हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ थे रामधारी सिंह दिनकर

हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ थे रामधारी सिंह दिनकर

रामधारी सिंह दिनकर के सम्बन्ध में लगभग एक स्थापना-सी बन चुकी है कि वे थोड़े-थोड़े सबको अच्छे लगते हैं। उनमें राष्ट्रवाद के भी तत्व हैं, गांधीवाद और मार्क्सवाद के भी तत्व हैं। दिनकर के प्रायः आलोचक उन्हें थोड़ा गांधीवादी भी मानते हैं और थोड़ा मार्क्सवादी भी, थोड़ा राष्ट्रवादी भी और थोड़ा हिंदूवादी भी। संभवतः उनके मूल्यांकन की इसी प्रवृत्ति के कारण वे टुकड़ों-टुकड़ों में सबको अच्छे लगते हैं। कमाल तो यह कि उन्हें टुकड़ों-टुकड़ों में वे भी पसंद करते हैं जिन्हें दिनकर ने अपने जीवन में कभी पसंद नहीं किया। दिनकर को टुकड़ों-टुकड़ों में देखने का ही नतीजा है कि आज हिंदुत्ववादी शक्तियां दिनकर को ‘अपना’ बताने का लगातार अभियान चला रही हैं। ये अपने राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि के लिए विरोधी विचारधारा पर निशाना साधते हुए दिनकर को उनके व्यापक सन्दर्भों से काटकर उनका दुरुपयोग कर रही हैं। ऐसे समय में, दिनकर को लेकर पाठकों में एक ठोस समझदारी विकसित करने की आवश्यकता है ताकि राहु के ग्रसने से दिनकर को बचाया जा सके।

महात्मा गांधी जैसे महान हिन्दू की हत्यारी और पं. जवाहरलाल नेहरू की स्मृतियों को कलंकित करनेवाली हिंदुत्ववादी शक्तियां आज सत्ता के केंद्र में हैं। ये अब भी गांधी की हत्या को जायज ठहराती हैं। इसलिए गोड्से की मूर्तियां लगाती हैं और उस हत्यारे की पूजा करती हैं। दिलचस्प बात यह कि ये अपनी सुविधा के अनुरूप गांधी को कभी पूजती भी हैं और कलंकित भी करती हैं। वही हत्यारी हिंदुत्ववादी शक्तियां आज दिनकर को भी अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के लिए उतावली हो रही हैं। जबकि दिनकर इन हिंदुत्ववादी शक्तियों के बिल्कुल ख़िलाफ़ थे।

दिनकर को गांधी और नेहरू दोनों पसंद थे। अनेक अवसरों पर गांधी और नेहरू से उनकी असहमतियां भी प्रकट हुई हैं। उनकी कविताओं में कभी-कभार दोनों की तीखी आलोचनाएं भी मिलती हैं। इसके बावजूद उन दोनों की विराटता से वे न केवल अवगत थे, बल्कि अभिभूत भी थे। 1947 में दिनकर की चार कविताओं का एक कव्य-संग्रह ‛बापू’ नाम से छपा। उसमें गांधी की विराटता के प्रति दिनकर की अगाध श्रद्धा देखी जा सकती है। वे कहते हैं- ‘बापू मैं तेरा समयुगीन, है बात बड़ी, पर कहने दे / लघुता को भूल तनिक गरिमा के महासिंधु में बहने दे।’ दिनकर के लिए गांधी गरिमा के महासिंधु थे। क्योंकि वे एक ऐतिहासिक परिघटना के रूप में सत्य और अहिंसा के बल पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को न सिर्फ चुनौती दे रहे थे, बल्कि उसे शिकस्त भी दे रहे थे। दिनकर ने ‛बापू’ में लिखा कि ‛विस्मय है, जिस पर घोर लौह-पुरुषों का कोई बस न चला / उस गढ़ में कूदा दूध और मिट्टी का बना हुआ पुतला।’ किन्तु ‛बापू’ के प्रकाशन के छह महीने के भीतर दिनकर के ‛दूध और मिट्टी का बना हुआ पुतला’ हिंदुत्ववादियों के हाथों मार दिया गया।

