CAA के खिलाफ पूर्वोत्तर में फिर शुरू हुआ आंदोलन, 18 संगठन आए साथ

CAA के खिलाफ पूर्वोत्तर में फिर शुरू हुआ आंदोलन, 18 संगठन आए साथ

गुहाटी: पिछले साल नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के खिलाफ बड़े पैमाने पर असम समेत पूरे पूर्वोत्तर इलाके में हिंसा हुई थी। अब फिर से सीएए कानून के एक साल पूरे होने के मौके पर इलाके में नए सिरे से आंदोलन और विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गया है। इसमें असम के उन पांच परिवारों के लोग भी शामिल हैं जो बीते साल हुई हिंसा में मारे गए थे। अगले साल अप्रैल-मई महीने में असम में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।

बीते साल असम में सीएए आंदोलन के दौरान हिंसा भड़क गई है। तब पुलिस की फायरिंग में पांच युवकों की मौत हो गई थी। कई दिनों तक राज्य में हिंसा, कर्फ्यू और धारा 144 की वजह से सामान्य जनजीवन ठप हो गया था।

हालांकि, कोविड-19 के कारण लगे लॉकडाउन के कारण आंदोलन थम गया था, लेकिन अब फिर से इसकी बरसी पर दोबारा नए सिरे से आंदोलन शुरू हो गया है। काला दिवस के पालन के साथ इस आंदोलन की शुरुआत हो चुकी है। 18 संगठनों ने नार्थ ईस्ट स्टूडेंट्स आर्गनाइजेशन (नेसो) की अपील पर पूर्वोत्तर में काला दिवस मनाया। अब इस आंदोलन को और तेज करने की योजना है।

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फिर से सीएए के खिलाफ आंदोलन

नेसो के बैनर तले इलाके के तमाम संगठनों ने सीएए आंदोलन के एक साल पूरा होने के मौके पर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को इसको लेकर चेतावनी दी है। संगठनों ने कहा कि नागरिकता कानून के खिलाफ पूरा पूर्वोत्तर एकजुट है। इलाके में इस कानून को लागू करने के किसी भी प्रयास का कड़ा विरोध किया जाएगा। काला दिवस मनाने के साथ ही दोबारा शुरू हुए आंदोलन के दौरान राज्यभर में रैलियां निकाली गईं और प्रदर्शन किए गए।

सीएए कानून के खिलाफ प्रदर्शनकारियों ने काले झंडे दिखाए और नारेबाजी की। प्रदर्शनकारियों ने इस दौरान कहा कि काले नागरिकता कानून को रद्द किया जाए। साथ ही उन्होंने इसे असंवैधानिक, सांप्रदायिक और पूर्वोत्तर-विरोधी कानून करार दिया। माना जा रहा है कि नए सिरे नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन शुरू होने से खासकर असम में सत्तारुढ़ बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

केंद्र ने बीते साल 9 दिसंबर को पूर्वोत्तर के विभिन्न संगठनों के भारी विरोध के बीच उक्त कानून को लोकसभा में पेश किया था जिसके अगले दिन इसे पारित कर दिया गया था। राज्यसभा ने भी उसके एक दिन बाद यानी 11 दिसंबर को इस पर मुहर लगा दी थी। उसके अलगे दिन 12 दिसंबर को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के जरिए इसे कानून जामा पहनाया गया। लेकिन उससे पहले 10 दिसंबर को ही नार्थ ईस्ट स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेशन ने इसके खिलाफ पूर्वोत्तर बंद की अपील की थी। विधेयक पारित होने के बाद असम समेत पूर्वोत्तर को विभिन्न राज्यों में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन शुरू हो गए थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के असम दौरे पर उस दौरान उनका जबरदस्त विरोध हुआ था और काले झंडे दिखाए गए थे। उसके बाद राज्य में हिंसा और आगजनी की शुरुआत हो गई थी।

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धर्म आधारित नागरिकता का विरोध

