ब्राह्मणवाद की कोख से पैदा हुए ‘नेपोटिज्म’ पर बहस कितना सच कितना फर्जी?

ब्राह्मणवाद की कोख से पैदा हुए ‘नेपोटिज्म’ पर बहस कितना सच कितना फर्जी?

देश की जनता को किसी मुद्दे से भटकाना हो तो कुछ खास तरह के शब्द या जुमले को हवा में उछाला जाता है। उन शब्दों का प्रभाव इतना मारक होता है कि जनता वास्तविक मुद्दे को भूल कर उस कृत्रिम शब्दावली में उलझ जाती है। इन दिनों सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या प्रकरण के बाद एक शब्द सबसे ज्यादा हवा में तैर रहा है- ‘नेपोटिज्म’। ‘नेपोटिज्म’ का हिंदी तर्जुमा है ‘भाई-भतीजावाद’। आए दिन इस भाई-भतीजावाद को लेकर लंबी बहस गूंज रही है। पिछले कुछ दिनों की बहस से यह निष्कर्ष निकला है कि नेपोटिज्म के कारण सुशांत ने अपनी जीवन-लीला समाप्त कर ली।

अब सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच नेपोटिज्म में इतनी शक्ति है कि सुशांत सिंह राजपूत जैसे अभिनेता को निगल जाए। याद रखा जाना चाहिए कि सुशांत एक कोरा अभिनेता नहीं था। न ही वह केवल एक डांसर था। वह एक करिश्माई दिमाग का मालिक था। जिसने दिल्ली स्कूल ऑफ इंजीनियर्स एंट्रेंस टेस्ट में सातवीं रैंक हासिल किया था। सिर्फ यही नहीं, सातवीं कक्षा में दसवीं की परीक्षा पास कर चुका था। फिजिक्स ओलंपियाड में गोल्ड मेडल जीत चुका था। इस बात की गंभीरता का अंदाजा उन्हें होगा जिसने आईआईटी और डीएसई जैसे इम्तिहानों के लिए दिन-रात परिश्रम किया, अन्ततः वह सफलता पाने से चूक गया हो।

चलिए फिर से उसी सवाल की ओर लौटते हैं। क्या सचमुच नेपोटिज्म ने सुशांत की जान ली? क्या यह आज हो रहा है या यह सदियों से हमारे समाज का हिस्सा रहा है? सचमुच कहा जाए तो भाई-भतीजावाद ब्राह्मणवाद की कोख से पैदा लिया है और ब्राह्मणवाद उस समय से अस्तित्व में है जबसे मानव सभ्यता ने एक समाज के भीतर खुद को सेट किया है। हर मां-बाप अपने बच्चों की खातिर कमाता है। सामान्य से सामान्य पिता के लिए यह बात एक लक्ष्य की तरह होती है कि हमने जो संघर्ष किया है, वह हमारी आने वाली पीढ़ी न करे। हमारे बच्चे को वह संघर्ष छू कर भी न गुजरे जो हमने खुद झेला है।

अब सवाल उठता है कि भाई-भतीजावाद में आखिर बुरा क्या है? कोई मां-बाप अपने बच्चों के लिए मेहनत करता है। अपना पेट काटकर इतनी पूंजी इकट्ठा करता है, जिससे उसके बेटे-बेटियों के सिर पर पक्का छत हो। कुछ धन-संपत्ति हो। जीने के लिए बुनियादी सुविधाएं हों। कुछ लोग अपनी मेहनत के बलबूते एक खास मुकाम हासिल कर लेते हैं। वैसे ही मेहनती मां-बाप के बच्चों के लिए कहा जाता है कि उनका बच्चा तो मुंह में चांदी का चम्मच लेकर जन्मा है। इसमें गलत क्या है? अब एक आदमी दिन-रात मेहनत कर जो चीजें हासिल करता है, वह अपने किसी पड़ोसी को दान कर आए यह कैसे मुमकिन है। इस बात की कल्पना किस आधार पर की जा सकती है? यदि ऐसे दो-चार प्रतिशत लोग अपवाद स्वरूप कर दें तो दुनिया में न इतना संघर्ष बचा होता, न इतनी जद्दोजहद होती। दो-चार पूंजीपति अपनी संपत्ति को बराबर-बराबर हिस्सों में बांट देते तो हर व्यक्ति लखपति हो जाता। लेकिन ऐसा स्वप्न देखना सच्चाई से मुंह फेरने जैसा है। दरअसल, संकट भाई भतीजावाद का नहीं है।