गांधी की हत्या से दिनकर को बहुत आघात पहुँचा था। उनकी हत्या के तत्काल बाद ‛बापू’ का दूसरा संस्करण छपा। इसमें दिनकर ने इन हिंदुत्ववादियों को लताड़ लगाते हुए लिखा कि ‛लिखता हूँ कुंभीपाक नरक के पीव कुण्ड में कलम बोर/बापू का हत्यारा पापी था कोई हिन्दू ही कठोर।’ गांधी की हत्या पर हिंदुत्ववादियों के विरुद्ध इतनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाला दिनकर को छोड़ शायद ही कोई दूसरा कवि हो। उन्होंने आगे लिखा है कि ‛कहने में जीभ सिहरती है/मूर्च्छित हो जाती कलम/हाय, हिन्दू ही था वह हत्यारा।’ दिनकर की राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत कविताओं के आधार पर दिनकर को ‛अपना’ बताने वाले गोड्से पूजक हिंदुत्ववादियों को उनकी इन पंक्तियों से निश्चय ही छठी का दूध याद आता होगा।

पं. जवाहरलाल नेहरू की स्मृतियों को कलंकित करने के लिए हिंदुत्ववादी शक्तियों द्वारा प्रायोजित तरीके से निरंतर अभियान चलाया जा रहा है। नेहरू को मुसलमान और न जाने क्या -क्या कहा जा रहा है! फासीवादी दौर का जर्मन चिंतक वाल्टर बेंजामिन कहता था कि फासीवादी शक्तियों से जीवितों के मुक़ाबले मृतकों को अधिक खतरा रहता है क्योंकि ये मृतकों को सबसे अधिक कलंकित करते हैं। आज गांधी और नेहरू को सबसे अधिक कलंकित किया जा रहा है। जबकि ये दोनों दिनकर को सर्वाधिक प्रिय थे। अधिकतर लोग यह जानते हैं कि नेहरू ने दिनकर की प्रसिद्ध गद्य कृति ‛संस्कृति के चार अध्याय’ की भूमिका लिखी है। किंतु कमतर लोग यह जानते हैं कि दिनकर ने नेहरू को ‛लोकदेव’ की उपाधि देकर ‛लोकदेव नेहरू’ नाम की एक किताब लिखी थी।

नेहरू के प्रति दिनकर के विचारों को 1955 ई. में लिखे ‛शांति की समस्या’ नामक उनके एक लेख से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने बल देकर कहा है कि ‛आनेवाला विश्व सिकन्दर और हिटलर का विश्व नहीं, बुद्ध, ईसा, गांधी और जवाहर का संसार होगा।’ इसी लेख में उन्होंने ‛पंचशील’ पर आधारित नेहरू की विदेश नीति का समर्थन करते हुए लिखा कि ‛प्रत्येक देश की वैश्विक नीति उसके राष्ट्रीय चरित्र की परछाईं होती है। हमारा राष्ट्रीय चरित्र योद्धा का नहीं, शांति सेवक का रहा है।’ किन्तु इसके विपरीत आज हिंदुत्ववादी शक्तियां देश की सत्ता पर काबिज होकर देश के नागरिकों के बीच भय, अविश्वास, घृणा व अशांति का वातावरण उत्पन्न कर रही हैं, अपने पड़ोसी देशों के साथ शत्रुतापूर्ण संबंध कायम करते हुए देश के भीतर युद्ध का एक छद्म वातावरण निर्मित की हुई हैं और अमेरिकी साम्राज्यवाद की चाकरी में देश की संप्रभुता को खत्म कर रही हैं।

