हुई थी। तेरान एक पागलखाने में रह रहा है, वह बड़बड़ाता है और उटपटांग जवाब देता है। कोलोनेल रोबेर्ता क्यूंतानिलला पेरेज, ने चे की मौत खबर दुनिया को सुनाई थी। उसने फोटोग्राफरों और पत्रकारों के सामने ला की नुमाइश की थी। क्यूंतानिलला की हैंबर्ग में तीन गोलियों से मिले जख्म से मौत हो गई। उसको गोली मारी मोनिका अर्तल ने जो, बोलीविया के नेशनल लिबरेन आर्मी का सदस्य था।”

सबसे दिलचस्प है चे को गोली मारेन वाले मारियो तेरान की कहानी। जिस तेरान ने क्यूबाई क्रांतिकारी के महान योद्धा पर मशीगन से गोलियां दागी उसका उसी क्यूबा में लगभग चालीस साल बाद वहीं आँखों में मोतियाबिंद का सफल ऑपरेशन किया गया। ‘लेफ्टवर्ड’ के संपादक और विख्यात लेखक विजय प्रसाद की यह टिप्पणी द्रष्टव्य है- ‘‘ चे की विरासत बदला नहीं है। मानवता के प्रति एक डॉक्टर का यह प्यार है।’’


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