यदि संकट यह नहीं है तो इसे लेकर आए दिन इतनी आवाजें क्यों उठती रहती हैं? यह समस्या मानव सभ्यता के विकास से ही शुरू हो जाती है और अपने एक विशेष आकार में हमेशा बरकरार रहती है। भले यह समस्या गहरे रूप में राजनीति और सिनेमा में दिखायी पड़ती है लेकिन यह हर क्षेत्र में मौजूद है। क्या आज तक इस बात को लेकर किसी ने सवाल उठाया है कि धीरुभाई अंबानी ग्रुप का सीईओ उसके दोनों बेटे मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी ही क्यों हुए? क्या किसी ने पूछा कि वर्षों से टाटा-बिरला इतने अकूत संपति के मालिक कैसे हैं? क्या कभी किसी ने पूछा है कि धीरूभाई ने अपने सगे बेटे को अपनी संपत्ति पर अधिकार क्यों दिया? क्या कभी किसी ने पूछा है कि सुनील दत्त, राज कुमार, जितेन्द्र, अमिताभ बच्चन, शत्रुधन सिन्हा जैसे अभिनेताओं ने अपनी बेशुमार संपति का अधिकार केवल अपने बच्चों को ही क्यों दिया? कायदे से उन्हें अपनी संपत्ति मुंबई के किसी झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लाखों लोगों में बांट देना चाहिए! सच पूछिये तो यह बेतुका सवाल किसी रूप में एग्जिस्ट नहीं करता है।

‘नेपोटिज्म’ शब्द इस हद तक ‘यूज टू’ हो चुका है कि यह अपने भीतर किसी गम्भीर मुद्दे को दफन करने की हैसियत रखता है। समाज में प्रचलित ऐसे ही कुछ शब्द हमेशा से रहे हैं। मसलन आज देख लीजिए: हिंदुत्व, धर्म, कश्मीरी पंडित, पाकिस्तान, दलित, स्त्री, मुसलमान आदि वे शब्द हैं जो हमेशा से रहे हैं लेकिन आज इसका इस्तेमाल कर किसी भी जरूरी मुद्दे को दफना दिया जाता है। आज सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के लिए लोग भाई-भतीजावाद को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। आत्महत्या एक अलग प्रसंग है और भाई-भतीजावाद अलग। दोनों का एक दूसरे से कोई तालमेल नहीं है। गौर से देखने पर यह समझ में आने लगेगा कि सुशांत मामले में भाई-भतीजावाद का मुद्दा उन्हीं लोगों के द्वारा उठाया गया है जो उसी पेशे में पहले से जमे हुए हैं। सच पूछिये तो वालीवुड एक ऐसी जगह है जहां रिश्ते का कोई मतलब ही नहीं है। आपमें कुछ खास है तो टिक सकते हैं, नहीं है तो आपको बाहर जाना ही होगा। चाहे आपका बाप कोई भी हो। मां-बाप के नाम पर ही काम मिलता तो राजेन्द्र कुमार का बेटा कुमार गौरव को सुपर स्टार होना चाहिए। नूतन, राज कुमार, अमिताभ बच्चन जैसे अभिनय के जादूगरों के बच्चे कहाँ है आज, किसी को मालूम नहीं।