दिनकर हिंदी समाज में सबसे अधिक उद्धृत किए जाने वाले आधुनिक कवियों में एक हैं। परन्तु इधर उन्हीं की काव्य-पंक्तियों को उनके वास्तविक सन्दर्भों से काटकर हिंदुत्ववादियों द्वारा अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद के लिए सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। जबकि दिनकर अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद के बिल्कुल विरोधी थे। वास्तव में, उनमें युद्ध और शांति को लेकर एक अंतर्विरोध दिखाई पड़ता है। वे कभी युद्ध के पक्ष में तो कभी शांति के पक्ष में खड़े दिखते हैं। 1930 ई. में नमक सत्याग्रह के जरिए गांधी ने ब्रिटिश हुकूमत पर एक भारी दबाव बनाया था। लेकिन उसके बाद जब 1931 ई. में वे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने चले गए तो अपेक्षाकृत युवा कवि दिनकर गांधी से नाराज होकर 1933 ई0 में ‛हिमालय’ नामक कविता में गांधी के लिए कह डाला कि ‛रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ / जाने दे उसको स्वर्ग धीर / पर, फिरा हमें गांडीव-गदा / लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।’ तब दिनकर गांधी के सत्य और अहिंसा की जरूरतों को सिरे से खारिज करते हुए भगत सिंह और चन्द्रशेखर आजाद की क्रांतिकारी धारा के पक्ष में खड़े हो जाते हैं।

क्या चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह युद्धोन्मादी और अंधराष्ट्रवादी थे? वे क्रांतिकारी थे। उनके पास भावी भारत के स्वप्न और स्वरूप थे। भगत सिंह अपना आदर्श लेनिन को मानते थे। वे कार्ल मार्क्स के वैज्ञानिक चिंतन के रास्ते भारत में समाजवादी क्रांति करना चाहते थे। दिनकर गांधी की जगह भगत सिंह की समाजवादी क्रांति के पक्ष में खड़े होते हैं। भारत-चीन युद्ध के बाद भी वे ‛परशुराम की प्रतीक्षा’ करते हैं। परंतु इसका आशय यह नहीं कि वे अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद के पक्ष में खड़े हैं। वे द्वितीय विश्वयुद्ध के समय प्रचार विभाग में उपनिदेशक के पद पर कार्यरत थे। इस दौरान उन्होंने साम्राज्यवाद की कुटिलता और युद्ध की भयावहता को बहुत नजदीक से देखा-समझा था। संभवतः इसलिए उनकी कविताओं का बहुत बड़ा हिस्सा युद्ध के ख़िलाफ़ है। दिनकर अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद के कवि कदापि नहीं हैं। वे राष्ट्रीय अस्मिता के साथ पौरुष, प्रेम, शांति और सौंदर्य के कवि हैं।

परन्तु हिंदुत्ववादी शक्तियां अपने राजनीतिक हित को साधने के लिए दिनकर के विराट लेखकीय व्यक्तित्व को संकुचित ही नहीं कर रही हैं, कलंकित भी कर रही हैं। दिनकर ‛राष्ट्रकवि’ हैं। मगर उन्हें हिंदुत्ववादियों द्वारा वोट के राजनीतिक फायदे के लिए ‛जाति विशेष के कवि’ के रूप में परोसने की कोशिश की जा रही है। इनके द्वारा दिनकर की जयंती और पुण्यतिथि के बहाने जातीय गोलबन्दी की राजनीति की जा रही है। 2014 ई. में बिहार चुनाव को ध्यान में रखकर दिनकर की जाति को गोलबंद करने की नियत से ‛संस्कृति के चार अध्याय’ के प्रकाशन के 58वें वर्ष को जबरन 50वें वर्ष घोषित कर के एक बड़ा आयोजन किया गया था। इन आयोजनों का मकसद दिनकर का साहित्यिक मूल्यांकन करना अथवा उनके विचारों को वृहत्तर समाज तक ले जाना नहीं होता बल्कि ‛राष्ट्रकवि’ के नाम पर उनकी जाति के वोटों का ध्रुवीकरण करना होता है। इन आयोजनों में वक्ताओं द्वारा दिनकर के नाम से (वक्ताओं द्वारा दिनकर रचित बताया जाता है!) उन्हीं की काव्य-शैली में ऐसी-ऐसी पंक्तियां पढ़ी जाती हैं जिनका उनसे दूर-दूर तक का संबंध नहीं है। नमूना के तौर पर ‛हुंकार हूँ, हुंकार हूँ/सिमरिया का भूमिहार हूँ।’ इन पंक्तियों को सुनकर स्वयं दिनकर भी अपना सिर पिट लेते!

