गजेन्द्र रावत की कहानी: धोखेबाज़

गजेन्द्र रावत की कहानी: धोखेबाज़

सीन ही बदल गया। सारी मस्ती धरी रह गई। काली के तिपहिए से निकली लोहे की छड़, कायदे से जिस पर आईना लगा होना था, अचानक प्रकट हुए दुपहिये पर पीछे बैठे हवलदार के कान से छूकर चली गई। कान बुरी तरह लहूलुहान हो गया।

दुपहिये पर पुलिस के सिपाही को देख काली के शरीर में झुरझुरी पैदा हो गई उसके पाँव स्वयं ही ब्रेक पर पड़ गए। वो रुक गया। गुस्से से हवलदार और कॉन्स्टेबल को अपनी ओर आते देख वह दबे, अस्पष्ट स्वर में बोला, “जनाब मैं तो अपनी साइड पर था।” स्वर इतना धीमा था कि उसका कहीं कोई असर नहीं हुआ।

कटे कान से बहते लहू से हवलदार का हाथ सन चुका था। जब उसने सना हाथ देखा तो वह और अधिक विचलित हो उठा स्कूटर से उतर कर लगभग दौड़ा हुआ काली तक पहुंचा। उसने मारने के लिए हाथ उठाया लेकिन न जाने क्यों मारते-मारते थम गया और ढेरों अश्लील गालियां देकर अकस्मात पैदा हुई भड़ास को निकाल लिया। दो-तीन नपी-तुली गालियां कॉन्स्टेबल ने भी दे डाली।

हवलदार कॉन्स्टेबल के समीप आकर कटे कान को आगे लाते हुए बोला, “देख ज्यादा लगी है क्या?”
कॉन्स्टेबल ने कान की ओर देखा तो उसका मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। एक ध्वनि-सी उसके मुंह से निकलने लगी। फिर वो बोला, “अरे! पूरा कान कट गया है।”

पलभर में ही दोनों गुस्से से काली पर झुक गए। दोनों का दानवाकार, भयानक चेहरा और उस पर खाकी वर्दी देखकर काली मानो जमीन में गढ़ गया हो। सारी परिस्थिति अपने खिलाफ जानकर उसके पेट से निकला तेज़ाब गले में रिसने लगा। तेज़ जलन की एक लकीर-सी उसकी छाती के बीचों-बीच दौड़ गई। अब उसके लिए बोल पाना मुश्किल हो रहा था। बहुत कोशिश करने पर वो बोला, “साहब, मैं तो अपनी साइड पर…..।”

इससे पहले कि बात पूरी हो पाती, हवलदार ने चांटा उसके मुंह पर जड़ दिया, “साइड बताऊँ तुझे……चल साले, तू थाने चल।”

काली के दोनों हाथ स्वयं ही उसके गालों तक पहुँच गए। न जाने कितना साहस बटोरकर काली बोला, “साहब मेरी क्या गलती है?”

“गलती….वो तो थाने जाकर ही पता चलेगी….जब दो डंडे पड़ेंगे तो अपने आप बताएगा।”
“साहब, मैं पट्टी करा देता हूँ।” कांपते स्वर में काली बोला।

“वो तो तू कराएगा ही, लेकिन ये कान का हरजाना कौन भरेगा…., तेरा बाप…….। नहीं, नहीं, तू थाने ही चल।”

थाने के नाम भर से काली की धमनियों में रक्त का प्रवाह धीमा पड़ गया। खुश्क होकर उसका गला चटकने लगा। पुलिस चरित्र का उसका पुराना अनुभव परिस्थिति से उबरने के द्व्न्द को तेज़ कर रहा था। वो मन ही मन कुछ निश्चित करता हुआ एक हाथ से जेब टटोलने लगा, फिर स्वाभाविक-सा होकर जेब से हाथ निकालते हुए कई तहें लगा पुराना पचास का नोट आगे बढ़ाते हुए बोला, “लो साहब।”

कॉन्स्टेबल पचास का नोट देखकर भड़क गया। कॉलर पकड़कर बोला, “अरे क्या समझ रखा है।”
थोड़ी दूरी पर बिजली के खंबे से सटा, रुमाल से कान को पकड़े हवलदार दर्द से कभी-कभी कराह उठता। वो पचास का नोट नहीं देख पाया था, इसीलिए बोला, “क्या बात है?”

