सामंतवाद ने ग्रामीण लोकजीवन को अभी हाल तक इस कदर जकड़ा था कि छोटे-छोटे ज़मीदार ही वहां के ‘भाग्य-विधाता’ हुआ करते थे। उनके क्षेत्र की तमाम गतिविधियां जैसे उनकी मर्जी से चलती थीं। आम जन का कदम-कदम पर अपमान सामान्य बात थी। उस पर भी वे ‘प्रजा हितैषी’ होने का दम भरते थे। दूसरी तरफ...
Author: Ajay Chandravanshi (अजय चन्द्रवंशी)
प्यासा: ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया…ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
कवि (शाइर) होने की पहली शर्त संवेदनशीलता है। जो व्यक्ति संवेदनशील न हो, जिसे अपने आस-पास की दुनिया की विडम्बनाएं झकझोरती न हों, जो दूसरों के दुःख को देखकर बेचैन न हो जाता हो, वह और चाहे जो कुछ भी हो कवि नहीं हो सकता। कलाकार की यही संवेदनशीलता कुछ हद तक उसे ‘असमान्य’ बना...
महबूब खान की फिल्म ‘मदर इंडिया’ हर किसी को क्यों देखनी चाहिए?
भारत में स्त्रियों की स्थिति पितृसत्ता के अधीन विरोधाभासी और द्वंद्वात्मक रही है। समय के साथ इसमें परिवर्तन होता रहा और पूर्व कालों की दृष्टि से आज उसकी स्थिति अधिक लोकतांत्रिक कही जा सकती है। उनकी यह स्थिति समाज सापेक्ष और वर्ग सापेक्ष भी रही है। कृषक और श्रमिक वर्ग में स्त्रियां अपेक्षाकृत अधिक अधिकार...
एक स्त्री का दो पुरुषों के बीच के चुनाव का द्वंद है फिल्म ‘रजनीगंधा’
मनुष्य जैव-सामाजिक प्राणी है। उसके जैविकी और सामाजिकता के द्वंद्व से संस्कृति का रूपाकार बनता है, और इसी से नैतिक मूल्य निर्धारित होते हैं। स्त्री-पुरूष का परस्पर आकर्षण सहज है, जैविक है। कालांतर में सामाजिक विकास के क्रम में ‘यौन संघर्ष’ की अराजकता से बचने विवाह जैसी संस्था का विकास हुआ, और इसे सुदृढ़ बनाए...
अस्मिता और पारिवारिकता के बीच का सामंजस्य है जब्बार पटेल की फिल्म ‘सुबह’
समाज में स्त्री द्वारा अपनी अस्मिता की तलाश का संघर्ष जटिल रहा है। एक तो जैविक रूप से मातृत्व की जिम्मेदारी का निर्वहन और दूसरा पितृसत्ता के मूल्य जनित बाधाएं; इनके कारण उसका रास्ता कठिन हो जाता है। संघर्ष पुरूष वर्ग में भी रहा है, खासकर आर्थिक। क्योंकि आर्थिक अक्षमता अधिकांश समस्याओं की जड़ है।...
हिंदी परंपरा के आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा को आप कितना जानते हैं?
डॉ. रामविलास शर्मा के महत्व का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उनके आलोचनात्मक लेखन के प्रारंभिक दौर (चालीस के दशक) से लेकर आज उनके निधन के बीस वर्ष बाद तक वे बहस के केंद्र में हैं। इधर, नामवर जी के निधन पर और रेणु के जन्म शताब्दी पर भी उनके...
फिल्म ‘तीसरी कसम’ : न कोई इस पार हमारा, न कोई उस पार
रेणु की चर्चित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम’ पर आधारित फिल्म ‘तीसरी कसम'(1966) की काफ़ी चर्चा होती रही है। फिल्म के निर्माता गीतकार शैलेन्द्र थे।उन्होंने बहुत उत्साह और जोख़िम से फिल्म का निर्माण कराया था, मगर अपेक्षित सफलता नहीं मिलने पर काफ़ी आहत भी हुए थे, जिसकी एक अलग कहानी है। कहानी और...
छुआछूत और जातिवाद पर आधारित बिमल रॉय की फिल्म ‘सुजाता’ क्यों देखनी चाहिए
अश्पृश्यता मानव समाज के लिए कलंक रही है। किसी व्यक्ति को जन्म के आधार पर हीन अथवा कमतर समझना जितना अमानवीय है, ऐसी व्यवस्था के औचित्य के लिए तर्क गढ़ना उतना ही कुत्सित। सामंती समाजों के दौर में इसका चेहरा अत्यंत घिनौना था; औद्योगिक पूंजीवादी दौर में इसमें उल्लेखनीय कमी अवश्य आई, मगर इसमें संविधान...
कस्बाई मध्यवर्गीय जीवन का अंतर्द्वंद्व है रितुपर्णो घोष की फिल्म ‘रेनकोट’
कस्बाई क्षेत्र का मध्यवर्गीय जीवन अजीब द्वंद्व से घिरा होता है। इच्छाएं बड़ी मगर सुविधाओं के नहीं होने से उलझने बढ़ती जाती हैं। युवावस्था की रोमानियत यथार्थ के धरातल से टकराने पर सहसा उसे स्वीकार नहीं कर पाती। मगर यथार्थ को इंकार करने से वह बदल नहीं जाता। इसलिए विडंबनाएं होती हैं, दिल टूटते हैं...
फिल्म ‘काबुलीवाला’ बताती है- देशप्रेम सार्वभौमिक होता, चाहे हिन्दोस्तान हो या अफगानिस्तान
प्रेम और सम्वेदना मनुष्य की सहजवृत्ति हैं। हमारा संवेदनात्मक लगाव केवल ‘अपनों’ से नहीं अपितु ‘दूसरों’ से भी हो सकता है। या यों कहें कि जिनसे हमारा लगाव हो जाता है उसे हम अपना समझने लगते हैं। इस लगाव के कई रूप और नाम हैं। स्त्री पुरुष का प्रेमाकर्षण है, मित्रता है, बड़ों के प्रति...