छत्तीसगढ़ के माओवाद प्रभावित जिला सुकमा में बीते कई दिनों से स्थानीय आदिवासी आंदोलन कर रहे हैं। जिले के सिलगेर में पुलिस फायरिंग में मारे गए तीन आदिवासियों की मौत के बाद लगातार आदिवासियों का विरोध-प्रदर्शन जारी है। जैसे-जैसे आंदोलन का दिन बढ़ रहा है वैसे-वैसे प्रदर्शनकारियों की संख्या भी इजाफा होता जा रहा है।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) की 153वीं बटालियन के कैंप के खिलाफ सिलगेर पंचायत के तीन गांवों के अलावा आस-पास के कम-से-कम 40 गांवों के लोग सड़कों पर उतर आए हैं। बीजापुर और सुकमा जिले के कलेक्टरों के साथ रविवार को आदिवासियों की बैठक पर बात नहीं बनी। आदिवासियों का सीधा मांगा है कि प्रशासन उनकी जमीन से कैंप हटाए।
Not far from Silger in Tolevarti village of Sukma district Midiam Masa, was shot dead by CRPF of Karepara camp on 22 May. He along with two others were gathering mangoes. Seeing forces they started running out of fear. Two escape. Masa was shot twice in the head. Many witnesses. pic.twitter.com/tbvVSy42dh
— Bela Bhatia (@Belaben) May 26, 2021
अरलमपल्ली गांव के एक प्रदर्शनकारी सोडी दुला ने मीडिया को बताया कि सरकार कहती है कि सड़क बनाने के लिए पुलिस का कैंप बनाया गया है। लेकिन इतनी चौड़ी सड़क का हम आदिवासी क्या करेंगे। उन्होंने आगे कहा, “हमें हमारी सुविधा के लायक सड़क चाहिए, आंगनबाड़ी चाहिए, स्कूल चाहिए, अस्पताल चाहिए, हैंडपंप चाहिए। क्या इसके लिए पुलिस कैंप की जरूरत होती है?”
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सोडी दुला के अलावा आदिवासियों के ऐसे कई सवाल हैं। एक प्रदर्शनकारी ने कहा कि हमारे भले के लिए कैंप बनाया जा रहा है तो हमें ही गोली क्यों मारी जा रही है? तीन लोगों को पुलिस ने गोली क्यों मारी? दूसरी तरफ जगदलपुर में पुलिस के आला अधिकारियों का कहना है रि माओवादियों के बहकावे में आकर आदिवासी किसान, सुरक्षाबल के कैंप का विरोध कर रहे हैं।
वहीं, बस्तर जिसे आईजी सुंदरराज पी. का कहना है कि पुलिस कैंप के कारण माओवादियों का अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है। इसलिए वो गांववालों को दबाव डालकर कैंप का विरोध करने के लिए बाध्य करते हैं। पुलिस का कहना है कि 17 मई की फायरिंग में मारे गए तीनों आदमी माओवादी संगठन से जुड़े हुए थे। जबकि स्थानीय लोगों का कहना है कि वे तीनों किसान थे।
सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष प्रकाश ठाकुर ने कहा कि मारे गए सभी तीन लोग और गोली कांड में घायल लगभग दो दर्जन लोगों में से कोई भी माओवादी नहीं था। उन्होंने बताया है कि बड़ी संख्या में इस इलाके से लोग पड़ोसी राज्य तेलंगाना में मिर्ची तोड़ने के काम में जाते हैं। मारे गए लोग भी कुछ दिन पहले ही मिर्च तोड़ कर लौटे थे।
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प्रकाश ठाकुर ने मीडिया से कहा, “पुलिस अपने बचाव के लिए झूठ बोल रही है। पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाई और गोली सीधे सिर्फ माओवादियों को लगी, ऐसा कैसे हो सकता है? मारे गए लोग किसान मजदूर थे।”
खबरों के मुताबिक, आदिवासी महासभा के नेता और पूर्व विधायक मनीष कुंजाम भी शनिवार को प्रदर्शनकारियों से मिलने पहुंचे। जहां उन्हें गांववालों ने बताया कि मारे गए तीनों आदिवासियों के परिजनों को जिला प्रशासन की ओर से 10-10 हजार रुपये के तीन लिफाफे दिए गए थे। अब ग्रामीणों का सवाल है कि अगर मारे गए लोग माओवादी थे तो फिर सरकार उन्हें मुआवज़ा क्यों दे रही है।