“अरे, हमें पचास रुपये दिखा रहा है….हरामजादा।” इतना कहते-कहते कॉन्स्टेबल ने काली को बालों से पकड़ लिया और जोर-ोर से झिंझोड़ने लगा, फिर अपने दाँत दबाते हुए बोला, “साले हवलदार साहब को जानता नहीं है, बंद करवा देंगे। कहीं सुनवाई नहीं होगी। बच्चे भूखे मरेंगे।”

बच्चों का नाम सुनकर काली पत्ते की तरह काँपने लगा। उसने आँखें मूँद ली। कहाँ फँस गया? शायद पचास कम हैं, यह सोचकर उसने फिर जेब में हाथ डाला और पचास का एक और नोट निकालकर बोला, “साहब, अभी तो बोनी भी नहीं हुई, मेरे पास तो इतने ही हैं।”

उसकी बात सुन हवलदार और अधिक समीप आ गया। उसने एक हाथ से रुमाल कान पर लगा रखा था, दूसरे हाथ से कान की ओर इशारा करते हुए बोला, “देख, इधर फट गया है सारा कान….और हरामी पकड़ा रहा है सौ रूपल्ली।”

सड़क पर ट्रैफिक बढ़ता ही जा रहा था। सभी सड़क के किनारे की घटना से अनभिज्ञ दौड़े चले जा रहे थे।

हवलदार के मुंह से कभी-कभी आह की ध्वनि निकल पड़ती। वो पीड़ा से बुरी तरह त्रस्त था। उसने किसी तरह दर्द को काबू किया और काली की ओर एक उंगली दिखाकर बोला, “बेटे पूरे हज़ार लगेंगे….एक भी कम नहीं।”

राशि लगभग तय थी। कॉन्स्टेबल से चुप नहीं रहा गया, वो बोला, “साले, साहब तो रहमदिल हैं जो हज़ार में मान गए। किस्मत अच्छी है तेरी, वरना मामला तो पाँच हज़ार का था और अगर पुलिस केस बन गया तो स्कूटर भी बन्द हो जाएगा।”

काली ने बड़े ही अद्भुत तरीके से रहमदिल हवलदार को देखा, फिर बड़ी ही असमर्थता से बोला, “लेकिन मेरे पास तो इतने ही हैं।”

कॉन्स्टेबल के चेहरे पर एक हल्की कुटिल मुस्कान छा गई। वी तिपहिया को हाथ से बजाकर बोला, “ये तो है तेरे पास।”

न जाने क्यों, कॉन्स्टेबल ने जब तिपहिये को बजाया तो काली का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। वो उसकी रोजी-रोटी थी। यह भाव कॉन्स्टेबल ने काली के चेहरे से भाँप लिया। वो अपनी नीयत के इस पहलू को छिपाते हुए बोला, “चल, किसी से उधार ले ले।”

“कौन देगा मुझे इतने रुपये? ” धीरे से काली बोला। उसके इस प्रकार बोलने में ये स्वीकृति तो थी ही कि यदि होंगे तो वो दे देगा।

हवलदार के हाथ का रुमाल पूरी तरह खून से भीग चुका था। कुछ बूंदें कंधे तक टपक आई थीं। लेकिन उनसे बेखबर वो सोच रहा था कि छुट्टी के दिन भी हज़ार रुपये की इनकम हो गई, ये क्या कम बात है। यही सोचते-सोचते उसे कॉन्स्टेबल का ख्याल आया। उसने घिन से कॉन्स्टेबल की ओर एक नज़र देखा और मन ही मन बोला, “ये भी तो है मक्खी!”

अब कॉन्स्टेबल की उपस्थिति उसे खलने लगी। उसके मस्तिष्क के द्वंद की दिशा गुणात्मक रूप से बदल गई।

कॉन्स्टेबल भी गहरी पशोपेश में था लेकिन उसने अनुमान से जान लिया था कि काली की जेब में इतने रुपये नहीं हैं। रुपये पाने का इंतजाम तो करना ही होगा। वो अपने पूर्व अनुभव का लाभ लेकर शीघ्र ही समाधान के नजदीक पहुँच गया। अचानक बोला, “घर से कर दे।”

“बाबूजी, घर पर कहाँ होंगे इतने रुपये ? ”

“तू ये बता, तेरा घर कहाँ है?”

