सबकुछ बिकने और बेचे जाने के दौर में फिल्म ‘मंथन’ देखनी चाहिए

सबकुछ बिकने और बेचे जाने के दौर में फिल्म ‘मंथन’ देखनी चाहिए

सहकारिता समाजवाद का गोमुख है। एक समतावादी समाज का निर्माण उसके सदस्यों के पारस्परिक सहयोग और भाईचारा से ही सम्भव है। प्राकृतिक संसाधनों और उससे निर्मित उत्पादों का नियंत्रण एवं नियमन समाज के सदस्यों द्वारा किए जाने पर ही प्रत्येक व्यक्ति को उसके योगदान के अनुरूप प्रतिफल प्राप्त हो सकता है। सभ्यता के प्रारंभिक मंज़िल से गण समाजो तक मानव जाति इसका अनुभव कर भी चुकी है, अवश्य तत्कालीन समय मे उत्पादन के साधनों और सम्बन्धों में जटिलता कम थी।

मगर सभ्यता के विकास के साथ निजी सम्पत्ति की अवधारणा बलवती होती गई और प्राकृतिक संसाधनों पर व्यक्ति विशेष अथवा कुछ व्यक्तियों का अधिकार होता गया, उससे अनिवार्यतः बहुजन को उसके परिश्रम का उचित फल नहीं मिल सका। इसे इतिहास के राजशाही/सामंती काल मे देखा जा सकता है। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप उतपन्न पूंजीवादी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में पूंजी की केन्द्रीयता और बढ़ती गयी। सामंती रूढ़िवाद एक स्तर पर कम हुए मगर दूसरे स्तर पर जातिवाद बढ़ता गया। शिक्षा का स्तर बढ़ा, आमजन को कुछ अधिकार भी मिले, मगर सत्ता और नीति निर्धारण मे उसकी भूमिका सीमित रही।

इधर संविधान प्रदत्त ‘व्यक्ति की गरिमा’ का यह हश्र हुआ है कि कहीं व्यक्ति की पीट-पीट कर हत्या की जा रही है, कहीं सत्ता की आलोचना को राजद्रोह कहा जा रहा है। संकट काल मे तो आलम यह होता है कि व्यक्ति एक ऑक्सीजन सिलेंडर न मिल पाने के कारण मर जाता है।

सबकुछ बिकने और बेचे जाने के दौर में फिल्म 'मंथन' देखनी चाहिए

इस व्यक्ति केन्द्रित सत्ता का विकल्प समाजवाद ही हो सकता है, मगर इधर तो एक-एक कर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का निजीकरण किया जा रहा है जिसका दुष्परिणाम महंगी सेवा के रूप में दिखाई देने लगा है। अवश्य यह भी कहा जाता रहा है कि समाजवाद के प्रयोग ‘असफल’ रहे हैं। हमारे देश मे ही सार्वजनिक क्षेत्र के कई उपक्रम घाटे में चलते रहे है। इसमे आंशिक सच्चाई है मगर बेचा तो उन्हें भी गया है जो लाभ में रहे हैं। दूसरी बात समाजवादी मॉडल की ‘असफलता’ के कई आंतरिक-बाह्य कारण रहे हैं, उन पर बहस होती रही है।प्रयोग की असफलता मात्र से उद्देश्य की अव्यावहारिकता सिद्ध नहीं हो जाती। मानव के दुखों से सामूहिक मुक्ति के स्वप्न हमेशा जिंदा रहेंगे।

फिल्म ‘मंथन’ ऐसे ही मानव के सामूहिक प्रयास को रेखांकित करती फिल्म है। गुजरात के खेड़ा जिले के ‘दुग्ध क्रांति’ जो किसानो की सहकारिता का मिसाल है, से प्रेरित यह फिल्म किसानों के पैसे से ही निर्मित है। इस फिल्म को बनाने के लिए सोसाइटी के पांच लाख किसानों ने अपने एक दिन का पगार प्रत्येक दो रुपये (कुल दस लाख) दिए थे, जिसमें उनके संघर्षों का ही प्रतिबिम्ब है।