नेसो के अध्यक्ष सैमुएल जेवरा ने बताया, “कोरोना महामारी और लॉकडाउन की वजह से हमने सीएए के खिलाफ अपना आंदोलन रोक दिया था। लेकिन हम अब पहले से भी बड़े पैमाने पर इसे जारी रखेंगे। बांग्लादेशियों के वोट के लालच में केंद्र सरकार ने पूर्वोत्तर के लोगों पर जबरन इस कानून को थोपा है। इसे रद्द नहीं करने तक हमारा आंदोलन जारी रहेगा। इलाके के लोग इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे।”

वहीं नेसो संगठन के सलाहकार समुज्जवल कुमार भट्टाचार्य ने कहा, “हम पूर्वोत्तर को बांग्लादेशियों के लिए कचरे का डब्बा नहीं बनने देंगे। पूर्वोत्तर के लोगों पर सीएए थोपने का फैसला बेहद अन्यायपूर्ण है। हम इस कानून के खिलाफ लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन जारी रखेंगे।” उनका कहना है कि इलाके के लोग धर्म के आधार पर नागरिकता देने वाले ऐसे किसी कानून को स्वीकार नहीं करेंगे।

असम आंदोलन का अस्सी के दशक में नेतृत्व करने वाला ताकतवर छात्र संगठन अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने भी किसी भी कीमत पर सीएए को लागू नहीं होने देने की बात कही है। आसू के अध्यक्ष दीपंकर नाथ और महासचिव शंकर ज्योति बरुआ ने राजधानी गुवाहाटी में इसको लेकर एक बयान जारी किया। अपने बयान में उन्होंने कहा कि केंद्र को इस विवादास्पद कानून को रद्द करना होगा। इसके विरोध में हुई हिंसा में पांच लोगों की मौत हो गई थी। अब तक उनके परिजनों को भी न्याय का इंतजार है।

हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पूरे केंद्रीय नेताओं के तरफ से ये सफाई दी जाती रही है कि सीएए किसी भी व्यक्ति की नागरिकता लेने के लिए नहीं लाया गया है। उनका कहना है कि कानून का मकसद पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से अत्याचार का शिकार होकर आने वाले अल्पसंख्यकों को नागरिकता देना है। लेकिन इसे असम के लोग अपनी पहचान और संस्कृति पर खतरा बताते हुए बाहर से आने वाले लोगों को नागरिकता दिए जाने का विरोध कर रहे हैं।

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क्या है असम के लोगों की आशंकाएं?

दरअसल, पूर्वोत्तर के लोगों को डर है कि इस कानून की आड़ में बीजेपी बांग्लादेश से बड़े पैमाने पर आने वाले घुसपैठियों को नागरिकता देने की योजना बना रही है। असम के लिए बांग्लादेश से घुसपैठ का मुद्दा बेहद संवेदनशील है। इस मुद्दे को लेकर छह साल तक असम आंदोलन भी चला था। इस कानून के खिलाफ कई संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में भी याचिकाएं दायर कर रखी हैं। राज्य सरकार में बीजेपी की सहयोगी असम गण परिषद भी इस कानून को लागू किए जाने के खिलाफ है।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सीएए खासकर असम के विधानसभा चुनावों में एक प्रमुख मुद्दा होगा। कैलाश विजयवर्गीय समेत बीजेपी के कई नेता जनवरी से इस कानून को लागू किए जाने की बात कह चुके हैं जिसके कारण आम लोगों में आशंकाएं बढ़ रही हैं।

हालांकि, बीजेपी के वरिष्ठ नेता हिमंत बिस्वा सरमा का दावा है कि असम में सीएए कोई चुनावी मुद्दा नहीं होगा। जबकि राजनीतिक पर्यवेक्षक सुनील कुमार डेका का मानना है कि सीएए का मुद्दा कोरोना की वजह से दब गया था। लेकिन अब नए सिरे से इसका विरोध शुरू होने से बीजेपी के लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। खासकर तमाम छात्र और युवा संगठन किसी भी हालत में इसे लागू नहीं होने के लिए कृतसंकल्प हैं।

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