हिंदी परंपरा के आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा को आप कितना जानते हैं?

हिंदी परंपरा के आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा को आप कितना जानते हैं?

डॉ. रामविलास शर्मा के महत्व का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उनके आलोचनात्मक लेखन के प्रारंभिक दौर (चालीस के दशक) से लेकर आज उनके निधन के बीस वर्ष बाद तक वे बहस के केंद्र में हैं। इधर, नामवर जी के निधन पर और रेणु के जन्म शताब्दी पर भी उनके लिखे पर वाद-विवाद होते रहे हैं। कोई लेखक बिना ठोस काम के इतने लंबे समय तक बहस के केंद्र में नहीं रह सकता।

डॉ. शर्मा के विपुल लेखन में एक केंद्रीय धारा या चिंता स्पष्ट दिखाई देती है, जिसके बारे में बात होती रही है; वह है साम्राज्यवाद-सामंतवाद-पूंजीवाद विरोध। वे उस पीढ़ी के लेखक रहे हैं जिन्होंने साम्राज्यवाद को प्रत्यक्षतः महसूस किया है और उसके विरुद्ध चलने वाले संघर्ष को देखा है। इसलिए वे साम्राज्यवाद विरोध पर सर्वाधिक बल देते दिखाई देते हैं और उन लेखकों की आलोचना करते हैं जो भारतीय परम्परा के सामंतवादी मूल्यों की तो जी जान से आलोचना करते हैं मगर साम्राज्यवाद पर चुप रहते हैं।

ऐसा नहीं की वे सामन्तवाद का विरोध नहीं करते। वे परंपरा का मूल्यांकन करते हैं और दिखाते हैं कि हमारी परंपरा में परस्पर विरोधी मूल्यों का द्वंद्व है, संघर्ष है। हमें परम्परा के उन मूल्यों को आत्मसात करना चाहिए जो हमारे वर्तमान और भविष्य के लिए सार्थक हो सकते हैं, तथा उन मूल्यों को त्याग देना चाहिए जो निर्रथक हैं। सामंती समाज के दौर में रचित साहित्य में भी ऐसे मूल्यों की कमी नहीं रही है। इस दृष्टि से वे ऋग्वेद, रामायण, महाभारत, कालिदास से लेकर तुलसीदास, निराला तक के साहित्य में सामंत विरोधी श्रमवादी मूल्यों को चिन्हांकित करते हैं। वे इन रचनाकारों के अंतर्विरोधों को समझते हैं; मगर उनके युगीन सीमाओं को भी समझते हैं और अपने युगीन सीमाओं मे किये उनके सकारात्मक रचनात्मक योगदान को महत्ता प्रदान करते हैं। प्रगतिशील आलोचकों से उनकी बहस मुख्यतः इसी बिंदु पर हुई है।

रामविलास जी केवल साहित्यिक आलोचक नहीं थे। वे आलोचक से चिंतक की मंज़िल तक पहुँच चुके थे। हालांकि, उनके व्यवहारिक आलोचना का काम ही इतना बड़ा है कि किसी भी आलोचक के लिए चुनौती हो सकता है। प्रेमचंद, भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, निराला के लेखन का समग्र मूल्यांकन साधारण काम नहीं है। आलोचना का विभिन्न आयामों में जितना विस्तार उन्होंने किया, वह दुर्लभ है। जिस तरह मुक्तिबोध अपनी कविताओं के लम्बी होने के बारे में लिखते हैं कि यथार्थ के विभिन्न आयाम परस्पर गुंफित होते हैं इसलिए उसके चित्रण में कविताएं लम्बी होती चली जाती हैं, उसी तरह डॉ. शर्मा किसी समस्या की समग्र पड़ताल करते विभिन्न अनुशासनों में चले जाते हैं। मसलन वे साम्राज्यवादी दृष्टि की पड़ताल करते हैं तो उसके लिए साहित्य, दर्शन, इतिहास, भाषा विज्ञान जैसे कई अनुशासनों की पड़ताल कर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

