ड्राइंग रुम का दरवाज़ा खुला था।
ताहिरा गैलरी में खड़ी थी। यहां उनका डोर प्लांट, दीवारों के साथ सजे थे। फ़र्श पर ईरानी क़ालीन के टुकड़े थे। दीवार पर आराइशी आईना नस्ब था। लम्हा भर को उस आईने में ताहिरा ने झांक कर देखा। अपने बाल दुरुस्त किए और खुले दरवाज़े से ड्राइंग रुम में नज़र डाली।
अभी डिनर शुरू न हुआ था और मेहमान कुछ खड़े कुछ बैठे क़िस्म क़िस्म का ड्राई फ़ुरुट और चिप्स खाते आपस में बातें कर रहे थे। अख़बारों के रसिया सियासी पेश बंदियां कर रहे थे। कुछ साहब-ए-दिल साहिब करामत बने मुआशरे के इबरतनाक अंजाम की पेश गोइयों में मस्रूफ़ थे। बज़ोम-ए-ख़ुद दानिश्वर फ़लसफ़ियाना दूरअंदेशियों में मह्वे ख़ुद कलामी के अंदाज़ में साथियों पर रोब गाँठ रहे थे। बूढ़े, बुढ़ियाँ माज़ी की याद में मगन नॉस्टैल्जिया का शिकार मतलाए हुए अंदाज़ में मौजूदा उबूरी दौर के नक़ाइस बयान करने में सारी क़ुव्वत लगा रहे थे। ख़ुशवक़्ती के तालिब अटकल से कभी इधर कभी उधर होने वाली गुफ़्तुगू में मौज मेला मनाने में मशग़ूल थे। मेहमान बातों में एक दूसरे को बहला रहे थे। रगेद रहे थे। शीशे में उतार के हम ख़याल बनाने की शुग़्ल में थे।
ताहिरा इसी मजलिस-ए-दोस्तां के ख़ला मला को छोड़कर गैलरी में आगे निकल गई।
ये डिनर मसर्रत और सईद भाई ने अपनी शादी की सालगिरह मनाने के लिए दे रखा था। न जाने क्यों ताहिरा ड्राइंग रुम से आगे दादी अम्मां के बेडरूम की तरफ़ चली गई। उसने जमा गोट में रह कर कई बातें सीखी थीं। अचार गोश्त पकाना, दूपट्टों को टाई ऐंड डाई करना और घर में दाख़िल होते ही बुज़ुर्गों को सलाम करने जाना… आख़िरी आदत बीस-पच्चीस साल लाहौर रह कर कमज़ोर पड़ गई थी लेकिन उसके सिंधी पोलाव और अचार गोश्त की अभी तक धूम मची थी।
पिछले छः माह से उसे एहसास-ए-जुर्म खाए जा रहा था। वो जब भी सईद भाई के घर आई कभी दादी अम्मां को मिलने की तकलीफ़ न करती। लेकिन उस रात बेडरूम के दरवाज़े पर हल्की सी दस्तक देकर जवाब का इंतिज़ार किए बग़ैर वो अन्दर चली गई।
दादी अम्मां कढ़ाई किया हुआ दुपट्टा ओढ़े ख़ाली ज़हन सोफ़े पर बैठी थी।
“कौन है…?” आधी सोई आधी जागी, आधी मरी आधी ज़िंदा दादी ने अपनी गदली आँखें फिराकर पूछा।
“कौन है भई?”
“मैं दादी मैं…” उसी मैं ने पिछले छः माह से दादी का चेहरा भी न देखा था।
“भाई मैं कौन?”
दादी अपने माथे पर हाथ रखकर उसे पहचानने के मरहले में थी।
“दादी जी…मैं…ताहिरा! गुरु… मसर्रत की दोस्त।”
“वाअलैकुम सलाम, लेकिन मसर्रत कौन है?” एक और सवाल दादी ने हवा में फेंका।
“आपकी बहू, दादी जी…सईद भाई आपके बेटे की बीवी…”
“अच्छा…कौन सी बहू?” सवाल दादी अम्मां का पीछा सारा दिन न छोड़ते। इन ही सवालों की मदद से वो अपनी गड मड दुनिया में एक रब्त क़ायम करना चाहती थी।
“छोड़ें दादी माँ, एक ही तो बहू है आपकी…”
दादी माँ शर्मिंदा सी हो गई। सर झटक कर बोली,”हाँ तो अच्छा… बैठो… तुम ताहिरा हो ना…”
“जी बिल्कुल…”
दादी माँ ऐट ईज़ हो गई। उसकी उम्र न समझने की थी न समझाने की। पल भर पहले की बात भी उसे याद न रहती। लेकिन अजीब बात है कि जवानी के कुछ वाक़ियात उसे अज़बर थे। उनकी तफ़सीलात को वो कभी न भूलती और बार-बार उनको दोहराने पर भी रत्ती भर फ़र्क़ उनके बयान में न आता।
ताहिरा दिल में शर्मिंदा होने लगी… ये कैसी मस्रूफ़ियात हैं जो हमें अपने बुनियादी फ़राइज़ भी भूलते जा रहे हैं। ये कैसे हो कि हो दूसरे तीसरे मसर्रत के घर आती रही और दादी माँ का उसे ख़याल तक न आया।
“आपको मुबारक हो दादी जां…”ताहिरा ने एहसास-ए-जुर्म तले कहा…
“कैसी मुबारक?” दादी ने पूछा।
उसी वक़्त मर्यम कपड़े उठाए कमरे में दाख़िल हुई।
“कौन है?”