स्थानीय लोगों का सवाल है कि अगर मारे गए लोगों को सरकार आदिवासी किसान मानती है तो फिर उन्हें माओवादी के तौर पर गलत ढंग से क्यों प्रचारित किया गया? दरअसल, सुकमा और बीजापुर के सिलगेर में सीआरपीएफ कैंप बनाए जाने की खबर जब इस महीने के शुरुआत में सामने आई तो गांववालों ने इसका विरोध किया। जब वे विरोध करने पहुंचे तो उनसे कहा कि वहां अभी कोई सीआरपीएफ कैंप स्थापित नहीं किया जा रहा है। पर 12 मई को कैंप बनकर तैयार हो गया।
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उस घटना के दो दिन बाद आस-पास के कुछ आदिवासी सड़क पर विरोध प्रदर्शन के लिए बैठ गए। उनका आरोप था कि जहां कैंप बनाया गया है, वह ग्रामीणों की जमीन है। आदिवासियों का कहना है कि स्थानीय आदिवासियों और सुरक्षाबलों के बीच 17 मई को बहस शुरू हुई जिसके बाद उन पर लाठी चार्ज कर दिया। गांव के लोगों का कहना है कि लाठी चार्ज के बाद भी जब वो वहां नहीं हिले और कैंप की ओर बढ़े तो जवानों ने फायरिंग शुरु कर दी।
A powerful nonviolent protest of thousands of adivasis against recent CRPF-police firing and the CRPF camp is ongoing on the Silger-Tarem road. We were witness to the discipline and determination of protesters on 23 May. pic.twitter.com/IWdgsj1qeh
— Bela Bhatia (@Belaben) May 26, 2021
दूसरी तरफ पुलिस का अलग ही दावा है। पुलिस का आरोप है कि भीड़ में शामिल माओवादियों ने पहले उन पर फायरिंग की जिसके जवाब में सुरक्षाबलों ने फायरिंग की। पुलिस की इस गोलीबारी में तीन प्रदर्शनकारी आदिवासी मारे गए और दो दर्जन से अधिक घायल हो गए। पुलिस ने इसके अलावा आठ लोगों को हिरासत में भी लिया। आठों को तीन दिनों तक हिरासत में रखा गया।
अब आदिवासी उसके बाद से डटे हुए हैं। उनकी मांग है कि पूरे मामले की न्यायिक जांच किया जाए और दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई किया जाए। बिलासपुर हाईकोर्ट की अधिवक्ता प्रियंका शुक्ला ने आरोप लगाते हुए कहा कि पुलिस ने बिना जांच के घटना की शाम को कह दिया कि तीन माओवादी मारे गए पर उनका नाम तक नहीं बता सकी। उन्होंने पूछा, “अगर नाम तक नहीं पता था तो निहत्थे आदिवासियों को किस आधार पर पुलिस ने माओवादी बता दिया?”
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उन्होंने आगे बताया, “बस्तर में यह रटा रटाया जवाब है कि गोली मारो और माओवादी बता दो। माओवादी बता देने के बाद सभ्य समाज की ओर से भी कोई सवाल नहीं पूछा जाता और आदिवासी किसान की मौत को किसी माओवादी की मौत मान कर चुप्पी साध ली जाती है।”
बस्तर में पिछले कई सालों से रह रही जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता और वकील डॉक्टर बेला भाटिया और अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज जब घटना के दूसरे दिन सिलगेर जाने के लिए रवाना हुए तो सुरक्षाबलों के जवानों ने उन्हें वहाँ जाने से रोक दिया। यहां तक कि उन्हें बीजापुर के सर्किट हाउस में ताला बंद कर के रोकने की कोशिश की गई और तीन दिन तक सिलेगर नहीं जाने दिया गया। बेला भाटिया ने सोशल मीडिया पर घटना और आंदोलन से संबंधित वीडियो और फोटो शेयर किया है। बताया जा रहा बै कि जानी-मानी आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी जब सिलगेर जाने के लिए निकली थीं तो उन्हें भी पुलिस ने नहीं जाने दिया और यहां तक की उन्हें घर से ही बाहर नहीं निकलने दिया।
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