रामविलास जी की विश्वदृष्टि और आलोचना पद्धति मार्क्सवादी द्वंद्ववाद से विकसित हुई है। वे हिंदी के मार्क्सवादी-लोकवादी आलोचना के सबसे सशक्त हस्ताक्षर हैं। कविता हो या उपन्यास वे जन-जीवन के यथार्थ चित्रण को पसन्द करते हैं। इसी कारण वे प्रेमचंद के उपन्यास तथा निराला-केदार-नागार्जुन की कविताओं को पसंद करते हैं। लेकिन लोकजीवन द्वंद्व रहित नहीं होता। उसके अपने अंतर्विरोध और समस्याएं होती हैं जिनका चित्रण रचनाकार से अपेक्षित होता है।उन्हें लोकजीवन का संघर्षात्मक पक्ष भाता है। यही कारण है कि उन्हें रेणु की अपेक्षा प्रेमचंद अधिक पसन्द आते हैं। रेणु के उपन्यासों में वे एक तरह से प्रकृतवाद का प्रभाव देखते हैं जहां उन्हें ग्रामीण जीवन के उल्लास, गरीबी का उदात्तीकरण, संघर्ष की अपेक्षा रोमांस अधिक दिखाई देता है।

डॉ. शर्मा के लेखन से गुजरने पर यह बराबर अहसास होता है कि उनमें एक तरलता है; उस पर ‘अकादमिक’ लेखन का दबाव नहीं है। वह स्वीकार भी करते हैं कि जनता को शिक्षित (जागृत) करना ज्यादा जरूरी है। इसलिए वे गंभीर से गंभीर विषय का विवेचन भी इस तरह करने का प्रयास करते हैं कि विशेषज्ञों के अलावा सामान्य पाठक भी उसे समझ सके। इसका मतलब यह नहीं कि वे ‘नीमरोशनी में तीर चलाते हैं’ जैसा कि कुछ लोग जिनका की ख़ुद का सम्बन्धित विषय मे विशेषज्ञता संदिग्ध है, उन पर आरोप लगाते हैं। ज़ाहिर है किसी भी लेखक की तरह उनकी भी सीमाएं हैं। बहुतों ने उसे रेखाँकित किया है; किया जा रहा है। यह परम्परा के मूल्यांकन का ही अंग है, जिस पर वे ताउम्र काम करते रहे।

रामविलास जी कहते रहे- “मेरे लिए लेखन अपने राजनीतिक दायित्वों का निर्वहन भी है।” इसलिए उनका लिए लेखन सोद्देश्य है। वे हिंदी के विशाल पाठक वर्ग को राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से जागृत करना चाहते थे और इस कार्य मे साहित्य को भी अहम मानते थे, और साहित्यकारों से ऐसी अपेक्षा रखते थे। लेकिन इसके लिए कलात्मकता की अपनी शर्तों को नज़रअंदाज नहीं करते थे। यदि उन्होंने ‘कलावाद’ की कठोर आलोचना की है तो साहित्य के नाम पर ‘गर्जन तर्जन’ करने वालों को भी नहीं बख्शा है।

डॉ. शर्मा के विवेचन में यह बात लक्षित किया जा सकता है कि किसी साहित्यकार के मूल्यांकन करते समय वे समाज पर उसके व्यापक प्रभाव का ध्यान रखते हैं। और यदि उसके साहित्य ने समाज और साहित्य को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है तो वे उसके अंतर्विरोधों को अपेक्षाकृत कम महत्व देते हैं। यानी लेखक यदि अपने युगीन सीमाओं और अंतर्विरोधों में रहते यदि उससे पार जाता दिखाई देता है तो यह उनके लिए प्रगतिशील कदम है। इस दृष्टि से उनके तुलसीदास, भारतेंदु, रामचन्द्र शुक्ल, निराला आदि के मूल्यांकन को देखा जा सकता है। मसलन, भारतेंदु की रचनाओं में राजभक्ति और साम्राज्यवाद विरोध (देशभक्ति) दोनों है। डॉ. शर्मा उनकी राजभक्ति को भी रेखाँकित करते हैं मगर युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में उनके साम्रज्यवाद विरोध को अधिक महत्व देते हैं। जो लोग उनके द्वारा भारतेंदु के ‘राजभक्ति’ को नज़रअंदाज करने का आरोप लगाते हैं वे अक्सर भारतेंदु के ‘ब्रिटिश सरकार की आलोचना’ को नज़रअंदाज करते दिखाई देते हैं। इस बलाघात के अंतर की दोतरफा पड़ताल की जानी चाहिए।