पहले काली सोचने लगा कि झूठ बोलूँ लेकिन कोई फाइदा न जानकर, बोला, “तुर्कमान गेट।”
“चल पास में ही है।” बहुत ही संतुष्टि भरे स्वर में कॉन्स्टेबल बोला।

हवलदार असहनीय पीड़ा तो सह ही रहा था लेकिन उन दोनों के बीच चल रही डील में अपनी भूमिका वो भली-भाँति जानता था। उसने मन ही मन प्लान कर लिया, कॉन्स्टेबल दुपहिया तो कहीं रखेगा ही, फिर देखते हैं कोई तरकीब उसे काटने की। अभी तो आधे रुपये ही गिन रहा है साला। कान मेरा कटा, कमाई अपनी समझ रहा है पट्ठा। वो हाय-हाय करता हुआ थ्री व्हीलर की पिछली सीट पर बैठ गया।

कॉन्स्टेबल थ्री व्हीलर के पास खड़ा होकर बोला, “जनाब, मैं स्कूटर कचहरी में खड़ा कर देता हूँ, इसके घर तक इसी थ्री व्हीलर में चलते हैं।”

हवलदार कुछ नहीं बोला, मात्र आँखें बन्द कर ली। ये दर्द और स्वीकृति का मिला-जुला संकेत था। अपने भीतर की उथल-पुथल को उसने बड़ी सहजता से छिपा लिया।

कॉन्स्टेबल का स्कूटर जैसे ही कचहरी के गेट में प्रविष्ट हुआ, वैसे ही हवलदार बोला, “चल बे जल्दी दबा गाड़ी।”

“और वो साहब…..।”

“छोड़ उसको, देर मत कर, गाड़ी चला…..।”

काली ने गाड़ी दौड़ा दी। साथ-साथ ये भी सोचा कि एक से तो पल्ला छूटा। पीछे बैठा हवलदार बोला, “तेज कर, भई….और तेज कुछ दूर तक वो पीछे देखता रहा, जब कुछ न दिखाई दिया तो निश्चिंत होकर बैठ गया। अब कॉन्स्टेबल का खतरा टल चुका था। कान की पीड़ा तेज हो गई थी। टपकते खून की बूंदों से मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ रहा था और आह-आह की ध्वनि में बदल रहा था।

दिल्ली गेट पर आकर काली ने सांस ली। ऑटो धीमे करते हुए बोला, “साहब, खून बहुत निकल रहा है।” साथ ही वो पीछे की ओर मुडा।

हवलदार को इतना अधिक दर्द था कि वो आँखें बन्द किए दोनों हाथों से कान पर रुमाल पकड़े, गर्दन झुकाकर पिछली सीट के कोने में सिमटा बैठा था।

“पहले पट्टी करवा लें तो खून रुक जाएगा।” काली ऑटो को किनारे रोकता हुआ बोला।
हवलदार के कंधे पर लगातार टपकती खून कि बूंदों से कमीज़ के एक हिस्से पर नया रंग उभर आया था। उसको खामोश देख, काली फिर बोला, “साथ के सरकारी अस्पताल ले चलूँ?”

थोड़ी देर तक हवलदार बिना हिले-डुले सिकुड़ा बैठा रहा, फिर सिर हिलाकर सहमति प्रकट कर दी।
पहली बार काली ने किसी पुलिस वाले को ऐसी दयनीय हालत में देखा था। उसे भीतर ही भीतर अद्भुत राहत हुई।

काली ने ऑटो अस्पताल के कैजुयल्टी के बाहर खड़ा कर दिया। डॉक्टर ने बताया कि कान में टांके लगेंगे। दोनों को माइनर ओ.टी. के बाहर बैठा दिया गया। थोड़ी देर चुपचाप बैठने के बाद हवलदार बोला, “तू यहीं रहियो, मुश्किल से बीस पच्चीस मिनट लगेंगे।”

“हाँ, हाँ मैं यहीं बैठा हूँ। आप फिक्र न करें।” काली हवलदार के भीतर छिपे सन्देह को भाँप गया।
डॉक्टर ने हवलदार को भीतर ओ. टी. में बुला लिया।
आधे घंटे बाद जब हवलदार ओ. टी. से बाहर निकला तो उसके कान में पट्टी बंधी थी। अब उसे पहले की तुलना में कम दर्द था।

ओ. टी. के बाहर बैंच को खाली देख हवलदार बेचैन हो उठा। उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई लेकिन काली कहीं नहीं दिखाई दिया। वो लगभग दौड़ लगाकर कैजुयल्टी गेट पर ऑटो देखने पहुंचा तो वहाँ ऑटो नहीं था। उसे अपनी मूर्खता पर क्रोध आ रहा था। एक भद्दी-सी गाली उसके मुंह से बाहर तक आ गई। वो बोला, “इन साले ऑटो वालों का कोई भरोसा नहीं, हरामी धोखेबाज हैं।”

चारों तरफ तसल्ली करने के बाद वो सड़क पर खड़ा हो गया और आते-जाते ऑटो रिक्शा को हैरत भरी निगाहों से देखता रहा।

कहानी: गजेन्द्र रावत (विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर कहानी प्रकाशित, तीन कहानी संग्रह प्रकाशित, कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार 2009 से सम्मानित।)

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