“मैं दादी माँ…एनिवर्सरी का केक लाई हूँ…” मर्यम ने कहा।
“केक? वो क्यों…” भोली भाली दादी माँ ने पूछा।
“बस जी आप केक खाएँ… क्यों कैसे के बखेड़े में न पड़ें…बड़ा स्विफ्ट चॉकलेट केक है, दादी चबाना नहीं पड़ेगा…”
मर्यम ने ट्रे तिपाई पर रख दिया। यूं लगता था जैसे वो किसी हुक्म के तहत आई है। अपनी ख़ुशी से केक नहीं लाई। दरवाज़े में रुक कर मर्यम बोली, “आंटी ताहिरा, प्लीज़ आप अन्दर आजाएं… अम्मी आपका इंतिज़ार कर रही हैं…”
मर्यम दादी को देखे बग़ैर चली गई… तीस बरस की ये लड़की बड़ी तंदुरुस्त, पुर एतिमाद और साहिब-ए-राय थी। वो अपनी ज़िंदगी दो फ़ेज़ में बांट चुकी थी। कुछ अर्सा वो आइसक्रीम, केक, बर्गर, चाइनीज़ खाने, मलाई मिली सलादें, चीज़ केक और मुरग्ग़न दावती खाने खाती। उसकी जिल्द चमकदार। निचला हिस्सा घोड़े की तरह मज़बूत, हाथ पांव लचकीले और चाल में कत्थक नाचने वाली की सी फुर्ती आ जाती। उन दिनों में वो माईकल एंजल्ज़ का मॉडल लगती। सेहत के इश्तिहार बने। अभी कुछ ही दिन गुज़रते तो उसे उंची टेप और वज़न करने वाली मशीन याद आ जाती। उसकी सहेलियाँ मिलने वालियाँ भी जल्द ही याद दिलातीं कि कमर पर टाएर बढ़ रहे हैं और वो मॉडल गर्ल से ज़्यादा मिडल क्लास की गिर्हस्तन नज़र आती है। अब मर्यम डाइटिंग पर उतर आई। सिर्फ़ जूस पर इक्तिफ़ा करती। कभी किसी स्लिमिंग पार्लर से खाने का प्रोग्राम बना लाती। ख़ूब वर्ज़िश से बदन थकाती। वज़न घटाने का हर LAD इस्तेमाल करती। ऐसे ही जुनूनी अह्द में उसने वर्ज़िश के लिए एक वर्ज़िशी साईकल भी ख़रीद ली थी। अपने जिस्म पर ग़ैरमामूली जोर-ओ-सितम करने की वजह से वो एनोरक्सिया की मरीज़ नज़र आती… आँखें अंदर धँस जातीं, रंग सँवला जाता, उठने बैठने में चुसती न बढ़ती, सर में दर्द ठहर जाता और सबसे बड़ी बात ऐसे दिनों में जब वो डाइटिंग के फ़ेज़ में होती उसे बहुत ग़ुस्सा आता। वो सेलुलर फ़ोन की एक कंपनी में मार्केटिंग अस्सिटेंट थी। डाइटिंग के दिनों में उसका झगड़ा मार्केटिंग मैनेजर, बाक़ी स्टाफ़ ख़ासकर फ़ोन ऑप्रेटर और लिफ़्ट मैन से होता। उन दिनों में उसकी सेल्ज़ भी कम हो जाती और इसी वजह से उसकी कारकर्दगी को हेड ऑफ़िस के नोटिस में लाया जाता। उन दिनों में उसे सबसे ज़्यादा ग़ुस्सा अपनी माँ पर आता जो पिछले दस बारह साल की कोशिश के बावजूद उसके लिए एक माक़ूल रिश्ता भी तलाश करने से माज़ूर रही हैं। ऐसे माँ-बाप का क्या फ़ायदा जो उसे बेटों की तरह पैरों पर खड़ा करने में तो कामियाब हो गए लेकिन ज़िंदगी के लंबे सफ़र के लिए सहारा मुहय्या न कर सके।
“ये कौन थी?” दादी ने केक को ग़ौर से देखकर पूछा।
“मर्यम…दादी जी।”
“मर्यम? वो कौन है?”
दादी की उम्र समझने समझाने की न थी।
“ये… ये क्यों चली गई फ़ौरन…”
“दादी जी… आपकी पोती इतनी तंदुरुस्त-ओ-तवाना है, इतनी एनर्जी है उसमें कि वो किसी जगह ज़्यादा देर टिक कर बैठ नहीं सकती… उसका अंदर उसे लड़ाए फिरता है…”
आजकल मर्यम तंदुरुस्ती के फ़ेज़ में थी!
