गुलरेज़ शहजाद की कविताएं: ताश के पत्तों की तरह फेंटते रहे मुझे लम्हे

गुलरेज़ शहजाद की कविताएं: ताश के पत्तों की तरह फेंटते रहे मुझे लम्हे

[गुलरेज़ शहजाद उर्दू, हिंदी और भोजपुरी काव्य साहित्य का एक परिचित नाम है। इनकी नज़्मों, कविताओं और ग़ज़लों में कसक, दर्द, पीड़ा, ताप-संताप के साथ रुमानियत भी है और समय के बनते-बिगड़ते स्वरूप का वास्तविक चेहरा भी है। अभी तक उर्दू, हिंदी और भोजपुरी में आपकी छह कृतियाँ पुस्तक रूप में प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्य-संस्कृति के साथ सिनेमा से भी आपका जुड़ाव है। आप सक्रिय राजनीति में रहते हुए भी लगातार रचनाकर्म कर रहे हैं। वर्तमान में म्युनिसिपल कॉउन्सिल मोतिहारी में म्युनिसिपल काउंसेलर के साथ कॉउन्सिल की स्टैंडिंग कमिटी के सदस्य भी हैं।]

एक टुकड़ा मंज़र

तमाम दिन का थका हुआ है
ये जलता सूरज
जो बुझ रहा है

तमाम दिन जो कि
गहरी नींदों में डूबा था
वो निकल रहा है
कि चाँद है वो

जो सो रहे हैं ना जागते हैं
सितारे हैं सब

ये रात है
जो कि आलसी है
सियाह आँचल पसार कर जो
पसर गई है
*दराज़ लम्हा गुज़ार कर ये
सियाहियों के *सेहर समेटे
अंधेरी वादी में जाएगी तब
*सहर का चंचल *शरीर बच्चा
धम से कूदेगा
गुदगुदाएगा हमको उनको

1* दराज़-लंबा, 2* सेहर-जादू, 3* सहर-सवेरा, 4* शरीर-नटखट

ज़िन्दगी

कभी नज़दीक उसके जाने की
ख़्वाहिश हुई तो
बहुत ही तेज़ रफ़्तारी से
उसके पाँव भागे

कभी चुपके से उस पर
उंगलियाँ रक्खी
उछल कर दूर जा बैठी

उसी के ख़्वाब आंखों में लिए
इक उम्र जागा मैं
कई रातें मेरी आँखों में
जलते रतजगों का मर्सिया
तहरीर करती थीं

अजब ये सानेहा है
उम्मीदों के घड़े औंधे उलट कर
थकन से चूर होकर
अपनी जानिब जब चला आया
तो फिर ये ज़िन्दगी
चल कर
मेरे नज़दीक आ कर
मेरी गर्दन में बांहें डाल दी है
जैसे खुद से ये
उकता गई है

नियति

समय काला नहीं फिर से
मुझे स्वीकार कर पाया
मेरी नियत पे नियति का
विजय अभियान जारी है

मेरे दुर्भाग्य ने फिर से मुझे
ख़ारिज किया आखिर
समय की काई पर फिर से
फिसल कर गिर गया रिश्ता
जो प्यारा था, सहारा था

बढ़ा कर पग मैं अपना
फिर उसी पत्थर पे आ ठहरा
कि जिसके साथ
गठबंधन निभाते उम्र गुज़री है

सवाल

ताश के पत्तों की तरह
फेंटते रहे मुझे लम्हे
उम्र,चाल भूल गई
वक़्त और ज़िन्दगी के खेल में
हार गया बाज़ी लेकिन
मैं कैसे?

बुढ़ापा

तक़रीबन सत्तर साल का

एक बूढ़ा

जिसे मैं ले आया

अपने घर

जो गुज़ार रहा है

अपना वक़्त

अपनी मर्ज़ी से

मैं अपना बुढ़ापा

जी रहा हूँ

उस में

महसूस कर रहा हूँ खुद को

उसके अंदर

तलाश कर रहा हूँ

अपना माज़ी

और

गोते लगा रहा हूँ

मुस्तक़बिल के

नादीदा समुंदर में

देख रहा हूँ

उसकी आँखों में

अपने ख़्वाब

उसके क़दमों में

अपनी तेज़गामी

उसकी थकान में

तहलील होती

अपनी रातें

उसकी बेख़्वाबियों में

छटपटाती

अपनी नींदें

मेरी जवानी पर

मेरा नादीदा बुढ़ापा

हो जाता है हावी

और

इस अंधेरे मुश्किल वक़्त में

मेरी छोटी-सी बेटी

दिखने लगती है

माँ जैसी

बूढ़े

आवारा नदियों का तिलिस्म

किसी बुझती आंखों में

तलाश करती हुई

मेरी आँखें

कुछ तय नहीं कर पातीं

सिगरेट से निकलने वाले

धुएं के तसलसुल में

हम तलाश कर सकते हैं

कहानियों का सरमायाः

बचपन की सरहद को पार कर के

सौंधी उम्र की दहलीज़ पर

धम्म से कूदी होगी

जवानी

महक से बौराई होगी फजाएँ

सूखी लकड़ी के तने सा

कमज़ोर जिस्म

कभी बजा होगा

बांसुरी जैसा

हवाओं ने की होंगी

सरगोशियां

अभी भी उन में

ज़िंदा होंगे

हरे भरे जंगल के गीत

झरनों के नग़मे

पहाड़ों के संगीत

गांव की धुन

शहरों की तान

उजले दिन

कजरारी शामें

कपूरी चांदनी

शबनमी रातें

और

ये बूढ़े

डाल दिए गए हैं

घर के किसी नामुराद कोने में

ग़ैरज़रूरी सामान की तरह

मौत के क़र्ज़दार

ये बूढ़े

हमारी अमानत हैं

ज़िंदगी की ज़मानत हैं

-गुलरेज़ शहजाद

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