मीरा मेघमाला की कविताएँ: सुगंध की गलियाँ, एक शव संस्कार, रोशनी और संगमरमर की कब्र

मीरा मेघमाला की कविताएँ: सुगंध की गलियाँ, एक शव संस्कार, रोशनी और संगमरमर की कब्र

मीरा मेघमाला मैसूर यूनिवर्सिटी से इतिहास में एम.ए.। इनकी कन्नड़, कोंकणी और हिन्दी में कविता, कहानी और लेख कई पत्र-पत्रिकाओं और वेब पोर्टल में प्रकाशित। इन्होंने कन्नड़ साहित्य क्षेत्र में ‘कादम्बिनी रावी’ नाम से 2014 से लिखना शुरू किया। इनके ‘हलगे मत्तु मेदुबेरळु’, ‘काव्य कुसुम’, ‘कल्लेदेय मेले कूत हक्कि’ कविता संकलन प्रकाशित। फिलहाल, कर्नाटक में महिला और बाल विकास डिपार्टमेंट में कार्यरत हैं।

सुगंध की गलियाँ

मीरा मेघमाला की कविताएँ: सुगंध की गलियाँ, एक शव संस्कार, रोशनी और संगमरमर की कब्र

सांझ के समय
उन सुगंध के गलियारों में से
होकर गुज़रती हूँ तो
एक कविता आँखों में चिपकती है।

पेट पर लात मारते हुए
सूखा थन चूसता दुधमुँहा बच्चा
खिलौने की ज़िद करता
पीट पर लटक कर रोता हुआ पोता
ऊंची शिक्षा की उम्मीद लेकर
छाती पर बैठी कालेज जानेवाली बेटी
बाइक की मांग करके
सर चढ़कर नाचता उतावला बेटा
बेवक़्त हवस बाहों में निचोड़ता पति
नोच-नोचकर खाने वाली बीमारियाँ
क्षुधा बाधा से चीखता छेद तल का उदर
चिंताओं से घेरी इंद्रियाँ
अकाल जैसे सूखी आँखें

और
तेज़ी से चमेली के कलियों को
धागे में गूंथने वाली चतुर उंगलियां
घर-घर के आंगन में…

और इस तरह
सांझ के समय
उस सुगंध की गलियारों में से
होकर गुजरते वक़्त
एक कविता आँखों से उतर कर
दिल में चुभ जाती है
और आँखें नम हो जाती हैं।

एक शव संस्कार

मीरा मेघमाला की कविताएँ: सुगंध की गलियाँ, एक शव संस्कार, रोशनी और संगमरमर की कब्र

वो बृहत कंपनियों का मालिक था
हवाई जहाज़ों में घूमता-फिरता था
स्टार होटलों में खाता था
राजमहलों जैसे बंगलों में रहता था
इतना बड़ा आदमी
एक दिन अकस्मात
खेल रही एक छोटी-सी बिल्ली से
टकरा कर गिरा और मर गया।

मेज़ पर
छोटे से कांच के बर्तन में
दो सुंदर मछलियां
अपनी खूबसूरत पूंछ को
हिलाते-झुलाते खेल रही हैं।
होंटों पर सिगरेट चिपका कर
वो जब भी उन्हें देखता था
उसे यही लगता था कि
वो उसका मनोरंजन कर रही हैं।
मछलियां तो अब भी पूंछ हिला रही हैं
ऐसा लग रहा है कि
मालिक की मृत्यु की हंसी उड़ा रही हैं!

पति के जनाज़े के पास
सफेद कपड़ो में मौन-म्लान
बैठे हैं पत्नी और बच्चे।
उनको देखते ही काम वाली बाई
यादों में खो गई।
अपने पति के मृत्यु में
वो जोर-जोर से चीखी थी,
चिल्ला-चिल्ला कर रोई थी,
बार-बार बेहोश गिर पड़ी थी
वह सब कुछ याद करके
एकाएक शर्माने लगी।

शव पर सज रहे
गुलाब, सेवती, चंपक, चमेली
इन फूलों का अहंकार तो देखिए
शहर के बड़े आदमी के
मृत्यु के लिए
रत्तीभर दुःख प्रकट करने के बजाए
खिलकर हंस रहे हैं!

शव संस्कार की शाम,
चंदन की लकड़ियों पर रक्खे शव को
आग की शिखाएँ चाटने लगीं।
मृत्यु की सुगंध लेपित कहानियाँ
तूफ़ान की तरह शहर में घुसने लगीं।

रोशनी

जब मुझे पता चला कि
तुम मुझ में
रोशनी बन कर बह रहे हो
मैं एक खिड़की बनी।

समय सरकते सरकते
अपने छोटेपन का
एहसास होने लगा था मुझे
और शर्म से मुरझाई मैं
सलाखों को उतार कर
शीशा बन गई।

अब तुम
कड़ी बिजली बनकर
तोड़ देना मुझे।
तुम्हारी रोशनी को
अँकवारने के खातिर
सीना खोलकर लेटा हुआ
एक मैदान बनना चाहती हूँ मैं।

संगमरमर की कब्र

मीरा मेघमाला की कविताएँ: सुगंध की गलियाँ, एक शव संस्कार, रोशनी और संगमरमर की कब्र

मेरे पापा दिन भर
घर के सामने रही सिमिट्री में
कब्रों के इर्द-गिर्द
समय बिताते रहते थे।
और एक दिन वहीं उनकी कब्र बनीं।
मेरी जानकारी के अनुसार
पापा के सीने में
एक शानदार राजमहल था
उसके सिंहासन पर
मै थी इकलौती राजकुमारी।

घर की छत पर खड़ी होती हूँ तो
दिखने लगती है
सफ़ेद संगमरमर से बनी
पापा की सुन्दर कब्र।
और उस पर लिटाकर रखी गई
पापा की एक तस्वीर
पापा हंस रहे हैं
क्या वह यही कह रहे हैं
कि मैं अंदर कहाँ हूं?

भाई ने बनवाई पापा की
सफेद संगमरमर की सुन्दर कब्र पर
मेरी कविता की दो पंक्तियाँ!
‘बच्चों ने पिता की कब्र बनवाने में
ना जाने कितनी मेहनत की।’
गाँव वालों की तारीफ के पुल!
कितना अच्छा होता
कि गाँव वाले यह पूछते,
‘कितनी मेहनत की बच्चों ने
अपने पिता को
मरने से बचाने में!’

मरने से ठीक एक दिन पहले
पापा ने कहा था कि
‘मुझे तुम्हारे पास ले चलो!’
अब यही बात हर दिन
मैं पापा से कहती हूँ
पापा इनकार कर देते हैं
मेरे पापा मेरी ही तरह बहुत जिद्दी हैं।

पापा की कब्र के पास जाते वक़्त भी
फूल चढ़ा कर
घुटनों पर बैठकर
पापा का ध्यान करते वक़्त भी
और सिमिट्री से
वापस घर लौटते वक्त भी
यही लगता है कि
पापा ही मेरी उंगली पकड़ कर
चल रहें हैं मेरे साथ साथ!

-मीरा मेघमाला


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