सन् 1961 ई. में किन्हीं रामसागर चौधरी को उनके पत्र के जवाब में लिखे दिनकर का पत्र पढ़कर दिनकर के नाम पर जातीय ध्रुवीकरण की राजनीति करने वालों के पांव के नीचे से जमीन खिसक जाएगी: ‛प्रिय रामसागर चौधरी जी, सच ही, मैं आपको नहीं जानता ….अगर आप भूमिहार-वंश में जनमे या मैं जनमा तो यह काम हमने अपनी इच्‍छा से तो नहीं किया, उसी प्रकार जो लोग दूसरी जातियों में जनमते हैं, उनका भी अपने जन्‍म पर अधिकार नहीं होता। हमारे वश की बात यह है कि भूमिहार होकर भी हम गुण केवल भूमिहारों में ही नहीं देखें।’ दिनकर जातिवाद के विरुद्ध थे। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध काव्य-कृति ‛रश्मिरथी’ में जाति-गोत्र की सत्ता को नकारते हुए ज्ञान और योग्यता के महत्व को स्थापित किया है।जाति-भेद के कारण सदियों से समाज में उपेक्षित कर्ण को पहली बार दिनकर की वजह से ‛रश्मिरथी’ में उसकी योग्यता के आधार पर उसे ऊँचे आसन पर आसीन होने का अवसर मिला था। इस काव्य में न जाने कितनी बार ‛जाति’ शब्द का प्रयोग हुआ है और न जाने कितनी पंक्तियां जाति-व्यवस्था’ के विरोध में खर्च हुई हैं!

दिनकर को अपनाने को लेकर हिंदुत्ववादी शक्तियों के दावे बढ़े हैं। ऐसे में, हमें दिनकर के उन संदर्भों की पड़ताल करनी चाहिए जो हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को लेकर लिखे गये हैं। उन संदर्भों की पड़ताल के लिए उनकी सबसे उपयुक्त पुस्तक ‛संस्कृति के चार अध्याय’ है। इस पुस्तक का महत्व इसलिए भी है कि इसमें हिन्दू और इस्लाम के बीच के जटिल संबंधों की पड़ताल की गयी है। सबसे पहले कि इस्लाम धर्म के प्रति दिनकर की समझ क्या थी और वे हिंदुओं में इस्लाम की कैसी समझ विकसित करना चाहते थे? दिनकर के विचार हैं कि ‛हिन्दुओं को भी इस बात का ज्ञान प्राप्त करना है कि इस्लाम का भी अर्थ शांति-धर्म ही है।इस धर्म का मौलिक रूप अत्यंत तेजस्वी था तथा जिन लोगों ने इस्लाम की ओर से भारत पर अत्याचार किये, वे शुद्ध इस्लाम के प्रतिनिधि नहीं थे। दिनकर धर्म और राजनीति को अलग-अलग चीज समझते थे। वे मुस्लिम आक्रांताओं को इस्लाम का प्रतिनिधि नहीं मानते जबकि हिंदुत्ववादियों का सारा जोर उन आक्रांताओं के बहाने भारतीय मुसलमानों के प्रति हिंदुओं के मन में घृणा पैदा करने पर है।

