‘शोले’ के बाद अमजद खान ने फिर कभी सलीम-जावेद की जोड़ी के साथ काम क्यों नहीं किया?

‘शोले’ के बाद अमजद खान ने फिर कभी सलीम-जावेद की जोड़ी के साथ काम क्यों नहीं किया?

यह दास्तान है ‘दो इनकार’ की। जो अगर नहीं की जातीं, तो शायद बॉलीवुड का एक अलग नक्शा होता। और यह भी हो सकता है कि निगेटिव किरदारों में वह रुझान नहीं आते जो एक विलेन के रूप में देखने को मिलते हैं। शायद वह डर और दहशत दर्शक महसूस नहीं कर पाते जो खलनायक को देखने के बाद पैदा होता है।

इस ‘इनकार’ से पहले, कई अभिनेताओं ने निगेटिव किरदार निभाए पर अपनी एक अलग पहचान बना पाने में कामयब नहीं हो सके। दो से तीन तरह के निगेटिव कैरेक्टर थीम उससे पहले रिपीट हो रहे थे। पहले ‘इनकार’ से पहले, आइए जानते हैं दूसरे ‘इनकार’ की कहानी।

यह दृश्य था निर्देशक रमेश सिप्पी के दफ्तर का जहां, उनके सामने उनके स्क्रिप्ट राइटर सलीम-जावेद बैठे थे। दोनों के चेहरे पर परेशानी साफ छलक रही थी। रमेश सिप्पी चुपचाप टकटकी लगाए उन दोनों को देख रहे थे। जावेद अख्तर ने गले की खरास दूर करते हुए कहा- “मेरा ख्याल है कि आप अमजद की जगह किसी और को ले लीजिए।”

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सलीम खान ने भी जावेद की बातों पर हामी भरी और कहा- “बिलकुल! क्योंकि जिस तरह के दमदार किरदार है उसके मुताबिक, अमजद की आवाज मेल नहीं खा रही है।” इससे पहले दोनों ने ‘जंजीर’ और ‘दीवर’ की कहानी और डायलॉग लिखकर खुद को मनवा चुके थे और उनलोगों की बातों में वजन भी था।

जावेद अख्तर ने सलीम खान की ओर देखते हुए कहा, “माना कि हमने अमजद की सिफारिश की थी, लेकिन अब हमें अपने फैसले पर संदेह है।” सलीम खान ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, “सिर्फ एक यह किरदार कमजोर हुआ, तो पूरी फिल्म बैठ जाएगी, बल्कि हमारी साख भी दांव पर लग जाएगी।”

दोनों कहानीकार बोलते जा रहे थे और रमेश सिप्पी उनकी बातों को बड़ी दिलचस्पी से सुन रहे थे। आखिर में, वह अपनी कुर्सी पर सिर टेक कर मुस्कुराए और बोले, “आपको इस नए लड़के के परफॉरमेंस पर भरोसा क्यों नहीं है?” जहां कमजोरी या खामी की बात है तो हम उसे दूर भी तो कर सकते हैं।”

जावेद अख्तर ने अटक-अटक कर बोलना शुरू किया, “दरअसल, अब तक हमने जो शुटिंग देखी है, उसमें हम अमजद की परफॉरमेंस से हम मुतमइन नहीं हो पा रहे हैं। वह दबदबा और दहशत जो इस किरदार के लिए जरूरी है वह अब तक अमजद की तरफ से हमें देखने को नहीं मिली है।”

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रमेश सिप्पी अपनी कुर्सी से उठे और दोनों के सामने आकर खड़े हो गए। और बोले, “घबराओ नहीं, यही किरदार फिल्म की पहचान बनेगी। मैं किसी भी सुरत इस किरदार के लिए अब किसी और का चुनाव नहीं करूंगा।”

यह इनकार रमेश सिप्पी की तरफ से किया गया था और उनकी बातें सच साबित हुईं कि यह किरदार फिल्म की पहचान बनेगा। क्योंकि 1975 में जब ‘शोले’ रिलीज हुई थी, तो एक तरफ जहां फिल्म ने हर तरफ आग लगा दी, वहीं दूसरी तरफ अमजद खान का किरदार ‘गब्बर सिंह’ खौफ और दहशत का प्रयाय बन गया। अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र और संजीव कुमार जैसे बड़े सुपरस्टार्स की फिल्म में होने के बावजूद यह फिल्म अमजद खान की फिल्म कहलाई। और जब भी गब्बर पर्दे पर आता देखने वालों के चेहले पर खौफ उभर आता।

सलीम-जावेद ने अमजद की आवाज को निशाना बनाया, था, लेकिन अमजद खान का लब-ओ-लहजा आने वाले दशकों में एक मिसाल बन गया। गब्बर के डायलॉग्स ‘कितने आदमी थे? , ‘कालिया तेरा क्या होगा’, ‘सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा’, ‘सरकार ने हम पर कितने इनाम रखे हैं?’; हर तरफ अमजद के ही अंदाज में बोल रहा होता।

