मदर डे पर पढ़ें दिवंगत प्रेमरंजन भारती की कविता- माँ और मुक्ति

मदर डे पर पढ़ें दिवंगत प्रेमरंजन भारती की कविता- माँ और मुक्ति

दिवंगत प्रेमरंजन भारती विनोबा भावे विश्वविद्यालय में हिंदी विषय के असिस्टेंट प्रोफेसर थे। बीते दिनों कोरोना के कारण अकाल मृत्यु के शिकार हो गए। हिंदी साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी। समकालीन युवा कविता के उभरते हुए हस्ताक्षर। मदर डे पर उनकी दो कविताएं यहां प्रस्तुत कर रहे हैं-

माँ

माँ हो तुम!
माँ हो तुम यहीं आस-पास
सहसा याद आ जाती हो तुम।
गई हो जब से तुम
दब-सा गया है व्यक्तित्व मेरा,
खंड-खंड में
बट-सा गया है, जीवन मेरा।
दब-सी गई है, जिज्ञासा मेरी
पर कहीं आज भी हो, कहीं-न-कहीं
माँ तुम हो यहीं आस-पास साथ मेरे!
हारने लगती हूँ जब कभी हिम्मत से।
डरने लगती हूँ जब कभी कुदरत से।
पता नहीं सहसा! याद आ जाती हो तुम,
माँ हो तुम यहीं आस-पास।
रहती हो सदा मेरे साथ,
हर पल, हर क्षण, अहर्निश
महसूस करती हूँ तुम्हें।
उपलब्धियों और सफलता के स्वर्णिम क्षणों में
ढूंढती आंखें अनायास तुम्हें ही
करती महसूस कहीं-न-कहीं
किसी-न-किसी रूप में
देख रही हो।
सोचकर ऐसा दूर से ही
पा जाती हूँ, आशीष तुम्हारा।
प्रफुल्लित चित्त और शांत मन
फिर कह उठता सहसा!
माँ हो तुम यहीं आसपास
माँ हो तुम यहीं आसपास।

मदर डे पर पढ़ें दिवंगत प्रेमरंजन भारती की कविता- माँ और मुक्ति

मुक्ति

हंसता खिलखिलाता देख बेटियों का मुख,
पत्नी ने कहा
बच्चियों को अनाथ कर
मरूंगी नहीं मैं,
क्योंकि बिन माँ की
बच्चियों के गम और सूनापन का
दंश झेल चुकी हूँ।
पर मन का विश्वास
जिजीविषा
शायद
मस्तिष्क क्षय रोग के सम्मुख
तिल-तिल, क्षण-प्रतिक्षण
करता रहा प्रतिरोध
भयंकर।

शायद प्रतिरोध का स्वर
होता था जितना मुखर
शरीर का साथ न था उतना सुखकर,
पर, प्रकृति से
पार, पाया है कौन भला?
मृत्यु ,मौन रूप धरकर
आहिस्ता आहिस्ता
बड़ी खामोशी से पास आते गई
एक झटके में साथ ले गई होती शायद,
पर हुआ बिलकुल उलट!

पहले चेतना हुई शून्य,
सब कुछ स्थिर
हाथ-पैर, पूरा शरीर
और तो और
खामोश हो गए जुबान और
छिड़ गई जंग कमबख्त कोमा से।
शायद थी वह
मृत्यु के पहले की खामोशी।

अब सामने थी
चेतना शून्य, अभिव्यक्ति रहित
पत्नी
मृत्यु शय्या पर पड़ी
अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर
आँखें खुली किंतु चलायमान,
जिस में रहते थे निरंतर
असंख्य अरमान।

कहना चाहती थी मुझसे
बहुत कुछ….
संभवतः
बेटियों के बारे में, संभावित जीवन
और न जाने क्या-क्या!
सोचता,
सब कुछ जाए पर रह जाए शेष
जुबान
ताकि भीतर का तूफान
निकल जाए सही दिशा में।
पर हुआ ऐसा कुछ भी नहीं

मृत्यु शय्या….
पर चलता रहा संघर्ष निरंतर
जीवन से उम्मीदों और आशाओं से।
मृत्यु को इतने करीब
और खामोशी से देखा था
पहली बार।
एक दिन, दो दिन, दो हफ्ते नहीं
पूरे दो माह
भयानक संत्रास, पीड़ा
बेचैन मन ने देखा,
प्रिया को अस्पताल की मृत्यु शय्या पर,
तिल-तिल क्षण-प्रतिक्षण
मौत के करीब जाते।

सारी मनौती, मन्नत, दुआ, पूजा-अर्चन
सभी के सभी निष्फल।
मृत्यु शय्या पर अचेत पड़ा
देखा प्रिया को,
आखिर कब तक बांध रखूँ धैर्य व धीर
अब होने लगा मैं भी अधीर
अपनी बेबसी और लाचारी से
कदापि नहीं।
प्रिया की मर्मांतक पीड़ा और खामोशी से
बार-बार, मन ही मन
ईश्वर को करता रहा स्मरण
पत्नी को जीवन जंग जीतने की नहीं
अपितु शरीर से आत्मा की मुक्ति की
आत्मा जो बांध रखा था प्रिया को
मुझसे, स्वजन, हित कुटुंबों से
समझ लिया था सबों ने
शायद कि
अब और अधिक शेष बचे नहीं
दिन प्रिया के।
मन ही मन सबों ने,
मना लिया स्वयं को
और तैयार हो गए
अंतिम विदाई को।

मन ही मन किया स्मरण
पुरखों को, बड़ों को, ईश्वर को
बच्चों को
और शायद सबसे अधिक
अपने नेक कर्मों को।
मन, वचन और कर्म से
संकल्पित हो,
मांगा पूरी शक्ति और भक्ति से
प्रिया के शरीर से आत्मा की मुक्ति
सिर्फ और सिर्फ
मुक्ति!

[दिवंगत पत्नी के प्रति]

-प्रेम रंजन भारती

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