दिनकर इतिहास की वस्तुनिष्ठता को अक्षुण्ण बनाए रखने के पक्षधर थे। जबकि हिंदुत्ववादियों का पूरा जोर ऐतिहासिक तथ्यों को गड्डमड्ड कर हिन्दू-मुस्लिम संबंधों में घृणा पैदा करने पर है। दिनकर हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए भी ऐतिहासिक तथ्यों में छेड़छाड़ के पक्षधर नहीं थे। वे ‛संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखते हैं कि ‛हिन्दू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए इतिहास की घटनाओं पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। न यही योग्य है कि हम इस्लाम पर पड़ने वाले हिन्दू प्रभाव अथवा हिंदुत्व पर पड़नेवाले मुस्लिम प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करें। जो बातें जैसी हैं, इतिहास में उनका वर्णन वैसा ही रहेगा।’ वे भारत में इस्लाम के आगमन को भारत के लिए एक सांस्कृतिक अध्याय के रूप में देखते हैं। इसमें इस्लाम ने हिन्दू जीवन को प्रभावित किया और हिन्दू जीवन ने इस्लाम को। हिन्दुत्ववादियों द्वारा बारबार भारतीय मुसलमानों को आक्रांता और हिन्दू धर्म का विरोधी बताया जाता है। जबकि दिनकर ने यहाँ ‛बाबर का वसीयतनामा’ के जरिए यह दिखाने की कोशिश की है कि बाबर ने हुमायूँ को इस देश में सारे धर्मों के साथ बराबरी का व्यवहार करने की शिक्षा दी थी। आज हिंदुत्ववादियों द्वारा उसी ‛बाबर’ के बहाने भारतीय मुसलमानों को ‛हिन्दू-विरोधी’ घोषित कर इनकी देशभक्ति पर सवाल खड़ा किया जा रहा है। उनसे राष्ट्रीयता का सबूत मांगा जा रहा है। दिनकर के जमाने में भी हिंदुत्ववादी कमोबेश यही कर रहे थे। संभवतः इसीलिए दिनकर ने अक़बर इलाहाबादी, चकबस्त, जोश मलीहाबादी, जमील मज़हरी, सागर निज़ामी और सीमाब अकबराबादी के लेखन को सामने लाकर दिखाया कि किस तरह इनकी रचनाओं में राष्ट्रीयता के स्वर मुखरित हुए हैं। दिनकर ने भारतीय मुसलमानों की राष्ट्रीयता पर संदेह करने के विचारों को खारिज किया था किंतु हिंदुत्ववादियों के कारनामों से भारतीय मुसलमानों को आज अपनी राष्ट्रीयता बचाने के लिए सड़कों पर प्रदर्शन करना पड़ रहा है।

दिनकर के संबंध में कुछ ऐसे भी मत हैं जिन पर बात करना जरूरी है। एक मत तो यह है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में दिनकर को वह स्थान नहीं मिल पाया, जिसके वे हक़दार थे। इसका कारण भी बताया जाता है कि वे कभी किसी साहित्यान्दोलन का हिस्सा नहीं रहे और अपनी राह पर एकला चलते रहे। इसी मत के साथ यह भी बात कही जाती है कि दिनकर को हिंदी के साहित्येतिहास में भले उपयुक्त स्थान नहीं मिला हो, परन्तु जनता के हृदय में उन्हें उच्च आसन प्राप्त है। यह बात पहले भी कही जा चुकी है कि निःसन्देह दिनकर जनता द्वारा सबसे अधिक उद्धृत किए जाने वाले हिंदी के आधुनिक कवियों में एक हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर हिंदी साहित्य के लगभग सभी इतिहास ग्रन्थों में उन्हें स्थान दिया गया है। शायद ही हिंदी के किसी साहित्येतिहास में उन्हें छोड़ दिया गया हो। जहाँ तक ‛उचित स्थान’ की बात है तो यह हमेशा से एक विवादास्पद विषय रहा है कि अमुक कवि या लेखक को अमुक इतिहास में कम जगह मिली है। यह विवाद न सिर्फ दिनकर के साथ जुड़ा हुआ है बल्कि कबीर और तुलसी आदि कवियों के साथ भी जुड़ा हुआ है। कभी-कभी प्रायोजित तरीके से भी इस प्रकार के तथ्यहीन आरोप इतिहासकारों पर लगाए जाते हैं। ऐसे में, पाठकों से रचनाकारों के पाठ को सामने रखकर साहित्येतिहास का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने की अपेक्षा बढ़ जाती हैं।