क्या रामविलास जी सामाजिक अंतर्विरोधों मसलन जाति के प्रश्न को कम महत्त्व देते हैं? जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है वे स्वतंत्रता आंदोलन के उस पीढ़ी के लेखक हैं जिनकी चेतना और व्यक्तित्व में साम्राज्यवाद विरोध और प्रगतिशील आंदोलन के प्रभाव में मार्क्सवादी सर्वहारा की मुक्ति की अवधारणा प्रबल रही है; इसलिए वे समाज को मुख्यतः वर्गीय दृष्टि से देखते हैं। उनके यहाँ यह धारणा प्रबल है कि जैसे-जैसे पूंजीवाद का अंतर्विरोध बढ़ता जाएगा जातिगत अंतर्विरोध खत्म होते जाएंगे और वर्गीय चेतना प्रबल होती जाएगी। जाहिर है ऐसा नहीं हो सका है क्योंकि पतनशील पूंजीवाद सामंती और साम्प्रदायिक राजनीति को लगातार हवा देकर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। ज़ाहिर है नयी परिस्थितियों में नयी रणनीति और दृष्टि की आवश्यकता होती है, मगर इसके लिए पूर्व के अध्येताओं को सिर्फ इसलिए दोष नहीं दिया जा सकता कि उनका निष्कर्ष सही साबित नहीं हुआ। अनुमान की असफलता और बदनीयती दो भिन्न चीजें हैं।

जाति का प्रश्न सामंती मूल्यों से जुड़ा हुआ है। रामविलास जी के लेखन में सामंतवाद का सर्वत्र विरोध है। अपने जीवन के आख़िरी अधूरी किताब ‘भारतीय सौंदर्यबोध और तुलसीदास’ में वे सामंती मूल्यों और पुरोहितवाद का विरोध करते हैं। पुस्तक में एक अध्याय का उपशीर्षक ही ‘पुरोहित-विरोध और लोकायत'(पृ.162) है। ऋग्वेद सहित प्राचीन साहित्यों के अध्ययन में उनका दृष्टिकोण क्या है? “ऋग्वेद में शारीरिक और मानसिक श्रम में विभाजन नहीं हुआ, यह उसकी बहुत बड़ी विशेषता है जो संसार के किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं है। यह हमारा अतीत था और और यह हमारा भविष्य भी होना चाहिए।” (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रफेश भाग-एक पृ.11)वे वेदों की ओर लौटने की नहीं श्रम की महत्ता की ओर लौटने की बात करते हैं।

बदलती परिस्थितियों में, नए साक्ष्यों के आईने में स्वयं का मूल्यांकन करते रहना और जरूरी हो तो अपनी पुरानी धारणाओं में बदलाव लाना सकारात्मक है। मगर अवसरवाद भी एक चीज होती है। पहले किसी भी मसले पर अपनी ठोस राय न दो, ढुलमुल रहो, कोई रचनात्मक हस्तक्षेप न करो और हालात बदलने पर नए समझौते करो और ख़ुद को बदलते रहने का ढोंग करो यह अवसरवाद है। रामविलास जी इस तरह हरदम ‘पोलिटिकली करेक्ट’ होने की नीति पर नहीं चलते थे। वे अपनी ‘समझ’ पर दृढ़ रहते थें, जो उनसे असहमत रहते उनसे बहस करते, जबाव देते, प्रत्युत्तर भी मिलता। यही तो आलोचना का रास्ता है। ऐसा नहीं कि उन्होंने किसी का रास्ता रोक रखा था। उनकी असहमति के बावजूद कई कृतियों, विचारों, लेखकों की प्रतिष्ठा हुई है।

रामविलास जी के महत्व में एक पहलू उनके व्यक्तित्व का भी है। उन्होंने जैसा जीवन जिया, वह एक उदाहरण है। अपने तमाम पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करते, एक सामान्य कॉलेज में अध्यापन करते, बिना किसी अकादमिक पद प्रतिष्ठा के लोभ के, पुरस्कारों की राजनीति से दूर रहकर हिंदी को समृद्ध करने में जो योगदान दिया वह दुर्लभ है। उनके पत्रों और जीवन को पढ़ने से पता चलता है कि अपनी पत्नी की अस्वस्थता के चलते, उनकी देखभाल के लिए वे कई महत्वपूर्ण आयोजनों में भी भाग नहीं लेते थे। उनके ठेठ सादगी पूर्ण जीवन का कइयों ने जिक्र किया है। उचित ही उन्हें किसानी चेतना का आलोचक कहा जाता है।

