फहीम अहमद की दो कविताएं: मैं कहता था कि अनगिनत सदियाँ बंध आई थी हमारे बीच

फहीम अहमद की दो कविताएं: मैं कहता था कि अनगिनत सदियाँ बंध आई थी हमारे बीच

साहित्य से गहरा अनुराग रखने वाले बेहद प्रतिभाशाली फहीम अहमद ने अभी-अभी कविता लिखना प्रारंभ किया है। इनकी शुरुआती कविता में ही सुघड़ता है। इनकी कविताओं में भावना और विचार का गज़ब का संतुलन है। हमें आशा है, समूची दुनिया में गहन निराशा और डर से भरे माहौल के बीच फहीम की लेखनी एक उम्मीद की लौ जलाने का काम करेगी। यहां प्रस्तुत है फहीम की दो कविताएं:

(1)

दो कविताएँ

‘मुझे चाँद और गुलमोहर चाहिए’
यह अतिशयोक्ति हो सकती है लेकिन जीने के लिए
इससे हल्की पंक्ति और कोई नहीं।

(क)

मैं कहता था कि अनगिनत सदियाँ बंध आई थी हमारे बीच
तुम्हारे जिस्म के हर हिस्से में
कई-कई शहरों के नक्शे उतारे थे
मेरे जिस्म के हर मोड़ पर एक बेचैन नदी बहाई तुमने
हम एक कदम साथ चला करते थे
तो एक सदी पार कर जाते थे
पलक झपकते सारे प्रेमियों के सारे ब्रह्माण्ड नाप आते थे
जिस किले की मेहराबों से गुज़रते थे
कदम हमारे चूमकर उन्हें मुरदार होने से बचा लेते थे

मैं करवट लेता था जिस ओर
तुम उभर आती थी
मैं किशमिशी होंठो को चूमता था तुम्हारे
और हम कभी चिड़िया में बदल जाते थे
हम कभी दरगाह से उठती धूनी में बदल जाते थे
हम कभी बुझे हुए लैम्पपोस्ट में बदल जाते थे।
अतिशयोक्ति भरा यह जीवन और जिया जा सकता था।

(ख)

तुमने कहा कि कहते है एक दिन सब खत्म हो जाएगा
जीने की इच्छा से बड़ा कुछ नहीं,
जीने के लिए इससे हल्की पंक्तियां चाहिए होती है।

इसलिए याद होगा तुम्हें
मैंने तुम्हारी पीठ पर कई गुलमोहर बनाए है
तुमने कई चाँद की रातें मेरे सीने में उतारी है

सब खत्म हो जाने के बाद कोई इन्हें भी ले जाएगा हमसे?

तुम बस इतना करना अपनी पीठ से
एक फूल गुल्मोहर का बालों में लगाते रहना
मैं चांद को बुन-बुनकर आँखों की पुतलियों में ढालती रहूँगी।

और..
और कुछ नहीं क्योंकि
जीने के लिए इससे हल्की पंक्तियाँ और कोई नहीं।

(2)

आखिरी नस्लें

और तुम इस धरती के एक लोते शिकारी रह जाओगे
धरती के जिस ओर देखोगे हर किनारा तुम्हारा होगा
धरती के सारे मेहनतकशों की रोटी तुम्हारी होगी
धरती की सारी खुशबू तुम्हारी होगी
धरती के सारे झंडे-तिरंगे शान में तुम्हारी
धरती के सारे
अस्त्र-शस्त्र
बम-बारूद
तोप-वोप
सब तुम्हारी पिंडनाली की नोंक पर
“सा रे गा मा पा धा नि सा”
की जुगलबंदी कर रहे होंगे।

मगर मीरु-वीरू-धीरू
जो जो नाम होंगे तुम्हारे
दुनियाभर की टकसालों पर अंकित

क्या होगा जब खनिजों में बदल जाएंगे हम
जब म्यूज़िमों में अवशेष बनकर रह जाएंगे हम

जब रिपोर्ट ही बताएगी हमारी निशानदेही के चिराग
अखंड और शुद्ध आने वाली तुम्हारी नस्लों को

तब..?

खून,
पियोगे किसका?

गुलाम,
बनाओगे किसे?

युद्ध,
करेगा कौन?

-फहीम अहमद

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