रामधारी सिंह दिनकर के दृष्टिकोण को परस्पर दो प्रमुख विचारधाराओं के परिप्रेक्ष्य में रखकर समझा जा सकता है। उनके दृष्टिकोण का पहला ध्रुव मार्क्सवाद है और दूसरा ध्रुव गांधीवाद है। वे विचारधाराओं के इन्हीं दो ध्रुवों के बीच आजीवन आवाजाही करते रहे हैं। अनेक अवसरों पर गांधी से उनकी असहमतियां भी प्रकट हुई हैं, इसलिए उनकी अनेक कविताओं में गांधी की तीखी आलोचनाएँ भी देखने के लिए मिलती हैं। 1930 ई. में नमक सत्याग्रह के जरिए गांधी ने ब्रिटिश हुकूमत पर एक भारी दबाव बनाया था। लेकिन उसके बाद जब 1931 ई. में वे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने चले गए तो अपेक्षाकृत युवा कवि दिनकर गांधी से नाराज होकर 1933 ई. में ‛हिमालय’ नामक कविता में गांधी के लिए यहाँ तक कह डाला- ‛रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ / जाने दे उसको स्वर्ग धीर/पर, फिरा हमें गांडीव-गदा/लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।’ तब दिनकर गांधी के सत्याग्रह की जरूरतों को सिरे से खारिज करते हुए भगत सिंह और चन्द्रशेखर आजाद की समाजवादी क्रांति के पक्ष में खड़े हो जाते हैं।
बावजूद इसके दिनकर में गांधी की विराटता के प्रति आकर्षण कभी कम नहीं हुआ। वे गांधी की विराटता से अभिभूत थे। 1947 में दिनकर की चार कविताओं का एक कव्य-संग्रह ‛बापू’ नाम से छपा। उसमें गांधी की विराटता के प्रति अगाध श्रद्धा व्यक्त करते हुए वे कहते हैं- ‛बापू मैं तेरा समयुगीन, है बात बड़ी, पर कहने दे / लघुता को भूल तनिक गरिमा के महासिंधु में बहने दे।’ दिनकर के लिए गांधी गरिमा के महासिंधु थे। क्योंकि वे एक ऐतिहासिक परिघटना के रूप में सत्य और अहिंसा के बल पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को न सिर्फ चुनौती दे रहे थे, बल्कि उसे शिकस्त भी दे रहे थे। दिनकर ने ‛बापू’ में लिखा था- ‛विस्मय है, जिस पर घोर लौह-पुरुषों का कोई बस न चला / उस गढ़ में कूदा दूध और मिट्टी का बना हुआ पुतला।’ किन्तु ‛बापू’ के प्रकाशन के छह महीने के भीतर दिनकर के ‛दूध और मिट्टी का बना हुआ पुतला’ धार्मिक उन्मादियों के हाथों मार दिया गया। गांधी की हत्या से दिनकर को बहुत गहरा आघात पहुँचा था।

महात्मा गांधी की हत्या के तत्काल बाद ‛बापू’ का दूसरा संस्करण छपा। इसमें दिनकर ने इन धार्मिक उन्मादियों को लताड़ लगाते हुए लिखा- ‛लिखता हूँ कुंभीपाक नरक के पीव कुण्ड में कलम बोर / बापू का हत्यारा पापी था कोई हिन्दू ही कठोर।’ गांधी की हत्या पर हिंदुत्ववादियों के विरुद्ध इतनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले कवि दिनकर ही थे!
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दिनकर की दृष्टि में एक तरफ गांधी के सत्याग्रह आंदोलन और ब्रिटिश राज से होने वाले समझौते थे तो दूसरी तरफ भगत सिंह के क्रांतिकारी मार्क्सवादी विचार और उनके आमूलचूल परिवर्तन के पक्ष में होने वाले हस्तक्षेप थे। दिनकर के भीतर इनमें किसी एक के चुनाव को लेकर सदैव असमंजस बना रहा है। उनके इस असमंजस को उन्हीं के शब्दों में समझा जा सकता है- ‛अच्छे लगते मार्क्स, किंतु है अधिक प्रेम गांधी से / प्रिय है शीतल पवन, प्रेरणा लेता हूँ आंधी से।’ दिनकर ने स्वयं स्वीकार किया है कि उन्हें गांधी से प्रेम है और कार्ल मार्क्स उनकी प्रेरणाओं के स्रोत हैं। इसलिए उनमें गांधीवाद और मार्क्सवाद दोनों के तत्व मौजूद हैं।
कार्ल मार्क्स और महात्मा गांधी में किसी एक को भी दरकिनार कर दिनकर के संपूर्ण परिप्रेक्ष्य को नहीं समझा जा सकता है। उनमें गांधी के सत्य, अहिंसा और शांति से प्रेम के तत्व भी हैं और कार्ल मार्क्स के साम्राज्यवाद विरोधी तथा सर्वहारा क्रांति के विचार भी हैं। इन्हीं दो विचारधाराओं के आधार पर वे भविष्य के स्वप्न देख रहे थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार लेते समय अपने वक्तव्य में उन्होंने अपनी प्रेरणाओं के श्रोत को स्वयं उद्घाटित करते हुए कहा था- “जिस तरह मैं जवानी भर इक़बाल और रवींद्र के बीच झटके खाता रहा हूँ, उसी प्रकार मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूँ। इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है। मेरा विश्वास है कि अंततोगत्वा यही रंग भारत के भविष्य का रंग होगा।”

दिनकर के विचारों पर मार्क्स और गांधी के अतिरिक्त महावीर, बुद्ध और जवाहरलाल नेहरू का भी गहरा असर था। महावीर के अनेकांतवाद से वे गहरे रूप में प्रभावित थे। बुद्ध ने स्थापित वर्णाश्रम व्यवस्था के साथ वैदिक मान्यताओं को खारिज किया था और सत्य, अहिंसा, करुणा और प्रेम को सर्वोत्तम मानवीय मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित किया था। दिनकर बुद्ध के विचारों के इतने कायल थे कि वे चाहते थे कि भारत बुद्ध के रास्ते आगे बढ़े। 1955 ई. में ‛पंचशील’ पर आधारित जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति का समर्थन करते हुए ‛शांति की समस्या’ नामक एक लेख में दिनकर ने बल देकर कहा था कि ‛आनेवाला विश्व सिकन्दर और हिटलर का विश्व नहीं, बुद्ध, ईसा, गांधी और जवाहर का संसार होगा।”
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दिनकर के पाठकों तथा आलोचकों को उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता की समझ को लेकर किसी दुविधा की बहुत गुंजाइश नहीं है। दिनकर पर मार्क्सवाद और गांधीवाद विरोधी शक्तियों के दावे अंततः दिनकर पर उनके हमले हैं। इसलिए ऐसे समय में दिनकर के पाठकों और आलोचकों की तटस्थता के कारण उनकी एक ‛विराट कवि’ की छवि को नुकसान पहुँच सकता है। स्वयं दिनकर ‛तटस्थता’ के विरोधी थे। अतः उनकी वास्तविक पहचान को सुरक्षित बनाये रखने की दृष्टि से एक मजबूत हस्तक्षेप की जरूरत है।
दिनकर हिंदी समाज में सबसे अधिक उद्धृत किये जाने वाले आधुनिक कवियों में एक हैं। उनकी कविताओं का बहुत बड़ा हिस्सा युद्ध के ख़िलाफ़ है। दिनकर अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद के कवि कदापि नहीं हैं। वे राष्ट्रीय अस्मिता के साथ पौरुष, प्रेम, शांति और सौंदर्य के कवि हैं।
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