भोर का सपना: नोट से गायब गांधीजी की तस्वीर रह-रहकर उभर रही है!

भोर का सपना: नोट से गायब गांधीजी की तस्वीर रह-रहकर उभर रही है!

किसी बहुत बड़े सरकारी अस्पताल के वार्ड से निकल रहा हूँ। शायद मुझे डिस्चार्ज किए जाने की प्रक्रिया चल रही है। मुझसे कहा गया है कि मैं अपना बैग, पर्स, चश्मा आदि डिस्चार्ज डेक्स से जा कर ले लूँ।

धीरे-धीरे चलकर मैं डिस्चार्ज डेस्क के पास पहुंचता हूं। एक अधेड़ उम्र की नर्स अपने मोबाइल पर किसी को बधाई दे रही है। मुझे देखकर अपनी दो उंगलियाँ दिखते हुए दो मिनट इन्तज़ार करने के लिए कहती हैं।

नहीं मालूम क्यों मुझसे खड़ा नहीं रहा जा रहा है। मैं वहीं बगल में खाली पड़ी कुर्सी पर जाकर बैठ जाता हूँ। सब कुछ बड़ा अजीब-सा लग रहा है। लोगों के कपड़े और हाव-भाव बिल्कुल बदले-बदले से लग रहे हैं।

थोड़ी देर में ही सिस्टर मेरा नाम पुकारती है। मैं हड़बड़ाकर उठना चाहता हूँ लेकिन तेजी से खड़ा नहीं हो पाता। आहिस्ता-आहिस्ता डिस्चार्ज डेस्क के करीब पहुंचता हूँ।

सिस्टर मेरा कुछ सामान मेरे हवाले करती है और एक फाइल मेरी तरफ बढ़ाते हुए हस्ताक्षर करने के लिए कहती है। मैं चुपचाप हस्ताक्षर कर देता हूं। नर्स हस्ताक्षर के नीचे तारीख डालने के लिए कहती है। दिमाग में काफी जोर देने पर मुझे तारीख याद नहीं आ रही है। मैं नर्स की ओर देखते हुए कातर स्वर में पूछता हूं- “आज कितनी तारीख है सिस्टर?” वह बताती है “27 मई, 2023”

मैं उनके मुंह से यह तारीख सुनकर चौंक उठता हूँ।” 2023, यह क्या कह रही है सिस्टर। मई 2020 है न।”

वह हल्की मुस्कान बिखेरते हुए कहती हैं- “जब आप हॉस्पिटल में भर्ती हुए थे, वह साल 2020 का था। आप पिछले तीन सालों से कोमा में भर्ती थे। सभी ने उम्मीद छोड़ दी थी कि आप कभी अपने पाँव पर खड़े हो पाएंगे। लेकिन डॉ. अश्विनी कुमार को न जाने किस करिश्मा का इंतजार था। उनकी ही मेहनत और उम्मीद का नतीजा है कि आज आप अपने घर जा रहे हैं।”

मैं नहीं जानता कि मुझे तीन साल से कोमा में किस वजह से भर्ती रखा गया था। मैंने उत्सुकतावश सिस्टर से पूछा- “मुझे क्या हुआ था सिस्टर।” सिस्टर ने बताया कि “तीन साल पहले आप मीलों पैदल यात्रा कर रहे थे। अचानक आप बेहोश होकर गिर पड़े। फिर धीरे-धीरे आपकी स्थिति इतनी खराब हो गई कि आपको कोमा में शिफ्ट करना पड़ गया। पूरे तीन साल के बाद आपको होश आया है।”

मुझे कुछ-कुछ याद आने लगा है। बहुत उमस भरा दिन था। गर्म हवाओं ने अपना जाल बुन दिया था। खाने-पीने का कोई ठिकाना न था। काम बंद हो गया था। जेब में उतने पैसे नहीं बचे थे कि बिना किसी काम-धाम के गुजरा चलता। बस एक लालसा बची थी कि किसी तरह अपने गाँव पहुंच जाएं।

कई-कई समूह साथ चल रहे थे। ठीक उतनी ही भीड़ थी जैसे सावन के महीने में भोले बाबा को जल चढ़ाने के लिए हजारों कावड़ियाँ एक साथ चला करते हैं। बस फर्क यह था कि हम लोगों के साथ पैदल चलने वाले समूह में नन्हे-नन्हे बच्चे, गर्भवती स्त्रियाँ, बहुत सारे बुजुर्ग लोग भी शामिल थे।

सड़क की काली जीभ पर लाल-लाल धब्बे साफ दिखायी दे रहे थे। इन्हीं सड़कों पर कुछ बच्चों और बूढ़ों की जीवन-लीला समाप्त होते अपनी फटी आँखों से देख रहा था। फिर भी मन को काठ बना कर आगे बढ़ा जा रहा था।

