सरोज कुमारी की तीन कविताएं

सरोज कुमारी की तीन कविताएं

सरोज कुमारी: एम.ए, एम.फिल, पी-एचडी (दिल्ली विश्वविद्यालय) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित। ‘निराला का गद्य साहित्य’, ‘राम की शक्तिपूजा का रचना-विधान’, ‘छायावादी कविता और राम की शक्तिपूजा’ और ‘स्त्री लेखन का दूसरा परिदृश्य’ पुस्तकें प्रकाशित। दिल्ली विश्वविद्यालय के विवेकानंद महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक।

दहलीज

दहलीज के भीतर
एक अदृश्य लक्ष्मण रेखा से बंधे मेरे पांव
सदियों से पी रहे हैं तालाबंदी का जहर

शब्द और अर्थ के ध्वनिविज्ञान से परे
मेरे होठों पर
बरसों से लगा दिए गए हैं मास्क
कहां, क्यों, कैसे के अंकगणित में फंसा मेरा जीवन
सदियों से रट रहा है तालाबंदी का गुणा-भाग

बोलो क्यों उदास हो तुम?
तालाबंद तुम्हारा पीतवर्णीय गात
भीतर तक रोमांचित कर रहा है मुझे
तुम्हारी सांसों की धीमी होती रफ्तार को महसूस कर रही हूँ मैं
तुम्हारी भाषा का व्याकरण अब बदल रहा है
पिंजरे के पंछी की भांति
तुम्हारा हृदय गिन रहा है अपनी हर धड़कन

आओ तुम भी
लॉकडाउन में रहने का असहनीय दर्द सहो
अभी रुको, मत करो अपने सूरज की तलाश सहगामी बनो इस अँधेरे के
कुछ दिन और रहो मेरे साथ
पिओ एक घूंट,एक बूंद जहर…

जिओ अपनी दुनिया से परे
मेरे भीतर की पीड़ा…।

नोटिस बोर्ड

कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर
तेरा, मेरा, उनका नाम नहीं
कभी-कभी एहसास होता है मुझे
थाने की बदरंग दीवार पर चस्पां
नोटिस
जिस पर लिखा होता है
गुमशुदा की तलाश

शायद हम भी अब गुमशुदा हो गए हैं
भूल गए हैं अपना रास्ता
अपने हक और अपनी उस तड़प को
जो खींचती थी हमें
कॉलेज की ओर
कभी आसमान में उड़ती
रंग-बिरंगा पतंग थे हम
लेकिन आज हमारी वह डोर
किसी विशालकाय
पेड़ की टहनियों में उलझ गई है

और हवा के थमते
हम लटक गए हैं
नीचे…और नीचे

मुझे मेरा नाम नहीं चाहिए
उस नोटिस बोर्ड पर
जिसपर सीधा-साधा भोला
अक्सर फटे-पुराने
भींगे कपड़े से पोंछ देता है
और
ढूंढता है
अपने सपने को
जो उन्हीं नये-पुराने
फड़फड़ाते कागजों में लिखे
नोटिसों के बीच
कहीं गुम हो गई है

डर है कि मैं
और मेरा वजूद
गुम न हो जाए
रोज-रोज बदलते
इन्हीं नोटिसों के बीच में…।

अविवाहित ‘माँ’

(1)
अविवाहित मां खिड़की के पास बैठी सुबह की चाय पी रही है। अचानक वह उठती है और तेजी से दौड़ती है, नीचे कमरे की ओर जहां उसकी किताबों की सेल्फ है। वह महादेवी वर्मा की किताब उठाती है, पन्नों को उलटते-पलटते हुए वहीं एकाग्र चित्त होकर बैठ जाती है।

(2)
अब वह अविवाहित माँ अपने परिवार से लड़ती है, समाज से, और खुद से भी। अपनी जीविका स्वयं कमाती है। अपना स्वास्थ्य स्वयं देखती है। अपना सारा काम खुद करती है। वह निहत्थी अपने भीतर कई तरह के हथियार रखती है और निकल जाती है अंधेरी सड़कों पर। घर, दफ्तर, अस्पताल की सीमाओं को लांघकर नाप लेती है सारा शहर।

(3)
अब अविवाहित मां अपने बच्चों को घुमाती है मॉल, बाजार, पार्क। हंसती है, गाती है, खिलखिलाती है। उनके स्कूल जाती है। बिना पुरुष के वह बहुत आसानी से निभा लेती है अपना धर्म।

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