हिंदुत्ववादियों द्वारा जब से दिनकर को ‛लपकने’ का अभियान चलाया गया है तब से इनके कुछ लेखक गिरोह भी सक्रिय हुए हैं। इनका काम दिनकर की रचनात्मकता की पहचान करना नहीं है। इनका नियत काम दिनकर के बहाने विरोधी विचारधाराओं पर प्रहार करना है। ऐसे में, ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब भी ये अपनी विरोधी विचारधाराओं पर दिनकर के बहाने प्रहार करते हैं तब इनकी बातों में दिनकर के संदर्भ गायब रहते हैं या फिर ‛इस कोठी का माल उस कोठी में’ किया हुआ रहता है।जैसे झूठ के पांव नहीं होते, वैसे ही झूठ बोलने वालों के पास सन्दर्भ नहीं होते। इधर हिंदुत्ववादी लेखकों द्वारा यह प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है कि हिंदी के मार्क्सवादी आलोचक दिनकर के प्रति उदासीन रहे हैं। ऐसा आरोप लगाते हुए इन्हें बिहार के ही प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक खगेन्द्र ठाकुर की याद नहीं रही, जिन्होंने दिनकर पर वृहद कार्य के रूप में ‛रामधारी सिंह दिनकर: व्यक्तित्व और कृतित्व’ नाम की महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। संभव है कि दिनकर पर हिंदी के कुछ चर्चित मार्क्सवादी आलोचकों ने किताबें न लिखी हों, परन्तु दिनकर पर अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख व समीक्षाएं भरी पड़ी हैं। ऐसे दुष्प्रचारों का अंतिम लक्ष्य अपने राजनीतिक हितसाधन के लिए दिनकर के पाठक-वर्ग को गुमराह करना है।

हद तो इन हिंदुत्ववादी प्रचारकों की तब दिखाई पड़ती है जब ये यह तक लिखने पर उतर जाते हैं कि दिनकर से मार्क्सवादियों की खीझ पुरानी है। क्या दिनकर से मार्क्सवादियों की इस पुरानी खीझ का कोई संदर्भ है? दिनकर के सन्दर्भों के बगैर दिनकर पर हवाहवाई बात करने का क्या मतलब! मतलब है उनकी छवि को धूमिल करना और उनके पाठकों को गुमराह करना। जबकि दिनकर के साथ मार्क्सवादियों के अच्छे संबंधों के अनेक संदर्भ हैं। विदित है कि प्रगतिशील लेखक संघ का लक्ष्य मार्क्सवादी दृष्टि से साहित्य की रचना करना है। यह मार्क्सवादी लेखकों का सबसे पुराना संगठन है। 1944 ई. में पटना में आयोजित इसके प्रथम बिहार राज्य सम्मेलन में दिनकर न केवल शामिल थे बल्कि बतौर स्वागताध्यक्ष शामिल थे। इस सम्मेलन में उनके द्वारा दिया गया स्वागत भाषण उपलब्ध है। उस समय तक प्रयोगवाद नाम से एक नया काव्यान्दोलन सामने आ चुका था जिसके अगुआ अज्ञेय थे। प्रयोगवादी आंदोलन का समूचा जोर अनुभूतियों की कलात्मक अभिव्यक्ति पर था। दिनकर ने अपने स्वागत भाषण में प्रयोगवादी आंदोलन को आड़े हाथों लेते हुए कहा था कि ‛साहित्य की स्वाभाविक प्रक्रिया अनुभूतियों का ग्रहण और उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति है। लेकिन ऐसा दीखता है कि सारा विवाद इस अनुभूति को लेकर ही उपस्थित होता है। कुछ आलोचकों की राय में अनुभूति का अर्थ चिकने घने केशों, प्रेमी की आँखें, नदियों के प्रवाह और पर्वतों की शोभा, विरह, प्रेम तथा ईश्वर-परक भावों की होती है। क्योंकि ये भाव सार्वभौम तथा सार्वकालिक होते हैं। पेट की पीड़ा अथवा ठंढ से ठिठुरने वाली वेदना की अनुभूति, अनुभूति नहीं प्रचार है। प्रगतिवाद की राजनीतिप्रियता के कारण उसे संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।’ उसमें प्रगतिवाद के राजनीतिक दर्शन मार्क्सवाद का विरोध करने वाले प्रयोगवादियों की दिनकर ने जमकर आलोचना की थी। इसी भाषण में वे साहित्य की मार्क्सवादी दृष्टि के महत्व को स्थापित करते हुए लेखकों को सावधान करते हैं कि ‛साहित्य सोच ले कि उसे क्या करना है? क्या वह मानव-मन स्तरों पर अनुसंधान करने में अपनी शक्तियों का अपव्यय करेगा, क्लासिक और एकादमिक होकर रह जाएगा या उन लोगों के साथ चलेगा जो भविष्य के कोटर पर कब्जा करने जा रहे हैं।’ इन संदर्भों से सवाल बनते हैं कि यदि दिनकर से मार्क्सवादियों को खीझ होती तो क्या उन्हें प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम बिहार राज्य सम्मेलन का स्वागताध्यक्ष बनाया जाता? हिंदुत्ववादी शक्तियां तथ्यों के बगैर इधर मार्क्सवादियों को दिनकर का विरोधी घोषित करने में लगी हुई हैं और उधर दिनकर अपने विचारों से मार्क्सवादी साहित्य दृष्टि की महत्ता स्थापित करने में लगे हुए थे।