अचानक से मानो मेरी तंद्रा भंग होती है। मैं सिस्टर से डॉ. अश्विनी कुमार के बारे में पूछता हूं- “डॉ. अश्विनी से मिल सकता हूं सिस्टर।” वह बहुत गंभीर होते हुए जवाब देती है- “वे इस समय विदेश के दौरे पर हैं। अगले महीने तक लौटकर आएंगे। आपको दोबारा उसी समय आना है उन्हें दिखाने के लिए। उसी समय आप आ जाइएगा तो उनसे मिलना भी हो जाएगा।” फिर नर्स स्नेहहिल भाव से कहती हैं- “अभी आप घर जाइए और आराम कीजिए। दवाइयां ठीक वक्त पर लेते रहियेगा।”

उनसे कुछ और पूछना चाहता हूँ लेकिन मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी। मैं अपने परिवार, दोस्तों, रिश्तेदारों के बारे में पूछना चाहता था लेकिन न जाने क्या सोचकर चुप रह गया।

फिर धीरे-धीरे हॉस्पिटल के रास्ते से होते हुए सड़क तक पहुंचता हूं। वहां इक्का-दुक्का आटो दिखाई पड़ते हैं। मैं एक ऑटो वाले से पूछता हूं- “भरत नगर चलोगे भाई।” वह बिना किसी हील-हुज्जत के राजी हो जाता है और आटो की सीट पर बैठने का इशारा करता है।

मैं चुपचाप ऑटो की सीट पर जाकर बैठ जाता हूं। सड़कें खाली दिख रही है। इक्का-दुक्का गाड़ियाँ चलती दिखायी पड़ रही हैं। इतनी खाली सड़कें देख कर मैं जिज्ञासा से भर उठता हूँ। ऑटो वाले से पूछता हूँ कि रोड इतना सुनसान क्यों है? आटो वाला मेरे सवाल का जवाब देने के बजाय मुझसे सवाल करता है- “क्या आप विदेश से आए हैं?” मैं ‘हां’ में जवाब देकर चुप रह जाता हूँ। फिर वह बताता है कि तीन साल पहले जब कोरोना वायरस का भयानक प्रकोप पूरी दुनिया में फैला हुआ था। उस वक्त ज्यादातर लोग अपने-अपने गाँव भाग गए। फिर वापस लौटकर दोबारा शहर का मुखड़ा नहीं देखा।

अचानक मुझे हॉस्पिटल में सिस्टर की तारीख वाली बात याद हो आती है। मैं ऑटो वाले से तारीख पूछता हूं। वह बताता है- 27 तारीख। महीना? वह एक बार पीछे पलट मुझे संदेह भरी नजरों से देखता है। फिर कहता है-“देखते नहीं है साहब! किस तरह आसमान से अंगारे बरस रहे हैं। पानी के एक बूँद का नामोनिशान तक नहीं। मई के महीने में ही ये हाल है।” वह कुछ और कहता उससे पहले मैं पूछ बैठता हूँ- “यह साल कौन-सा है भाई।” ऑटो वाले को लगता है कि मैं उससे दिल्लगी कर रहा हूं। वह छनछना उठता है। फिर अचानक कहता है- “लगता नहीं है कि आप विदेश से आए हैं। “तो क्या लगता है तुम्हें।” वह ऐंठकर बोलता है- “लगता है आप किसी अंतरिक्ष से आए हैं।”

“अरे कहीं से आए हैं। क्या फर्क पड़ता है। बता तो भाई कौन-सा साल है।” मुझे गिड़गिड़ाता हुआ देख शायद उसका मन पसीज जाता है। वह कोई बाजी जीत लेने वाली एक अजीब तरह की हंसी के साथ कहता है “2023 है जनाब।”

नर्स वाली बात सच साबित होते देख मैं सकते में आ जाता हूँ। इसी तरह मैं आटो ड्राइवर से कुछ और सवाल पूछता हूँ। अब उसे लगता है कि मैं किसी नशे में हूँ और उससे ऊल-जलूल सवाल पूछ कर उसका दिमाग चाट रहा हूँ। वह अब मेरे हर बात का चिढ़कर जबाब देने लगा है।

रास्ता एकदम साफ होने के कारण जल्दी ही भरत नगर पहुंच गया हूँ।

मैं उससे किराया पूछता हूं। वह मीटर देख कर किराया बताता है 769 रुपया। अब मैं उससे डपटकर कहता हूँ- “यहां तक का किराया डेढ़ सौ से ज्यादा नहीं होना चाहिए। तुम इतना कैसे मांग रहे हो?” वह भी तैश में आकर कहता है- “तीन साल पहले डेढ़ सौ क्या, सौ में ही ले आते थे। पर अब इतना ही लगता हैं।” मैं महसूस करता हूं कि मुझमें बहस करने की शक्ति नहीं बची है।