“जब मैं उसकी उम्र की थी तो उसका बाप सात बरस का था। उसकी माँ को कुछ फ़िक्र नहीं, बेटी धरती दहलाए फिरती है या तो खाने को कम दे… हमारी अम्मां हमें कभी अंडा खाने को नहीं देती थीं और ये पूरा चिकन रोस्ट खाती है सालिम… कहीं बांध दे उसे ताहिरा… सुबह कारे जाती है न जाने कहाँ कहाँ फिरती है मारी मारी…”
भभोल रंगत दादी के पास ताहिरा बैठ गई। आज उसे इस मरन मिट्टी पर प्यार आ रहा था। बूढ़ी दादी के हाथ की नसें उंगलियों से भी नुमायां थीं। ताहिरा ने दादी का हाथ पकड़ कर सोचा कभी इस दादी को देखने के लिए किसी की आँखें तरसती होंगी। वो रास्तों में, खिड़कियों से, दरवाज़ों की आड़ से, पुर इश्तियाक़ नज़रों से दादी को घूरता होगा… दादी भी अपने गोरे चिट्टे रंग, दराज़ क़द, लंबे बालों पर नाज़ाँ होगी। बनाव सिंघार की चीज़ों से दादी ने भी टूट कर प्यार किया होगा। कपड़े-लत्ते पर जान दी होगी। दादी को देखकर ये सोचना मुश्किल था कि ये चुरमुर, पाँसा पलटी, बला बदतर, बिसान्धी सी चीज़ पर कभी किसी ने जान भी वार देने को मामूली बात समझा होगा… दादी भी दुल्हन बनी होगी। उस के हाथों पर भी मेहंदी के गुल-बूटे उभरे होंगे। उसने भी शर्मा लजा कर किसी को अपनी मोहब्बत का तावीज़ बनाया होगा। हुस्न… इशक़… ग़ैरत शोहरत न जाने क्या-क्या वक़्त की लहरों पर बह गया। जिस मोहब्बत का चर्चा बखेड़ा, अशांती जवानी हड़प कर जाती है, वो मुहब्बत बुढ़ापे में कहाँ जाती है… दादी को ताकने झाँकने वाले जो आज उसे देख लें तो इसका क्या आगत स्वागत करें… क्या मुहब्बत इस दर्जा जिस्म की मरहून-ए-मिन्नत है… वो भी नौजवान जिस्म बल्कि नौजवान ख़ूबसूरत जिस्म…
इन्सान की सारी खूबियां बुढ़ापे में कहाँ जाती हैं… कहाँ और क्यों?
“तुम ही ज़रा मेरी बहू-बेटे को समझाओ, बेटी भी मशीन की तरह है बहुत जल्द पुरानी हो जाती है। अभी तो मर्यम पर आँख टिकती है फिर फिस्लेगी… सुन ताहिरा, तेरा मिलना मिलाना बहुत है… तेरा मियां वो…” वो फिर गुम हो गईं।
“डाक्टर है जी…”
“लो मैं कोई भूली हूँ फ़ज़ल को… मेरा ब्लड प्रैशर चेक करने आता है। बहुत लोग आते हैं उसकी क्लीनिक पर, कोई बर तलाश करो तुम दोनों, मर्यम के लिए… मेरी बहू तो ऊत है ऊत…”
शादी ब्याह की बात हो या ससुराली रिश्तेदारों की ग़ीबत… दादी माँ की सोच फ़ौरन सीधी हो जाती, फिर न कोई तफ़सील भूलती न यादाश्त अड़ंगे लगाती। अचानक दादी अम्मां ने कुछ इसी ढब से फ़लसफ़ियाना अंदाज़ में मरबूत गुफ़्तुगू की कि ताहिरा भी ब्याहने जोग मर्यम के फ़िक्र में घुलने लगी।
गोल्डन एनिवर्सरी का फंक्शन रात साढे़ बारह बजे ख़त्म हुआ। उसके बाद भी चंद मेहमान सियासी सूरत-ए-हाल को बाहम डिस्कस करते रहे। औरतों में ग़ीबत का सेशन शुरू हुआ। बड़ी बारीकबीनी के साथ अपने ही जिन्स को बाहम तिका बोटी करते हुए वो बहुत ख़ुशी महसूस कर रही थीं… आख़िर मेहमानों को विदा करने जब सईद भाई और मसर्रत बाहर कारों तक आए और आख़िरी जोड़ा ताहिरा और डाक्टर फ़ज़ल अगरू का रह गया तो ताहिरा ने मौक़ा ग़नीमत जान कर पूछा, “मसर्रत भला मर्यम की उम्र क्या है?”
मसर्रत ने कान खुजला कर कहा, “इसी जून में तीस की हो जाएगी…”
डाक्टर फ़ज़ल अगरू भी ड्राईवर सीट पर बैठे थे। गाड़ी बंद कर के बाहर आ गए। अब ये चारों गाड़ी के इर्दगिर्द खड़े मर्यम बूटी फड़कनी के मुताल्लिक़ बातें करने लगे।
“भई कुछ बेटी के मुताल्लिक़ भी सोचो कि ये अपनी एनीवर्सरियाँ ही मनाने में मगन रहोगे…” डाक्टर फ़ज़ल अगरू ने कुछ मज़ाक़ कुछ संजीदगी से कहा।
सईद भाई खिसियानी हंसी हंस कर बोले, “लो हम नहीं सोचते भला। हमने तो इतना सोचा, इतना सोचा कि उसे अपने पैरों पर खड़ा कर दिया। मर्द की तरह कमाती है किसी की मोहताज नहीं… सोच रही है बाहर जा कर पी-एच.डी. कर आए…”
“और शादी… वो सईद भाई, वो कौन करेगा?” ताहिरा ने सवाल किया।
“तुम तो उल्टा हमें चोर सा बना रही हो ताहिरा… उसको तो कोई पसंद ही नहीं आता… ऊपर से नौकरी कर ली है, हंसने बोलने को वहां हम उम्र मिल जाते हैं जॉब पर… अगर बिन गाय पाले दूध मिले तो ये बताओ गाय क्यों पाले मर्यम, किस लिए… किसी क़िस्म की DEPENDENCY तो रही नहीं मर्द पर, फिर शादी क्यों करे, मर्द औरत का राब्ता हो, माँ बच्चे का रिश्ता हो दोस्ती हो… भाई जहां किसी की मोहताजी ही न हो, वहां झंझट ही क्यों मोल ले कोई…” मसर्रत बोले गई। यूं लगता था वो अंदर ही अंदर अपनी कोशिशों से थक चुकी थी।
“अच्छा भाई, आप लोग मुझे बताएं कैसा लड़का पसंद करेगी हमारी मर्यम?”