साम्राज्यवाद केवल राजनीतिक नहीं होता। राजनीतिक प्रभुत्व के साथ ही वह अधिग्रहित देश की कला, साहित्य, संस्कृति का अपनी कल्पित श्रेष्ठताबोध की दृष्टि से आकलन करता है। ज़ाहिर है इस अध्ययन दृष्टि में दूसरे के योगदान को कमतर दिखाने की अनिवार्य प्रवृत्ति होती है। भारत सहित पूर्वी देशों के प्रति इस ‘प्राच्यवादी दृष्टि’ की सीमाओं को रेखांकित किया जाता रहा है। रामविलास जी का लेखन इस दृष्टि का प्रतिपक्ष है। उन्होंने इतिहास, दर्शन, भाषा विज्ञान जैसे अनुशासनों से ‘तथ्य’ प्रस्तुत कर कुहासा को हटाने का काफ़ी सफल प्रयास किया है। अवश्य इसमें कहीं-कहीं उनसे अतिरंजना और चूक हुई है, जिस पर विभिन्न विद्वानों ने ध्यानाकर्षण किया है; मगर वे अतार्किक कहीं नहीं हैं। अक्सर यह देखा जाता है कि ‘तथ्यों’ की बहुलता में, अपनी पसंद के ‘तथ्य’ पर अधिक बल देने से निष्कर्ष भिन्न निकलते हैं। किसी भी दूसरे लेखक की तरह रामविलास जी भी स्वभाविक रूप से अपनी पसंद के ‘तथ्य’ पर अधिक बल देते हैं। लेकिन इसको क्या कहें कि रामविलास जी ऐसा करें तो गलत, और दूसरे करें तो सही!

जब रामविलास जी भारतीय सभ्यता की देन को रेखांकित करते हैं तो उनका दृष्टिकोण सम्प्रदायवादियों से निर्णायक रूप से भिन्न होता है। साम्प्रदायिक इतिहास दृष्टि कहती है भारत प्राचीनकाल से एक जातीय (नस्ल), एक भाषायी, एकधर्मी रहा है। रामविलास जी निष्कर्ष निकालते हैं भारत प्राचीन काल से ही बहुभाषी, बहुजातीय, बहुधर्मी रहा है। अपनी भाषा विज्ञान सम्बन्धी विवेचन में उन्होंने किशोरीदास वाजपेयी की इस मान्यता को आगे बढ़ाया की हिंदी सहित अन्य देशी भाषाएं संस्कृत की पुत्री भाषाएं नहीं हैं, अपितु प्राचीनकाल से ही गण समाजों के दौर में भी विभिन्न गणों की अलग-अलग भाषाएं थी, जिनमें परस्पर अन्तःक्रिया और लेन-देन का सम्बन्ध रहा है। अब यह बात सर्वमान्य है कि ‘आर्य’ एक भाषायी समूह है न कि कोई ‘नस्ल’, बावजूद इसके इस शब्द का गलत प्रयोग किया जाता रहा है। इस क्रम में वे दिखाते हैं भारत सदैव भाषायी तत्वों का आयातक देश नहीं रहा है यहां से भाषायी तत्वों का निर्यात भी होता रहा है। इसी तरह दर्शन में भी यदि पश्चिम ने पूर्व को प्रभावित किया तो पूर्व ने भी पश्चिम को प्रभावित किया, इस संदर्भ में रामविलास जी प्राचीन यूनानी दर्शन में तत्कालीन भारतीय दर्शन का प्रभाव दिखाते हैं।

रामविलास जी ने मार्क्सवाद और भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद पर काफ़ी लिखा है। उनकी अधिकांश किताबों के शीर्षक में भी मार्क्सवाद जुड़ा हुआ है। नामवर जी व्यंग्य में लिखते हैं कि पहले उनकी किताबों में मार्क्सवाद जुड़ा रहता था, बाद में उनमें वेद अथवा वैदिक जुड़ने लगा। किसी ने उचित ही लक्षित किया है कि उनके अंतिम दौर की किताबों में ‘भारत’, ‘भारतीय’ शब्द भी जुड़ता रहा, जिस पर व्यंग्य करने वाले ध्यान नहीं देते। रामविलास जी के समग्र लेखन से गुजरने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके लिए न तो ‘वैदिक प्रेम’ नया था, न भारतीय देन की चिंता, न ही वे मार्क्सवाद से कभी अलग हुए।