फिल्म में दूध बेचने वाले किसानों की सहकारी समिति (सोसाइटी) बनाने और उसमे आने वाली कठनाईयों का चित्रण है। एक युवा वेडनरी डॉक्टर राव जो मानवतावादी और समाजवादी मूल्यों से ओतप्रोत है गांव आकर सोसाइटी बनाने का प्रयास करता है। लोगों को उसका महत्व समझाता है। गांव के लोग लंबे समय से एक नेतानुमा व्यापारी ‘मिश्रा जी’ के डेयरी में दूध बेचते रहे हैं, मगर वह वाजिब कीमत से बहुत कम कीमत देता रहा है। चूंकि, वह साहूकार भी है इसलिए किसान उस पर कई तरह से आश्रित हैं। वह ‘घाघ’ भी है और संकट पैदा करके ‘सहायता’ की कूटनीति पर भी चलता है। इन सब कारणों से किसानों का उसके चंगुल से निकलना आसान नहीं था।

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फिर गांव की अपनी सामंती सामाजिक परीस्थितियाँ, जातिवाद, जिसके कारण ऊँच-नीच का भेदभाव भी एक बड़ी बाधा रही है। गांव का सरपंच ‘ऊँची’ जाति का है और इसे अपना स्वाभाविक अधिकार समझता है, इसलिए मानता है कि वह सोसाइटी के अध्यक्ष पद का स्वाभाविक अधिकारी है। और जब वह एक ‘दलित’ जाति के प्रत्याशी से चुनाव हार जाता है तो इसे अपनी ‘प्रतिष्ठा’ का प्रश्न बना लेता है और षड्यंत्र रचता है।

‘दलित’ जातियां परम्परागत ‘संस्कारों’ और निम्न आर्थिक स्थिति के कारण पिछड़ी हुई हैं और स्वयं को ‘सत्ता’ से दूर रखती हैं जिसके कारण शोषण को और बढ़ावा मिलता है। डॉ. राव इस स्थिति में बदलाव लाने का प्रयास करते हैं, उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करते हैं। इस समूह मे ‘भोला’ जैसे पात्र भी हैं जो चीज़ों को समझते हैं मगर उचित मार्गदर्शन और सहयोगी नहीं मिलने के कारण अपने आक्रोश को सही दिशा नहीं दे पाते। फिल्म में भोला पर डॉ. राव के विचारों का सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

दलित वर्ग में ही ‘बिंदु’ जैसी स्त्रियां हैं जो साहसी तो है मगर सामाजिक विसंगति के अतिरिक्त पति के निकम्मापन और हिंसा का शिकार हैं। फिल्म में अन्य समूह के स्त्रियों का चित्रण नहीं है मगर स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर तत्कालीन समय में एक गांव की स्थिति और उसकी समस्याओं को भी फिल्म में शामिल करने का प्रयास किया गया है।

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सोसाइटी की प्रारंभिक सफलता के बाद मिश्रा जी और सरपंच द्वारा अपने-अपने कारणों से उसे ध्वस्त करने और डॉ. राव की टीम को वहां से भगाने के षड्यंत्र किए जाते हैं। कई नाटकीय घटनाक्रम होते हैं और अंततः डॉ. राव को वहां से वापस बुलवाने का आदेश जारी करवा लिया जाता है। फिल्म के क्लाइमेक्स में डॉ. राव रेलवे स्टेशन जाते हैं, भोला उन्हें रोकने दौड़ते हुए आता है मगर तब तक रेल छूट जाती है। मगर भोला निराश नहीं होता डॉ. राव की बाते उसे याद है कि सोसाइटी उनको ही चलाना है; और वह फिर अपने लोगों को इकट्ठा कर सोसाइटी ले जाने में सफल हो जाता है।

इस तरह फिल्म का सुखांत होता है। आज सबकुछ बिकने और बेचे जाने के इस दौर में सहकारिता की अवधारणा जरूर हाशिये पर है, मगर मनुष्यता और व्यक्ति की गरिमा के सम्मान का रास्ता यहीं से है। अवश्य इसके लिए व्यक्ति को भी अपने स्वार्थ से ऊपर व्यापक समाज के हित के बारे में सोचना होगा, वरना दुनिया तो किसी भी तरह चलती ही रही है, चलती रहेगी।


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