“एक तो वो कहती है कि लड़का देखने में ठीक ठाक हो। अमरीकन ऐक्टर जैसा न सही, पर लोग बाग उसके क़द, रंग, शक्ल पर फब्तियां न कसें।
सुना तो यही है कि मर्द की शक्ल में उसकी कमाई देखी जाती है लेकिन ख़ैर… इक्कीसवीं सदी का वर्ल्ड ऑर्डर यही होगा… और…”
अब सईद भाई खंगारे और दबी आवाज़ में बोले, “दूसरा, भई खाता-पीता हो, शादी के बाद वो सारे सुख मर्यम को मिल सकें जो उसके बूढ़े माँ-बाप ने दे रखे हैं। वो किसी कंगले के साथ ज़िंदगी की जद्द-ओ-जहद में शामिल होना नहीं चाहती, वो जिन कम्फ़र्ट्स की आदी है वो उसे मिलनी चाहियें।”
“राइट…” ताहिरा ने समझने के अंदाज़ में कहा,” मैं समझ गई, लड़का सेल्फ मेड न हो यही मतलब है न… न सेल्फ मेड होने के ख़्वाब देखे… बना बनाया हो…”
“समझो ना ताहिरा… ठीक कहती है मर्यम… भला तीस-चालीस बरस मर्यम ने मर्द को बनाने में गुज़ारे तो उसने क्या एन्जॉय किया…” मुहब्बत से डाक्टर फ़ज़ल अगरु ने कहा।
ताहिरा ने ताज्जुब से डाक्टर साहिब पर नज़र डाली। जब डाक्टर साहब से उसकी शादी हुई थी तब फ़ज़ल अगरु मामूली हाऊस जॉब कर रहा था। वो केम्बलपुर के डिप्टी कमिशनर की बेटी थी। पर माँ ने बड़ी मुहब्बत से समझाया था कि डाक्टर दीन का पाबंद और शराफ़त का पासदार है। रिज़्क़ का अल्लाह मालिक है वो हर जगह बहम पहुंचाएगा। पहली पोस्टिंग कोट्री जंक्शन से आगे जुमागोट में हुई। यहां न कोई सोशल लाईफ़ थी न जगमगाते बाज़ार की गलियाँ। ताहिरा को डाक्टर फ़ज़ल अगरु के साथ वक़्त गुज़ारने का कुँआं भर पानी मयस्सर आया जिसमें डोल डोल डाल कर वो अपनी तन्हाइयाँ सैराब करती रही। सिंधी डाक्टर नफ़ीस आदमी थे। लतीफ़ भटाई के सच्चे आशिक़, बाबा बुल्हे शाह के शैदाई… न तो उन्होंने ताहिरा की ज़िंदगी में ज़हर घोला, न ही ताहिरा ने भी केम्बलपुर की ज़िंदगी को याद कर के आँसू बहाए। इतनी फ़राग़त, तन्हाई, ग़रीबी के होते हुए वो साथ रहने को ज़िंदगी की सबसे बड़ी अय्याशी समझते रहे। शायद ताहिरा पुराने ख़यालात की थी या मुम्किन है फ़ज़ल अगरु के साथ ही वक़्त ऐसे गुज़रा कि वो समझने लगी साथी को खुला कपड़ा होना चाहिए… उस की कतर ब्योंत… सजाट नाप सब कुछ अपने दूसरे साथी पर छोड़ना चाहिए।
“अच्छा जी, और कुछ…” थोड़ी सी हार कर ताहिरा बोली।
“हाँ भई हाँ… याद आया। उसका EXPOSURE ज़रूर हो। कुँवें का मेंढ़क न हो अपने ही गुन गाने वाला… बल्कि अगर हो सके तो इंटरनेशनल लेवल का EXPOSURE हो। भला ऐसे आदमी का भी क्या फ़ायदा जो क्रास कल्चर न जानता हो। छोटी खोपड़ी वाले से क्या लेना?” सईद भाई बोले।
ताहिरा ने कहना चाहा कि ज़्यादा EXPOSURE भी कभी कभी ख़तरनाक हो सकता है, लेकिन ताहिरा को इल्म था कि सईद भाई बड़े बातूनी थे, उनके पास डिस्कवरी, इकोनॉमिस्ट, न्यूज़वीक, टाइम, एशिया वीक, ज्योग्राफ़ीकल मैगज़ीन और ऐसे ही कई रिसाले मुरव्वजा इल्म और इन्फ़ार्मेशन से भरे आते थे, वो कई मुल्कों की सय्याहत भी हुकूमती ख़र्च पर कर चुके थे। एक वक़्त था जब वो प्राइम मिनिस्टर की तक़रीरें भी लिखते थे और सियासी हालात पर उनकी बसीरत सिक्काबंद थी… लेकिन ये सारा लिखना-पढ़ना, इन्फ़ार्मेशन से पुर दिमाग़ वो इसलिए तर-ओ-ताज़ा रखते कि उन्हें बोलने का शौक़ था। वो पेंटागॉन से लेकर सी.आई तक और क्लोनिंग से लेकर चियूंटी पर रिसर्च तक सब पर गुफ़्तुगू कर के महफ़िल को हिरासाँ और हैरत ज़दा करने का फ़न जानते थे।
