मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के बीच आखिर 3 सालों तक बातचीत क्यों बंद रही?

मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के बीच आखिर 3 सालों तक बातचीत क्यों बंद रही?

एक 1961 की ठंड दोपहर, जब मोहम्मद रफी फिल्म ‘माया’ के लिए एक गीत रिकॉर्ड करने पहुंचे, तो लता मंगेशकर और संगीतकार सलिल चौधरी उनका इंतजार कर रहे थे। यह दो गाना था जो रफी-लता की आवाज़ में देव आनंद और माला सिन्हा के लिए गाया जाने वाला था। सलिल चौधरी की मधुर धुन पर मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गाने का मुखड़ा था- ‘तस्वीर तेरा जिस दिन से उतारी है…‘।

लेकिन रिकॉर्डिंग के दौरान, रफी साहब को एक अंतरे में बार-बार कठिनाई हो रही थी। जब 11 री-टैक्स किए गए, तो लता ने गुस्से में सलिल दा से कहा कि अगर रिकॉर्डिंग को स्थगित कर दी जाए तो बेहतर है, मैं बार-बार नहीं गा सकती। उनकी यह बात सलिल दा को भी नागवार गुजरी। पूरी यूनिट के सामने रफी ​​साहब चुपचाप बेबसी की तस्वीर बने खड़े रहे। सलिल दा ने गुस्से में अपना सिर झटकते हुए लता से कहा, “चलो एक कोशिश और कर लेते हैं।” और इस तरह बारहवीं बार गाना रिकॉर्ड हो गया है।

पर सलिल दा फिर भी संतुष्ट नहीं थे लेकिन जैसा भी था उन्हें संतोष करना पड़ा। लता को गाने में इसलिए भी आसानी हुई क्योंकि उन्होंने एक साल पहले ही उसी धुन को बंगाली में रिकॉर्ड किया था।

मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के बीच आखिर 3 सालों तक बातचीत क्यों बंद रही?

फिल्मी दुनिया में ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। उस समय, रिकॉर्डिंग की इतनी सुविधाएं नहीं थीं जितनी आज है। इसलिए अक्सर सिंगरों गाने के लिए कलाकारों को एक साथ रिकॉर्ड करना पड़ता था। इसलिए सिंगर्स को रिकॉर्डिंग के दौरान ऐसी परेशानियों से गुजरना होता था। कभी-कभी किसी गीत का धुन स्वाभाविक रूप से किसी की आवाज में अधिक अच्छा लगता था। अगर आप रफी और लता के कुछ गानों गौर से सुने तो आप पाएंगे कि रफी को बहुत आसानी से गाते हुए आगे बढ़ते नजर आते हैं तो कभी लता। लेकिन गाने की रिकॉर्डिंग के दौरान ऐसा नागवार सलूक, जिसमें अपमान का पहलू भी छुपा था, शायद ही कभी पहले देखने को मिला था।

रफी साहब का दिल सलिल चौधरी के रवैये से ज्यादा टूटा जिन्होंने कभी भी अपने बंगाली गुरु अनिल विश्वास की तरह उन पर भरोसा नहीं किया था। यह एक दिन की घटना नहीं थी, बल्कि अंदर-ही-अंदर पक रहे लावा की तरह था, जो गानों की रॉयल्टी की को लेकर रफी और लता के दरम्यान शुरू हुआ था।

उस वक्त फिल्मों में बजने वाले गानों के एलपी रिकॉर्ड बनते थे जो ग्रामोफोन की मदद से बजते थे। जिस तरह एलपी रिकॉर्ड बिकते थे उसका 10 फीसद हिस्सा फिल्म निर्माताओं को दिए जाते थे। 1950 के दशक की दहाई में नौशाद, सी. रामचंद्र और शंकर जय किशन कुछ ऐसे संगीतकार थे, जिन्होंने अपने काम और नाम के बल पर फिल्म निर्माताओं को मजबूर कर दिया था कि लिए जाने वाले दस में से पांच फीसद रकम को उन्हें दें।

मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के बीच आखिर 3 सालों तक बातचीत क्यों बंद रही?
लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ रफी और लता (फोटो क्रेडिट- लक्ष्मी कांत प्यारेलाल.कॉम)