दिनकर के दृष्टिकोण को परस्पर दो ही विचारधाराओं के परिप्रेक्ष्य में रखकर समझा जा सकता है और ये दोनों विचारधाराएँ हिंदुत्ववाद के विरोधी हैं। उनके दृष्टिकोण का पहला ध्रुव है मार्क्सवाद और दूसरा ध्रुव गांधीवाद है। वे विचारधाराओं के इन्हीं दो ध्रुवों के बीच आजीवन आवाजाही करते रहे हैं। उनके सामने एक तरफ गांधी के सत्याग्रह आंदोलन और ब्रिटिश राज से होने वाले समझौते थे तो दूसरी तरफ भगत सिंह के क्रांतिकारी मार्क्सवादी विचार और उनके आमूलचूल परिवर्तन के पक्ष में होने वाले हस्तक्षेप थे। दिनकर के भीतर इनमें किसी एक के चुनाव को लेकर सदैव असमंजस बना रहा है। उनके असमंजस को उन्हीं के जरिए समझा जा सकता है- ‛अच्छे लगते मार्क्स, किंतु है अधिक प्रेम गांधी से/प्रिय है शीतल पवन, प्रेरणा लेता हूँ आंधी से।’ दिनकर ने स्वयं स्वीकार किया है कि उन्हें गांधी से प्रेम है और कार्ल मार्क्स उनकी प्रेरणा के स्रोत हैं। इसलिए उनमें गांधीवाद और मार्क्सवाद दोनों के तत्व हैं। उनमें गांधी के सत्य, अहिंसा और शांति से प्रेम भी है और कार्ल मार्क्स के साम्राज्यवाद विरोधी तथा सर्वहारा क्रांति के विचार भी हैं। इन्हीं दो विचारधाराओं के आधार पर वे भविष्य के स्वप्न देख रहे थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार लेते समय अपने वक्तव्य में उन्होंने अपनी प्रेरणाओं के श्रोत के संबंध में कहा था कि ‛जिस तरह मैं जवानी भर इक़बाल और रवींद्र के बीच झटके खाता रहा हूँ, उसी प्रकार मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूँ। इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है। मेरा विश्वास है कि अंततोगत्वा यही रंग भारत के भविष्य का रंग होगा।’

इसलिए दिनकर के पाठकों तथा आलोचकों को उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता की समझ को लेकर ऐसे समय में किसी प्रकार की दुविधा की गुंजाइश नहीं रखनी चाहिए। दिनकर पर हिंदुत्ववादी शक्तियों के दावे अंततः दिनकर पर उनके हमले हैं। इसलिए दिनकर के पाठकों और आलोचकों की तटस्थता के कारण उनकी एक ‛विराट कवि’ की छवि को नुकसान पहुँच रहा है। स्वयं दिनकर ‛तटस्थता’ के विरोधी थे।अतः उनकी वास्तविक पहचान को सुरक्षित बनाए रखने की दृष्टि से मजबूत हस्तक्षेप की जरूरत है।

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