मर्यम भी सईद भाई की तरह बड़ी पढ़ाकू थी। उसके पढ़ने-लिखने के पीछे भी यही तहरीक थी। वो भी हम चश्मों को अपनी इन्फ़ार्मेशन से दंग करना चाहती थी। मर्दुम बेज़ार मर्यम लोगों को पसंद करने में ख़ासी दिक़्क़त महसूस करती। कोई लड़की उसके मेयार पर पूरी न उतरती। क्योंकि लड़कियां आम तौर पर फ़ैशन, बाज़ार, ब्यूटी पार्लर, घर की आराइश, चुगली-ग़ीबत से आगे गुफ़्तुगू रवानी से चिल्लाना न जानती थीं। उर्दू मीडियम की पढ़ी हुई लड़कियां ख़ासतौर पर उसके पैमाने पर पूरी न उतरतीं… ख़राब अंग्रेज़ी लब-ओ-लहजे रखने वालियाँ उसे झल्लाहट में मुब्तला कर देतीं।
कुछ अर्सा पहले की बात है कि एक पुरानी सहेली से मर्यम बाज़ार में मिली। उस वक़्त मर्यम बड़े स्टाइल से मिल्क शेक पी रही थी।
एक सियाह कार ज़न्नाटे से गुज़री फिर कुछ आगे बढ़कर सकर चीं मारती कार रुकी और पूरी स्पीड से REVERSE में लौटी। मर्यम थोड़ा सा घबरा गई। अख़बारों में दहश्तगर्दी के वाक़ियात पढ़ते पढ़ते उसका ध्यान अब ख़ैर की तरफ़ कम ही मुनातिफ़ होता था। कार उससे थोड़ी ही दूर जा कर रुकी। एक नौजवान औरत उसमें से बरामद हुई… स्याह लिबास, स्याह चशमा, स्याह स्वेटर, चेहरा ब्लीच शूदा, बालों में STREAKS, चेहरे पर मेक अप मास्क की तरह चुपड़ा हुआ… मर्यम की सहेली किसी ब्यूटी क्लीनिक का मॉडल नज़र आ रही थी।
आसिफ़ा ने भाग कर आइसक्रीम चाटती मर्यम को झप्पी में ले लिया। फिर उसे घुमा फिराकर देखा। मुहब्बत से दाएं गाल को चूमा और बड़े जज़्बे से बोली, “भाई मर्यम, कहाँ होती हो तुम… मैंने तो कई दोस्तों से पूछा। किसी के पास से न तुम्हारा फ़ोन नंबर मिला न एड्रेस। ओल्ड गर्लज़ के फंक्शन में भी तुम नहीं आईं। कमाल है… तुम तो मुकम्मल तौर पर ब्लैक आउट हो गईं संगदिल।”
मैं तो यहीं थी लाहौर में… मेरा तो मुस्तक़िल एड्रेस भी वही है जो कॉलेज में था।” आसिफ़ा ने अब्रू उठा कर ताज्जुब से कहा, “ये कॉलेज वाले भी अजीब हैं। एक ओल्ड स्टूडेंट का पता नहीं कर सके।”
फिर आसिफ़ा ने कार में उछल कूद करते अपने बच्चों को डाँट पिलाई, “दो मिनट तुम लोग आराम से नहीं बैठ सकते। क्या क़यामत आ गई, चुपचाप बैठो वर्ना पिटाई होगी…” बच्चों पर बरस कर वो ताज़ा मुस्कुराहट लिए मर्यम की तरफ़ मुतवज्जा हुई…” यार इस कार्टून चैनल ने तो बच्चों की साईकॉलोजी ही बदल दी है लियोनार्दो आराम से बैठो…मामा आ रही है…”
पता नहीं बच्चे तीन थे कि चार लेकिन सारे ही थोड़ी देर के लिए दुबक गए।
“तुम्हारे कितने बच्चे हैं मर्यम?” आसिफ़ा की जानिब से सवाल आया। जब भी ये सवाल मर्यम से पूछा जाता था वो अजीब तरह की ख़िफ़्फ़त महसूस करती, गोया वो जिस्मानी तौर पर किसी क़िस्म की ना अहलियत में मुब्तला थी।
चंद लम्हे तवक़्क़ुफ़ के बाद मर्यम बोली, “मेरे बच्चे? मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई…”
“तत् तत् तत्… भई जल्दी करो, ज़्यादा देर न हो जाये। ये बेहया मर्द लोग भी नौजवान ब्लोंगड़ियाँ पसंद करते हैं… तुम क्या सोच रही हो आख़िर?”