बाद में, ओ.पी. नैय्यर ने तो कमाल ही कर दिया। उन्होंने प्रोड्यूसर्स से सभी रॉयल्टी का 10 फीसद देने पर मजबूर कर दिया। तब बॉलीवुड में मोहम्मद और रफी लता की आवाज़ का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था। दोनों के रिकॉर्ड बेहद मशहूर हो रहे थे। लता को ख्याल आया कि हमारी आवाज़ का रिज्क़ निर्माता और संगीतकार खाए जा रहे हैं और हम चुप्पी साधे बैठे हैं। लता ने मुकेश, तलत महमूद, मानाडे और गीता दत्त से अलग-अलग मुलाकात की और उन्हें 2.5 प्रतिशत रॉयल्टी की मांग रखने की बात रखी और वे सभी राजी हो गए।

अब सबसे अहम कदम था रफी साहब को मना लेना। जब इस मामले को रफी साहब के सामने रखा गया, तो उन्होंने साफ तौर पर कह दिया कि जब हमने अपनी पसंद की रकम लेकर गाना रिकॉर्ड कर दिया तो उस गाने से हमारा कोई लेना-देना नहीं। अगर वह सफल होता है, तो उसका फायदा निर्माताओं और संगीतकारों को जाना चाहिए, क्योंकि उन्हें ही विफलता का नुकसान उठाना पड़ता है।

जब लता अपनी मुहिम में सफल होती न दिखी, तो उन्होंने चुप्पी साध ली। लेकिन दिल-ही-दिल में उन्होंने इसका मलाल पाल लिया। जब उस दिन रफी ने री-टैक पर री-टैक लिया तो उनके अंदर पक रहा लावा फूटकर बाहर फूट पड़ा।

एक दिन मुकेश लता को अपनी कार में बिठा कर उन्हें मरीन ड्राइव ले गए और कहने लगे, “दीदी, रफी साहब बहुत ही सीधे इंसान हैं, उनके जो भी दिल में होता है जुबान पर होता है। असली मसला बाकी लोगों का है जिनकी गुटरगूँ हमारे सामने कुछ और होता हैं और प्रोड्यूसरों के सामने कुछ और।”

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बाएं से दाएं: तलत महमूद, मुकेश, लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी और मन्ना डे (फोटो सोर्स: नियोगी बुक्स)

लता ने कहा, “इसका एक ही हल है सबलोगों के बुलाया जाए और एक जगह पर बैठकर फैसला कर लिया जाए। और सभी के दस्तखत करवा लिए जाएं।” साथ ही लता ने मुकेश के जिम्मे लगा दिया कि आप सबको इकट्ठा करें।

मुकर्र दिन पर, तलत महमूद, मुकेश, गीता दत्त, रफी और लता एक जगह पर सिर जोड़कर बैठ गए ताकि फैसला हो कि क्या करना है। जब रफी साहब ने अपनी पुरानी स्थिति दोहराई, तो लता ने कहा, “ऐसे कैसे? क्या पता कब तक हम ऐसे गा सकते हैं, लेकिन रिकॉर्ड तो हमेशा बिकते रहेंगे। इसलिए हमारे पास एक सुरक्षित आमदनी का जरिया होना चाहिए।”

रफी साहब ने कहा, “ठीक है, जैसा महारानी कहती हैं वैसा कर लीजिए।”

हालांकि, लता के लिए महारानी लफ्ज का इस्तेमाल पहले भी होता आया था, लेकिन उस लम्हे की नज़ाकत और शायद रफी साहब के लहजे के सबब लता बिगड़ गईं और बोलीं, “अगर मैं महारानी हूं तो आप कौन होते हैं मुझे ऐसे कहने वाले।”

रफी ने कहा, “मैं आइंदा आपके साथ नहीं गाऊंगा।”

लता ने पलट कर जवाब दिया, “आप क्या, मैं आपके साथ नहीं गाने वाली।”

बैठक इस तल्ख माहौल में खत्म हो गया। लता ने पहला काम ये किया कि सभी संगीतकारों को फोन किया और उन्हें बताया कि वह भविष्य में रफी के साथ कोई भी गाना रिकॉर्ड नहीं करेगी। इस प्रकार, दोनों ने तीन साल तक कोई भी गाना एक साथ नहीं गाया।

मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के बीच आखिर 3 सालों तक बातचीत क्यों बंद रही?
एक रिकॉर्ड के दौरान रफी और लता (फोटो सोर्स- पिंटरेस्ट)

मुम्बई फिल्म निगरी में अगर किसी शायर की शायरी तंजिया था तो वे थे साहिर लुधियानवी। अगर किसी संगीतकार ने कुटिलता दिखाई तो वे थे ओपी नैय्यर। और गायकों में से यह धौंस लता जी की शान थी। हालाँकि, साहिर और नय्यर के विपरीत, जैसे ही लता के गुस्से की आग की लपटें धीमी होती थी वो नर्म हो जाती थीं। दूसरी तरफ, रफी साहब जैसा शांत और मासूम तबीयत शख्स पूरी फिल्म इंडस्ट्री तो क्या पूरी बम्बई में शायद ही कोई था। जैसी रफी साहब की मुस्कुराहट थी वैसे ही वे धैर्य, विनम्रता और सादगी के लिए लिए भी वे जाने थे।

लेकिन जब गायकी की बात हो तो मुहम्मद रफी लता समेत किसी भी दूसरे गायकों से कम नहीं थे। अगर उस समय लता नंबर एक गायिका थीं, तो रफी भी नंबर एक थे। अगर लता पांच हजार रुपये वसूल रही थी, तो रफी भी उतनी ही रकम वसूल रहे थे।

लता ने 1949 में राज कपूर की फिल्म ‘बरसात’ में ऐसे मधुर गीतों की बरसात की कि ज़ोहरा बाई, राजकुमारी, सुरैया, गीता दत्त, मुबारक बेगम, शमशाद बेगम जैसी सभी आवाज़ें फीकी पड़ गईं। अब केवल एक की आवाज़ थी और वह थीं लता मंगेशकर। रफी को तलत महमूद और मुकेश की दोतरफा चुनौती का सामना था। तीन सालों तक ये तीनों गायक अपनी आवाज़ का जादू बिखेरते रहे। लेकिन विजय भट्ट की फिल्म ‘बैजू बावरा’ में रफी ने एक ऐसी छलांग मारी कि उन्होंने मुकेश और तलत महमूद दोनों को पीछे छोड़ दिया। फिर कभी भी वे दोनों उनकी परछाई को भी छू नहीं सके। उस वक्त लता जी पांच सौ रुपये फीस ले रही थीं और तब से मुहम्मद रफी ने हमेशा लता के बराबर फीस लिया।

अब सवाल उठता है कि क्या लता के साथ झगड़ा होने की वजह से रफी साहब को नुकसान हुआ? बहुत सारे लोग किशोर कुमार की ‘अराधना’ से उनकी उड़ान को रफी-लता के झगड़े के नजरिए से देखते हैं। हालांकि, यह सिर्फ एक गॉसिप है जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। क्यों कि लता-रफी विवाद 60 के दशक की शुरुआत में हुआ था और उस समय रफी लगातार ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहे थे। आइए एक नजर डालते हैं फिल्मफेयर अवॉर्ड्स पर।

मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के बीच आखिर 3 सालों तक बातचीत क्यों बंद रही?
मनमोहन देसाई की पुण्यतिथि: जब लता, रफी, किशोर, मुकेश और अन्य (फोटो सोर्स- पिंटरेस्ट)

आज फिल्मफेयर अवार्ड्स उतने महत्वपूर्ण नहीं माना जाता, जितना कि 50, 60 और 70 के दशक में था। उस समय, पूरे साल में एकमात्र पुरस्कार था जो किसी भी क्षेत्र में व्यक्ति की उत्कृष्टता साबित करने के लिए काफी था। फिल्मफेयर ने अपने बीते चार सालों में सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार जारी रखा, लेकिन गायकों को अपेक्षाकृत कमतर मानते हुए चुप्पी साधे रहा। मुमकिन है बाकी लोग ऐसे ही चलते रहते लेकिन लता तो लता थीं। एक फिल्मफेयर कार्यक्रम में, लता ने यह कहकर गाने से इनकार कर दिया कि जब तक गायकों के लिए अवार्ड का एलान नहीं किया जाता वो नहीं गाने वालीं। जब यह बात मान ली गई तो लता ने सुनिश्चित तौर पर उसकी हकदार बनीं। अगले साल सलिल चौधरी को ‘मधुमती’ के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार दिया गया और लता को उसी फिल्म का गाना ‘आ जा रे परदेसी’ के लिए सर्वश्रेष्ठ गायक का अवार्ड दिया गया।