इस बात को बारीकी से समझ लेने की जरुरत है कि कोई सिनेमा से बाहर का आदमी या सामान्य आदमी सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर दुखी हो सकता है। दो-चार बूंद आंसू बहा सकता है। उसके बाद वह अपने काम धंधे और रोजमर्रा के भागमभाग में लिप्त हो जाता है। वाकई वह भूल जाता है कि इतने बड़े अभिनेता ने आत्महत्या कर ली। फिर उसी पेशे से संबंध रखने वाले कुछ लोग नेपॉटिजम पर सवाल खड़ा करते हैं। सामान्य लोगों को लगने लगता है कि आज जो कुछ हो रहा है, वह भाई-भतीजावाद के कारण हो रहा है। अब हर प्लेटफार्म पर इस शब्द के विरोध में लोग कमर कस लेते हैं। कुछ दिनों तक यह शब्द हवा में तैरता रहता है। फिर असली मुद्दा सिरे से गायब हो जाता है।

सवाल यहां फिर यह उठता है कि किन परिस्थितियों में सुशांत जैसा सफल अभिनेता ऐसा कदम उठा लेता है? यदि भाई-भतीजावाद इस घटना के जिम्मेदार नहीं है तो कौन जिम्मेदार है? दरअसल, इसके जिम्मेदार वह नक्सेस है जो हर क्षेत्र में होते हैं और कुछ मुठ्ठीभर लोग शक्तिशाली बने रहने की आकांक्षा पाले रहते हैं। उसमें न कोई भाई होता है न कोई भतीजा। वह एक तरह से ‘गिरोह’ होता है जिसका सदस्य कोई भी बन सकता है। ऐसे तथाकथित गिरोह के दरवाजे हर किसी के लिए खुले रहते हैं बल्कि सामान्य प्रतिभा के लोगों को भी अपने गिरोह में शामिल करने की होड़ मची रहती है।

अव्वल दर्जे के नक्कारे को भी गिरोह का सरदार अपने गिरोह में शामिल करने के लिए उतावला रहता है। तरह-तरह के लालच देकर अपनी ओर आकर्षित करता है। जो आदमी उस खास गिरोह का सदस्य बनकर उसमें शामिल हो जाता है उसके लिए नियम-कायदे कोई मायने नहीं रखता। उसे काम देने का रास्ता तैयार किया जाता है। यदि वह कम योग्य है तब भी कोई बात नहीं है। उस अयोग्य को ट्रेनिंग देकर योग्य बनाया जाता है। उसके लिए जी-तोड़ प्रयास किए जाते हैं। उसकी सफलता के लिए पटकथा तैयार की जाती है। और फिर वह अपने क्षेत्र में दक्ष हो जाता है और अपने गिरोह को मजबूती प्रदान करने लगता है। अगर कोई अपने गिरोह के नियमों का उल्लंघन करना शुरू कर देता है तो उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। उसके लिए हर रास्ते को बंद करने की कोशिश की जाती है। अपने संपर्कों, अपनी धाक के जरिए उसे दूसरे कामों से भी बाहर किया जाता है।

फर्मूला यह है कि या तो हमारा साथ कबूल करो। हमारे गैंग में शामिल हो जाओ वरना जाओ झाडू लगाओ अथवा फांसी के तख्ते पर झूल जाओ। हमारा समाज ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। हजारों उदाहरण ऐसे मिल जाएंगे कि एक वक्त तक जो चमक रहा था, अचानक उसकी चमक जादुई तरीके से फीकी पड़ गई। वह धीरे-धीरे अपने ही निपुणता को खोता चला जाता है। फिर आरोप लगता है कि फलाने ने नशे के चक्कर में अपना चमकता हुआ करियर बर्बाद कर लिया। फिर ‘नशा’ जैसा कोई शब्द हवा में तैरने लग जाता है। फिर असली गुनेहगार बच निकलता है।

सचमुच यदि विरोध करना है तो भाई-भतीजा जैसे फर्जी जुमले को अनदेखा कर इस प्रवृति को रेखांकित करने की जरूरत है। सुशांत वाले मामले में भी असल मुद्दा भाई भतीजावाद नहीं है। असल मुद्दा वह गिरोह है जो हर क्षेत्र में न केवल अस्तित्व में रहता है बल्कि बहुत प्रभावी तरीके से अपनी करतूतों को अंजाम देता रहता है।

-पंकज शर्मा (विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लेखन। कई वर्षों तक ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका के संपादन से जुड़े रहे। फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापन। विचार उनके निजी हैं।)

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