मर्यम कुछ हिल सी गई… “सोच कुछ नहीं रही, मेरे मतलब का आदमी अभी मिला नहीं…एवें केवें के साथ ज़िंदगी ख़राब होगी…”
आसिफ़ा ने निचला होंट दाँतों में दबाया। फिर टॉपिक बदल दिया। थोड़ी देर वो पुरानी सहेलियों, कॉलेज की प्रोफ़ेसरों, सियासी हालात की बातें करती रहीं। इतनी देर में बच्चों ने हॉर्न बजाना शुरू कर दिया। भुस में शादी आफ़त की चिंगारी डाल कर अल्लाह हाफ़िज़ कहती मिलियन डालर की मुस्कुराहट बिखेरती आसिफ़ा अपने सुपर मैन, माईकल एंज्लो, नोटंडो, बैटमैन लेकर रुख़्सत हो गई।
बहुत सारे वादों के बावस्फ़ दोनों फिर एक दूसरे को मिल न पाईं। मौजूदा अह्द की ज़िंदगी ने जहां और बहुत सारी चीज़ों को ख़त्म कर दिया था। वहां ज़ाती फ़राग़त की मौत का बाइस भी हुई थी। खाते-पीते घरानों में बंक, मार्कीट, सोशल फंक्शन, फ़ैशन, सय्याहत के लिए तो वक़्त था लेकिन किताब पढ़ने, मेल-जोल के लिए वक़्त न छोड़ा था। बच्चे-बूढ़े बुरी तरह मुतास्सिर हो रहे थे। मस्रूफ़ियत ही इस क़दर थी कि मुआशरे को कानों-कान ख़बर न हुई और वो बदल बदला कर रह गया। आसिफ़ा से मुलाक़ात के बाद मर्यम संजीदगी से सोचने लगी कि कहीं अब वाक़ई देर न हो गई हो। आसिफ़ा के बच्चे देखकर उसके दिल में एक हूक सी उठी।
अब तक जितने उम्मीदवार वो मुस्तर्द कर चुकी थी सबको सुनी सुनाई पर REJECT किया था। कभी किसी से मुलाक़ात न की थी। इस क़दर ज़रूर हुआ कि मर्यम बर देखव्वे की रस्म पर मान गई और पहली बार मसर्रत ने सुख का सांस लिया कि कम अज़ कम मर्यम ने इतनी हामी तो भरी कि ट्रॉली धकेलती अंदर ड्राइंग रुम में आजाएगी। सारी उम्र तो वो उसे चीप हरकत समझती रही। अब ख़ुद बर देखव्वे में शामिल हो कर जवाब देगी। फ़ौरन मसर्रत ने फ़ोन मिलाया और हुलिया नवीस ताहिरा से तफ़सील के साथ मर्यम की पसंद और नापसंद की इत्तिला दी।
डाक्टर फ़ज़ल अगरु भी अब तक मर्यम के मुआमलात की लपेट में आ चुके थे। मरीज़ों को अब वो एक और नज़र से देखते परखते और फिर घर पर ताहिरा को इन्फ़ोर्म करते। ये दोनों बड़े दो और दो-चार क़िस्म के प्रैक्टीकल लोग थे लेकिन ज़रा से छोटे वाक़ए ने उन्हें गोया मर्यम के गॉड फ़ादर और गॉड मदर बना दिया।
उनही दिनों एक शाइस्ता से बुज़ुर्ग ताहिरा से क्लीनिक पर मिले। यूनुस साहब दस साल हुए सिवल सर्विस से रिटायर हो कर कई बीमारियों की संगत में रिटायर्ड ज़िंदगी गुज़ार रहे थे। बा रेश सुर्ख़-ओ-सफ़ेद दराज़ क़द पीर मर्द डाक्टर साहब के क्लीनिक पर आते। तमाम मरीज़ भुगत जाने के बाद डाक्टर साहब से मुलाक़ात करते। उन्हें ब्लड प्रैशर और शूगर की तकलीफ़ थी ही लेकिन इसके इलावा जोड़ों का दर्द गले की शिकायत, क़ब्ज़, इस्हाल, नींद की कमी, गैस ऐसी कई इल्लतें भी साथ थीं जिनकी वजह से आम तौर पर उन्हें डाक्टर फ़ज़ल अगरु के पास आना पड़ता।
“ये मेरी बीवी है सर, ताहिरा…”
“सलाम अलैकुम, सलाम अलैकुम।” यूनुस साहब बोले।
“आप तो ग़ालिबन सबसे बाद में दिखाएँगे?” डाक्टर साहब ने सवाल किया।
“जी जी…” बूढ़ा यूनुस क्लीनिक को ग़ालिबन क्लब के तौर पर भी इस्तेमाल करता था।
“तो, आप और ताहिरा वहां सोफ़े पर बैठें, मैं काफ़ी भिजवाता हूँ…”
ताहिरा और यूनुस साहब लंबे सोफ़े पर बैठ कर बातें करने लगे। जल्द ही ताहिरा को एहसास हुआ कि यूनुस साहिब की ज़बान बात करने को तरसी हुई है।
“मैं यहां क़रीब ही रहता हूँ। वाइफ़ पिछले साल फ़ौत हो गईं। अब शदीद तन्हाई है… बारह कनाल की कोठी… ग़ुसलख़ाने रेलवे स्टेशन के ग़ुसलख़ानों से मुशाबेह हैं। किसी का शावर चलता है तो रुकता नहीं…डब्लयु सी ऐसे रिसते हैं कि टायल्ज़ में ऑरेंज रंग का ज़ंग लग गया है… टायलें चिकट… पर्दे गिरा चाहते हैं। क़ालीनों पर चलो तो मिट्टी धब् धब् उठती है। जब घर वाली न रहे तो घर कहाँ रहता है।”
“बच्चे वच्चे…यानी कोई बहू वग़ैरा…” काफ़ी का छोटा सा घूँट पी कर ताहिरा ने सवाल किया। लेकिन बिन सुने यूनुस साहब बोलते चले गए…”दो माली रखे हैं। आप किसी दिन डाक्टर साहब को लेकर आएं। सारा घर झाड़ झंकार बन चुका है। हमारे अब्बा शिकारी थे। गैलरी, ड्राइंग रुम, खाने के कमरे में हनूत शुदा शेर-चीते, घड़याल टँगे हैं। कहीं दीवारों पर, कहीं सीढ़ियों पर…यूं लगता है हम जानवरों के म्यूज़ियम में आ गए हैं…”