मैं चुपचाप अपनी जेब से पर्स निकलता हूँ। एक पाँच सौ, दो सौ और सौ का नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ा देता हूँ। वह जैसे ही नोट को अपने हाथ में लेता है, मुझ पर बुरी तरह से भड़क उठता है- “यह क्या मजाक कर रहे हैं साहब! कौन-सा नोट दे रहे हैं आप मुझे?” “क्या हुआ इस नोट में?” मैं आश्चर्य से सवाल पूछता हूँ।

“क्या हुआ इस नोट में। अरे यह नोट रद्दी है। एक साल पहले ही इस नोट को सरकार ने वापस ले लिया था।” वह बताता है कि यह नोट तो पुराना हो चुका है। अब नहीं चलता। फिर भी मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूँ- “अरे यार, यह नोटबंदी के बाद वाला ही तो नोट है।” वह बहुत आवेश में आकर कहता है-“साहब हमको नहीं लगता कि आप किसी अंतरिक्ष से भी आए हैं। मुझे लगता है कि आप किसी पागलखाने से भाग कर आए हैं। सात साल पहले जो नोटबंदी हुआ था उस समय आपका यह नोट चलता था। फिर नोट बंदी के ठीक छह साल बाद नोटबदली हुआ था, नोटबदली! आपने अपना नोट क्यों नहीं बदलवाया था पिछले साल? कौन लेगा इस नोट को अब?”

वह लगातार मेरे ऊपर बदहवास की तरह चीखने-चिल्लाने लगता है। उसकी आंखों से मानो खून टपक पड़ेगा। मैं किसी अनहोनी के भय से काँपने लगा हूँ। घबराहट से मेरा गला सूख रहा है। फिर भी मैं उसे समझाने की गरज से कहता हूँ- “यह नया नोट ही है भाई। नोटबंदी के बाद वाला ही है।” वह मेरी बात मानने को राजी नहीं होता और अपनी बात पर उसी तरह अड़ गया है जैसे लंकापति रावण के दरबार में अंगद ने अपना पांव अड़ा दिया था। हार-पार कर फिर मैं उससे कहता हूँ” जरा दिखाओ मुझे अपना नया नोट।”

वह एक झटके से अपनी जेब के अंदर हाथ डालता है और कई सारे नोट निकालकर मेरी तरफ बढ़ाता है। एक नजर में लगता है नोट तो वही है। मैं उस नोट को गौर से देखता हूं। अरे ये क्या? नोट देखकर हैरान रह जाता हूं। मुझे लगता है कि शायद मैं कोई सपना देख रहा हूँ।

उसके पास जो नोट है उसमें गांधीजी की तस्वीर गायब है। उनकी जगह किसी ऐसे व्यक्ति की तस्वीर है जो कुर्ता पहने हुए हैं। उसके ऊपर गहरा नीला कोट। खिला हुआ चेहरा। फैला हुआ सीना। आंखों में चश्मा। झक सफेद बाल। फ्रेंच कट दाढ़ी। मैं सभी नोटों को बारी-बारी से देखता हूं।

हर नोट में चेहरा तो उसी व्यक्ति का है लेकिन मुद्रा और परिधान बदला हुआ। तस्वीर का ऐंगल भी हर नोट में अलग-अलग है। कुछ तस्वीर तो इतना जीवंत लग रहा है मानो नोट से बाहर निकलकर वह मेरा अभिवादन स्वीकार कर लेगा। सचमुच यह चेहरा काफी जाना-पहचाना लग रहा है। दिमाग में बहुत जोर दे रहा हूँ। इस तस्वीर में दिख रहे शख्स का नाम याद नहीं आ पाने की वजह से मैं दंग रह गया हूँ। मन कचोट रहा है। मुझे अपनी कमजोर याददाश्त पर भयानक कोफ्त होने लगी है।

इतने में ऑटो वाला झिड़ककर मेरे हाथ से अपना दिया हुआ नोट छीन लेता है। और न जाने लगातार क्या-क्या बुदबुदाये जा रहा है।

मेरी आंखों के आगे रह-रह कर नोट से गायब गांधीजी की तस्वीर उभर रही है। ऐसा लग रहा है मानो किसी ने मेरे कान के पास ‘रघुपति राघव राजा राम, पतितपावन सीता राम’ की तेज धुन बजा दी हो। इस धुन की आवाज निरंतर बढ़ती जा रही है। अचानक से मेरी नींद खुल गई है।

-पंकज शर्मा (विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लेखन। कई वर्षों तक ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका के संपादन से जुड़े रहे। फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापन।)

Leave a Reply

Your email address will not be published.