भारतीय सामंती समाज के किसी भी सामंती समाज की तरह अपने अंतर्विरोध थे। मगर यह सामंती समाज सदैव स्थिर नहीं रहा। अवश्य उत्पादन के पिछड़े पद्धति के अनुरूप लंबे समय तक इसमें उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं दिखाई देता। मगर पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में आगरा, सूरत, दिल्ली जैसे शहरों के बड़े व्यापारिक केंद्र के रूप में उभरते हैं। व्यापारिक विनिमय में तेजी आती है। मुद्रा के चलन से श्रमिकों को नगद पगार देने के उदाहरण मिलने लगते हैं। बर्नियर जैसे विदेशी यात्रियों के हवाले से भी इसके साक्ष्य मिलते हैं। रामविलास जी ने इसके व्यापारिक पूंजीवाद की स्थिति कहा है, जो औद्योगिक पूंजीवाद का पूर्वरूप होता है। यह उदाहरण वे भारतीय समाज के सापेक्षिक गतिशीलता के लिए प्रस्तुत करते हैं। इस तरह रामविलास जी ब्रिटिश पूर्व ‘स्थिर ग्राम समाज’ की अवधारणा से असहमति जताते हैं। वे इस सम्बंध में मार्क्स के प्राम्भिक और बाद के दृष्टिकोण में आये बदलाव को रेखांकित करते हैं।

सन सत्तावन की राज्य क्रांति के सम्बन्ध में भी डॉ. शर्मा की वही दृष्टि काम करती है कि अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष में परिणित हुआ, सामन्तों, सिपाहियों के साथ किसान भी आंदोलन में शामिल हुए; संघर्ष के नियमन के लिए औपचारिक संगठन के दिशा में एक हद तक प्रयास हुए। इसलिए यह देश को आगे ले जाने वाला कदम था। इसमें सामन्तों के व्यक्तिगत हित के साथ आमजन के हित भी घुल-मिल गए थे, इसलिए वे इसे स्वतंत्रता आंदोलन कहते हैं, और उन लोगों की आलोचना करते हैं जो इसे केवल सामन्तों के स्वार्थ की लड़ाई के रूप में देखते हैं।

कुछ लोग साम्राज्यवाद के शोषण को कम करके देखते हैं और ब्रिटिश साम्राज्य की ‘प्रगतिशीलता’ पर विश्वास करते हैं।यह सच है कि ब्रिटिश शासन से शिक्षा का विस्तार हुआ, कई कुरीतियों के प्रति कानून बने, मगर इस कारण उसके व्यापक शोषण, हत्या, धन के निर्गमन, जनता के प्रति घृणा, ताकत के दम पर दमन को भुलाया नहीं जा सकता। रामविलास जी दिखाते हैं कि इंग्लैंड के औद्योगिक क्रांति में इस लूट के धन का योगदान रहा है। ब्रिटिश काल मे भारतीय धन से जहां इंग्लैंड का औद्योगिकरण होता रहा वहीं भारत का देहातीकरण बढ़ा, कुटीर उद्योग और दस्तकारी उद्योग खत्म होने लगे। ज़मीदारी प्रथा के मजबूती से किसानों का शोषण और बढ़ा। यह एक भ्रम है कि अंग्रेज भारत के तरक्की के लिए यहां शासन कर रहे थे। यदि ऐसा होता तो उनके विरुद्ध व्यापक जन असंतोष और स्वतंत्रता आंदोलन नहीं होता। अवश्य इस आंदोलन के अपने अंतर्विरोध थे मगर इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ब्रिटिश शासन व्यापक जनहित में था।

रामविलास जी के चिंतन के बहुत से आयाम हैं। उनका समग्र मूल्यांकन होना अभी बाकी है। वे हिंदी के जुझारू आलोचना परंपरा के सबसे महत्वपूर्ण आलोचक हैं। अवश्य वे अंतिम नहीं हैं। उनसे सीखते, बहस करते, टकराते हिंदी आलोचना आगे बढ़ रही है। उनकी सीमाओं को बताएं, मगर ऐसा करते उनके योगदान को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।


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