“तो आप उन्हें उठवा कर किसी अलैहदा कमरे में रखवा दीजिए…”
झुर्रियों भरे बुड्ढे ने सफ़ेद हाथों को मलकर जवाब दिया, “अब हम ठहरे पुराने आदमी, इतनी आसानी से माज़ी के साथ रिश्ते भी नहीं तोड़ सकते। जहां अब्बा इन जानवरों को लटका गए हैं, वहीं भला लगता है… अगर उठवा दिये तो हम ही बेवफ़ाई करेंगे अब्बा के साथ…”
“कोई बेटी…बहू?” ताहिरा ने फिर पूछा।
लेकिन वो अपनी रवानी में बोलते गए, “रात के वक़्त बाहर निकलें कमरे से तो लगता है जानवरों में जान पड़ गई है। कोठी के ख़ाली कमरों में दनदनाते फिरते हैं हनूत शूदा…”
“लेकिन… आप किसी को साथ रखिए न… ये तो बुरी बात है।” अब ताहिरा, यूनुस साहब पर भी वैसा ही तरस खाने लगी जैसा उसे मर्यम पर आता था।
“मैंने शिकागो ख़त लिख दिया है अपने बेटे को… वो डाक्टर है वहां… इकलौता है बड़ा सआदतमंद… सब काम दाम छोड़ कर आ रहा है। उसके आने पर सब ठीक हो जाएगा…”
ताहिरा को उस बूढ़े की रजाईयत पर तरस आ गया… “अगर डाक्टर वापस भी आ जाए तो इस बात की क्या गारंटी कि सब ठीक हो जाएगा।”
आवाज़ गिरा कर यूनुस साहब बोले, “किसी किसी रात को लगता है कि जानवरों में जान पड़ गई है और वो ख़ाली कमरों में दनदनाते फिरते हैं… अचानक रीछ की डफ़ली बजने लगती है…शेर गरजता है। चीतों की चाप सुनाई देती है… अजीब क़िस्म का ख़ौफ़ आता है…”
ताहिरा को यूनुस साहब की हालत पर ख़ौफ़ आने लगा!
काफ़ी की प्याली तिपाई पर रखकर यूनुस साहब आहिस्ता से बोले, “मेरा ख़याल है कि बेटी के पास कराची चला जाऊं, वो बड़े इसरार से बुलाती है… लेकिन घर जवाई की क्या इज़्ज़त होती है भला घर ससुरे किस बाग़ की मूली…”
पीर मर्द ने अपने ऊपर हँसना चाहा लेकिन उसका मुँह थक सा गया। यूनुस साहब को एक मुद्दत किसी से बात किए हो चुकी थी। इसीलिए वो सरपट ज़बान से अपनी तन्हाइयों की दास्तान बग़ैर कॉमा, फ़ुल स्टॉप के सुनाना चाहते थे।
“क्या आपका बेटा यहां एडजस्ट हो जाएगा?”
यूनुस साहब ने मुस्कुरा कर कहा, “पहले मुश्किल ये थी कि वो शादी पर रज़ामंद नहीं था। अब मान गया है। आया उसकी बीवी उसे अपने वतन में एडजस्ट कराएगी…”
ताहिरा के दिल की घंटी बजी…पा लिया… उसने अंदर ही अंदर अरशमीदस की तरह नारा लगाया…। शिकागो का डाक्टर…हड्डियों के ईलाज का माहिर… बारह कनाल की कोठी… न कोई सास न नन्दें… अकेला एक सुसर वो भी चंदरोज़ा… आज़ादी ही आज़ादी… राज ही राज… तुम्हारी तो ग्रैंड प्रिक्स लाटरी निकल आई मर्यम।
डाक्टर मुअज़्ज़म के आने से पहले ताहिरा और मसर्रत की लंबी मुलाक़ातें और फ़ोन पर लंबी बातें हुईं… सईद भाई और डाक्टर फ़ज़ल अगरु भी पहले की निस्बत एक दूसरे से गर्मजोशी से मिलने लगे। वो सब एक तरह के यूफ़ोरिया में मुब्तला थे। हत्ता कि दादी माँ भी अपनी सुहागरात, शादी का जोड़ा, ससुराली रिश्तेदारों को बार-बार याद कर रही थीं। वैसे तो लगता था कि अलज़ाइमर की मरीज़ा थीं और पल भर पहले की बात याद नहीं रख सकतीं लेकिन इन दिनों वो पुराने ढोलक गीत सुना कर सबको हैरान कर देतीं।
शाम ढल रही थी जब डाक्टर मुअज़्ज़म अपने बूढ़े बाप का हाथ थामे अंदर आया और सईद भाई के पास ख़ामोशी से बैठ गया। दराज़ क़द, पुर एतिमाद, गोरा चिट्टा वजीह, धीमी आवाज़ में बोलने वाला, शलवार-क़मीस पहने हुए थे। थोड़ी देर बाद जब मर्यम ट्रॉली धकेलती अंदर आई तो उसने भरपूर निगाहों से डाक्टर मुअज़्ज़म को देखा लेकिन डाक्टर ने लम्हा भर को भी निगाहें उठा कर मर्यम की जानिब न देखा। डाक्टर फ़ज़ल अगरु से वो बड़े तहम्मुल के साथ किसी मरीज़ की केस हिस्ट्री डिस्कस करता रहा। मर्यम को अगर डाक्टर ने देख लिया था तो वो महज़ इत्तिफ़ाक़न था। घर लौटने से पहले यूनुस साहब ने ताहिरा को अपनी रजामंदी से भी मुत्तला कर दिया।
रात गए सईद भाई का फ़ोन आया। नीम सोई नीम जागी। ताहिरा इस कॉल के लिए तैयार न थी पहले उसे ख़याल आया कि कोई राँग नंबर है। सईद भाई की आवाज़ सुनकर उसने अंदाज़ा लगाया कि ग़ालिबन वो लड़के वालों की राय मालूम करना चाहते हैं।
दूसरी जानिब से सईद भाई की आवाज़ आई… “हम लोग बड़े शर्मिंदा हैं ताहिरा बहन… बल्कि मसर्रत तो मारे शर्म के फ़ोन भी नहीं कर पाईं… हमें अफ़सोस है कि… हम ये शादी नहीं कर पाएँगे…”
“लेकिन क्यों सईद भाई…आख़िर वजह?”