1960 में, शंकर जय किशन ने अपने रिश्तों के बिना पर फिल्म ‘अनाड़ी’ के लिए फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार अपने नाम किया। हालांकि, उनके प्रतिद्वंद्वी सचिन देव बर्मन की फिल्म ‘सुजाता’ की धुन हर लिहाज से बेहतर थी। तलत महमूद को ‘सुजाता’ का एक गाना ‘जलते हैं जिसके लिए तेरी आंखों के दीये’ को अवार्ड दिए जाने की पूरी उम्मीद थी लेकिन सब गोल माल हो गया। पैकेज डील के परिणामस्वरूप, सर्वश्रेष्ठ गायक का फिल्मफेयर जिस गाने को लेकर मुकेश को दिया गया, उसे सुनकर शायद आपको आश्चय हो, वहा गाना था- “सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी।”

वह रफी ही थे जो पिछले दो साल वंचित रहने का बदला लगातार जीत से ले सकते थे। उन्होंने लगातार 1961 और 1962 में अपने गानों ‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो..’ और ‘तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी को नजर न लगे…’ के लिए सर्वश्रेष्ठ गायक का फिल्मफेयर अवार्ड जीता। 1963 में लता को फिल्म ‘बीस साल बाद’ का गाना ‘कहीं दीप जले कहीं दिल…’, 1964 में महेश कपूर को ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों…’, फिर 1965 में रफी को ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे’ के लिए और 1966 में दोबारा लता को ‘तुम्ही मेरे मंदिर तुम्ही मेरी पूजा…’ के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। एक बार फिर रफी की बारी आई और उसके अगले साल उन्हें ‘बहारो फूल बरसाओ….’ के लिए फिल्मफेयर अवार्ड अपने नाम किया।

फिल्मफेयर के पहले नौ वर्षों में, जब लता और रफी के बीच प्रतिस्पर्धा कड़ी थी, रफी ने चार फिल्मफेयर पुरस्कार जीते और लता ने तीन जीते। इससे साबित होता है कि रफी को लता से बातचीत बंद होने से कोई फर्क नहीं पड़ा। तो क्या लता पर पड़ा? हरगिज नहीं।

मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के बीच आखिर 3 सालों तक बातचीत क्यों बंद रही?
रफी और किशोर कुमार (फोटो सोर्स- पिंटरेस्ट)

यह कहना कि रफी को साजिशन पीछे धकेल कर किशोर कुमार को आगे लाया गया और लता भी इसमें शामिल थी, कोरा बकवास है। फिर वह क्या वजह था जिसकी वजह से 1970 में रफी साहब को एक पायदान नीचे उतर कर किशोर कुमार के लिए जगह खाली करनी पड़ी। चलिए रफी और लता के सुलह और उस गीत के बारे में बताते हैं जो दोनों के दरम्यान विवाद के बाद पहली बार रिकॉर्ड किया गया था। शायद इसका भी जवाब वहां मिल जाए।

जिन तीन सालों में रफी-लता ने एक-दूसरे के साथ सूर-से-सूर नहीं मिलाया, उस दौरान सुमन कल्याणपुर और महेंद्र कपूर की लॉटरी लग गई। जब रफी को लिया जाता था तो सुमन कल्याणपुर को उनके अपॉजिट जाता था। और जब लता होती थीं तो मेल वर्जन के तौर पर महेंद्र कपूर होते थे। जब शंकर जय किशन ‘पल्कों की छांव में’ फिल्म के लिए संगीत तैयार कर रहे थे तो जय किशन ने लता जी से कहा, “यह गाना आपके साथ रफी साहब गाते तो मजा आ जाता।”

मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के बीच आखिर 3 सालों तक बातचीत क्यों बंद रही?
1967 में एस. डी. बर्मन नाइट में मुकेश, मजरूह सुल्तानपुरी, तलत महमूद, एस.डी. बर्मन, लता मंगेशकर, नरगिस, मोहम्मद रफी और मन्ना डे एक साथ। (तस्वीर क्रेडिट: मदनमोहन.इन)

लता ने कहा, “बुला लीजिए उन्हें।” जय किशन को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने दोबारा पूछा, “क्या आप वाकई आप मिलकर गाने को तैयार हैं?” उन्होंने हामी भरी तो जय किशन भागकर रफी साहब के घर पहुंचे और उनसे हाथ जोड़कर इसके लिए विनती की। रफी साहब दूसरी कोई बात कहे मान गए। इस तरह दोनों के विवाद के बाद युगल में पहला गाना रिकॉर्ड हुआ। मगर अफसोस वह गाना कभी रिलीज नहीं हो सका, क्योंकि यह फिल्म अधूरी रह गई थी और वह गाना वक्त की गर्दिशों में कहीं खो गया।

जब इस बात का पता एस.डी. बर्मन को चला, तो उन्होंने ‘ज्वेल थीफ’ का गाना ‘दिल पुकारे आ रे आ रे…’ के लिए दोनों को एकसाथ लाकर खड़ा कर दिया। लेकिन बर्मन दा ने उसी फिल्म का अगला गाना ‘आसमां के नीचे आज अपने पीछे…’ लता के साथ रफी के बजाय किशोर कुमार से गवाया।

हो सकता है कि आप आप इसे एस.डी. बर्मन की अपने हमवतन बंगाली किशोर कुमार के लिए छीपी मुहब्बत करार दें, लेकिन उससे पहले एक बार लता-रफी का यह गाना सुन लीजिए। क्या यह वही मोहम्मद रफी गा रहे हैं जिन्होंने दादा बर्मन के लिए ही दो साल पहले ‘गाइड’ में ‘क्या से क्या हो गया…’, ‘तेरे मेरे समने…’ और ‘दिन ढल जाए…’ जैसे गाने गाए थे? क्या ‘दिल पुकारे…’ में वही मिठास व नरमी मौजूद है?

बात यह नहीं कि रफी ने इस मास्टरपीस गाने को इससे पहले और उसके बाद कैसे गाया, बल्कि हर गीत, खासतौर पर जब उसका संगीतकार एस.डी. बर्मन जैसा व्यक्ति हो, जो सौ फीसद रचनाशीलता और समर्पण की मांग करता हो।

लता और रफी के बीच बातचीत अभी तक पूरी तरह से शुरू नहीं हो सकी थी लेकिन दोनों एक-दूसरे के साथ गाने रिकॉर्ड किए जा रहे थे। 1967 में, जब एस.डी. बर्मन नाइट का आयोजन किया गया, तब नरगिस ने लता और रफी को आमने-सामने ला खड़ा किया। और इस तरह बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। उस रात, जब दोनों ने मंच पर दिल से गाया। जब तीन साल बाद दर्शकों ने दोनों को एक साथ गाते हुए उनकी मख़मली आवाज़ सुनी तो झूम उठे। अगर आप भी झूमना चाहते हैं, तो आपको लता-रफी की ये 10 बेहतरीन युगल गाने जरूर सुनने चाहिए-

सुन मेरे सजना (हसीन लाल भगत राम- आँसू 1953)

तेरे बिन सुन नैन हमारे (एस.डी. बर्मन- मेरी सूरत तेरी आँखे 1963)

तेरी आँखों में प्यार मैंने देख लिया (चित्रगुप्त- चाँद मेरे आ जा 1960)

बार-बार तुझे क्या समझाएं पायल की झंकार (रोशन- आरती 1962)

कू हू कू हू बोले (पी. आदिनारायण राव- सुवर्ण सुंदरी 1957)

लागी छुटे ना अब तो सनम (चित्रगुप्ता- काली टोपी लाल रूमाल 1959)

तुम तो प्यार हो सजना (राम लाल- सेहरा 1963)

तू गंगा की मौज (नौशाद- बैजू बावरा 1953)

जीवन में पिया तेरा साथ रहे (वसंत देसाई- गुंज उठी शहनाई 1959)

दुनिया में नहीं कोई यार (गुलाम मुहम्मद- अम्बर 1952)


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