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जरा कल्पना कीजिए कि फिल्म में नौ सीन और यहीं सीन फिल्म की जान बन गए। ‘शोले’ को रिलीज हुए 45 साल बीत गए हैं पर आज भी वह गब्बर सिंह की फिल्म कहलाती है।

यह कहना ग़लत न होगा कि अमजद खान तक सलीम-जावेद की वो बातें पहुंच गई थीं जिस पर उन्होंने शक जताया था। सलीम-जावेद को अमजद ने ग़लत साबित करने के लिए अथक मेहनत किया और अपनी आवाज के उतार-चढ़ाव को काबू में किया। उन्होंने ये भी जानने की कोशिश की कि डाकुओं के चेहरे और आवाज में कैसा अंदाज और आतंक होता है। उन्होंने लुटेरों के लहजे को भी बखूबी पकड़ा। इसके लिए उन्होंने जया बच्चन के पिता का उपन्यास पढ़ा जो उन्होंने चंबल के डाकुओं पर लिखी थी।

अमजद खान ने सलीम-जावेद पर फतह तो हासिल कर ली पर उन्होंने उसके बाद ऐसे रायटर के साथ काम नहीं करने का फैसला किया, जिन्हें अपने अभिनेता पर भरोसा नहीं हो। यही वजह है कि अमजद खान ने ‘शोला’ के बाद किसी और फिल्म में सलीम-जावद की जोड़ी के साथ कभी काम नहीं किया।

कितनी अजीब बात है कि गब्बर सिंह को एक नई पहचान देने वाले अमजद खान को उस समय एक करोड़ में बनी ‘शोले’ में काम करने के लिए सिर्फ 10,000 रुपये दिए गए थे। और उन्होंने उसे हँसी-खुशी कबूल भी किया था। क्यों कि वह जानते थे कि यह किरदार एक लॉटरी की तरह हैं जो लग गया तो फिर पैसों की बारिश होगी।

और अब आइए पहले ‘इनकार’ की कहानी को जान लेते हैं। मुमकिन है कि अमजद खान कभी गुब्बर सिंह नहीं बनते अगर फिरोज़ खान ने डैनी को अपनी फिल्म ‘धर्मा’ के साथ-साथ ‘शोले’ में काम करने की इजाजत देने से ‘इनकार’ नह की होती। अगर ऐसा होता, तो मुनासिब था कि अमजद खान अपने पिता जयंत यानी जकारिया खान और भाई इम्तियाज खान की तरह भारतीय फिल्मों के एक औसत खलनायक बनकर रह जाते। वह कहते हैं न कि प्रतिभा को दिखाने के लिए मौके जरूरत होती है। मौका नहीं तो टैलेंट का वजूद नहीं।

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यह भी हो सकता था कि अगर रमेश सिप्पी ने सलीम-जावेद की बातों पर भरोसा कर लिया होता और अमजद खान को फिल्म से बाहर निकाल दूसरे कलाकार, जो इस भूमिका चाह रखते थे, को ले लिया होता तो वो गब्बर सिंह कहलाते और अमजद खान कभी अमजद खान नहीं बन पाते।

क्या यह एक छोटी कामयाबी नहीं थी कि बिस्किट के इस्तेहार में नायक और नायिका के बजाय गब्बर सिंह को दिखाया गया था? दर-हकीकत यह सलीम-जावेद की आपत्तियों और चिंताओं का भरपूर जवाब था; कि अमजद खान ने आगे चलकर गब्बर सिंह की भूमिका तक खुद को महदूद नहीं किया। आने वाले दिनों में, उन्होंने ‘खुन-पसीना’, ‘कालिया’, ‘देशप्रेमी’, ‘नसीब’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘सुहाग’, ‘सत्ते पे सत्ता’ और ‘राम बलराम’ में निगेटिव रोल निभाए पर सभी एक-दूसरे से बिल्कुल अलग। इन भूमिकाओं ने उनके अभिनय में एक नया आयाम जोड़ा।

उसी तरह भला कौन भूल सकता है सत्यजीत रे की फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ को, जो ‘शोल’ की स्क्रीनिंग के बाद, दो सालों तक सिनेमाघरों में लगी रही। अमजद खान ने फिल्म में ‘वाजिद अली शाह’ की भूमिका क्या खूब निभाई। उसी तरह ‘क़ुर्बानी’ के इंस्पेक्टर खान, ‘चमेली की शादी’ का वकील हरीश या ‘माला माल’ और ‘हिम्मतवाला’ के हल्के-फुल्के हास्य कलाकार को भला कौन भूल सकता है।

लेकिन बहुत जल्द वह मनहूस दिन भी आया जब गब्बर दुनिया को अलविदा कह गया। वो 1986 में एक कार हादसे के शिकार हुए पर उन्होंने मौत को चकमा दे दिया। लेकिन दवाओं के लगातार इस्तेमान ने उनके वजन को बढ़ाना जारी रखा। इस मोटापे के कारण, वह फिल्मों से दूर हो गए और फिर 27 जुलाई, 1992 को वह बीमार पड़े और हमेशा के लिए सो गए।


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