सईद भाई की आवाज़ आई…”देखिए डाक्टर मुअज़्ज़म का भी कोई ख़ास क़ुसूर नहीं है। मुल्क से बाहर जा कर कुछ लोगों पर रद्द-ए-अमल हो जाता है, अपनी शनाख़्त क़ायम करने के लिए वो ज़्यादा मज़हब परस्त हो जाते हैं। अपनी पहचान क़ायम रखने को वो ज़रूरत से ज़्यादा RIGID हो जाते हैं। लीजिए जो शख़्स अमरीका में रह कर ज़कात देता है… बैंक का सूद नहीं लेता… औरतों से आश्नाई नहीं रखता… वो तो पक्का फंडामेंटलिस्ट हुआ नाँ।”
ताहिरा ज़रा सी चिड़ गई…”कमाल है सईद भाई। ग़ैर मुस्लिम जो मर्ज़ी कहें, आप तो डाक्टर मुअज़्ज़म को कुछ न कहें जी… उसकी तो दुनिया भी सँवर गई और आख़िरत भी…”
सईद भाई की आवाज़ में कुछ खुरदरापन आ गया… “अब इस जवानी में दाढ़ी रखे बैठा है तो बीवी को भी तो हिजाब पहनाएगा ना… हम उससे क्या उम्मीद रख सकते हैं।”
ताहिरा को धचका लगा…”इस क़दर ख़ूबसूरत, बाप परस्त…शाइस्ता आदमी फिर कब मिलेगा?”
“बात ये है ताहिरा बहन… सब कुछ ठीक है। हमें मुअज़्ज़म पसंद भी आया है लेकिन उसने सारी शाम नज़रें नीची रखीँ। मर्यम की जानिब ग़ौर से देखा तक नहीं। अब जो ख़ुद शरा का इस हद तक पाबंद हो, वो बीवी से बहुत ज़्यादा तवक़्क़ुआत रखेगा। हमने मर्यम को इतनी तालीम इसीलिए तो नहीं दिलवाई कि वो इक्कीसवीं सदी में अपनी नानी-दादी की ज़िंदगी गुज़ारे।”
“आपकी सारी बातें मुझे बड़ी फ़ुरूई लग रही हैं सईद भाई… मैं वाक़ई आप की बात समझी नहीं…”
थोड़ी देर फ़ोन पर ख़ामोशी रही फिर सईद भाई खंकार कर बोले…”ताहिरा हमारा ये ख़याल है यानी मसर्रत, मर्यम और मेरा… कि मज़हब के पैरोकार आम तौर पर बड़े तंगनज़र होते हैं। ऐसे लोगों के साथ अव्वल तो रहना बहुत मुश्किल होता है। शख़्सी आज़ादी क़दम क़दम पर मजरूह होती है। मेरा ख़याल है कि जो शख़्स मज़हब के फ्रेमवर्क में रहता है वो न तो अच्छा इन्सान होता है न शौहर… हम डाक्टर मुअज़्ज़म की दिल आज़ारी करना नहीं चाहते। आप मेहरबानी फ़र्मा कर उन्हें तरीक़े से इनकार करें। बस उनकी दिल आज़ारी भी न हो… और इनकार भी हो जाये… उस के अब्बा को मैं ख़ुद समझा लूँगा… मेरे नज़दीक दिल आज़ारी सबसे बड़ा गुनाह है।”
“डाक्टर मुअज़्ज़म जैसे लोग न ख़ुद आज़ाद होते हैं न किसी और को आज़ादी दे सकते हैं। ये ख़्वाहिशात को पूरा करने के बजाय उन्हें दबाने के दरपे रहते हैं। हम अपनी बेटी की शादी इसलिए करना चाहते हैं कि वो ख़ुश रहे। गिरफ़्तार-ए-मज़हब का साथी बना कर उसे आज़माईशों में नहीं डालना चाहते। इन्सान अपनी ख़्वाहिशें भी पूरी न करे तो वो यहां आया क्यों है?”
दूसरी तरफ़ से फ़ोन बंद हो गया।
सुबह तक ताहिरा करवटें बदल कर सोचती रही कि यूनुस साहब को क्या कह कर इनकार करे…। वो बेचारे तो मर्यम को देखकर समझने लगे थे कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। क्या न्यू वर्ल्ड ऑर्डर में मज़हब की गुंजाइश न थी… क्या ऐसे लोग जो मज़हब से वाबस्ता थे आगे न बढ़ सकते थे…या न्यू वर्ल्ड ऑर्डर सिर्फ ह्यूमन राइट की लाठी टेक कर चलना चाहता था?
(कहानी साभार- रेख्ता)
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