रामधारी सिंह दिनकर के राष्ट्रवाद को निगलना चाहता है हिंदुत्व राष्ट्रवाद

रामधारी सिंह दिनकर के राष्ट्रवाद को निगलना चाहता है हिंदुत्व राष्ट्रवाद

रामधारी सिंह दिनकर की ‛राष्ट्रवाद’ संबंधी समझ को दृढ़ता के साथ रेखांकित करने की जरूरत है क्योंकि हिंदुत्ववादी शक्तियां उनकी राष्ट्रीय भावों की ओजपूर्ण कविताओं के सहारे अपने अंधराष्ट्रवाद के अभियान को साधना चाहती हैं। यह अकारण नहीं है कि हिमालय के शिखरों पर चढ़कर उनकी कविताओं के ‛आलाप’ किए जा रहे हैं। ऐसा संभवतः इसलिए किया जा रहा है कि हिंदी समाज में दिनकर की वास्तविक पहचान को लेकर घोर अभाव दिखाई पड़ता है। उनकी विविध भावों की काव्य-पंक्तियों के साथ ओजपूर्ण राष्ट्रीय भावों से ओतप्रोत ऐसी अनेक काव्य-पंक्तियाँ हैं जो विशेषतः हिंदी समाज के आम जनों के कंठों में जगह बना चुकी हैं। परंतु दिनकर को लेकर उनमें ठीक उसी प्रकार की समझ दिखाई पड़ती है, जिस प्रकार की समझ भगत सिंह को लेकर भारतीय समाज में दिखाई पड़ती है। आम जनों में भगत सिंह की छवि बम-पिस्तौल चलाने वाले एक युवक की गढ़ दी गई है। जबकि इसके विपरीत, उनकी वास्तविक पहचान एक महान क्रांतिकारी चिंतक की है, जिसके पास भारत के निर्माण का एक बहुत बड़ा प्रारूप था। अब तक उन प्रारूपों के आधार पर भारतीय समाज में उनकी वास्तविक पहचान नहीं बन सकी है। यहाँ तक कि एक समाज का बहुत बड़ा अनुभाग उन्हें आर्यसमाज के साथ जोड़ कर देखता है। इधर, दिनकर की भी मूल पहचान को विकृत कर उनकी ‛राष्ट्रवाद’ संबंधी समझ को हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के पूरक के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिशें चल रही हैं। ऐसे में, देखना यह होगा कि आख़िर राष्ट्रवाद को लेकर दिनकर की अपनी समझ क्या थी?

दिनकर की ‛राष्ट्रवाद’ संबंधी समझ को उनकी प्रमुख कृति ‛संस्कृति के चार अध्याय’ के संदर्भों से काफी हद तक समझा जा सकता है। इसमें वे लिखते हैं कि ‛सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विभिन्नताओं के बावजूद भारत एक देश है। इसकी विभिन्नता ही इसकी खूबसूरती है।’ वे भारत को विभिन्नताओं के बावजूद एक एकीकृत राष्ट्र के रूप में देख रहे थे। उनकी दृष्टि में विविधताएं कहीं से भी भारतीय राष्ट्र की एकता में बाधक नहीं हैं। बल्कि वे इन बहुसांस्कृतिकता, बहुधार्मिकता, बहुभाषिकता, बहुक्षेत्रीयता जैसे विविध तत्वों को भारतीय राष्ट्र की खूबसूरती के रूप में देख रहे थे। भारतीय राष्ट्र में पाई जाने वाली विविधताओं के पारस्परिक संबंधों के विषय में दिनकर कहते हैं कि ‛सारा भारत, आरंभ से ही, संसार के सभी धर्मों की सम्मिलित भूमि रहा है…भारत ने विभिन्न विचारों, मतों, धर्मों और संस्कृतियों के बीच पूरा सामंजस्य बिठा दिया और इन्हीं विभिन्नताओं का समन्वित रूप हमारा सबसे बड़ा उत्तराधिकार है।’ दिनकर की दृष्टि में भारत एक ऐसा राष्ट्र है जिसकी भूमि पर सभी धर्मों के लोगों का समान अधिकार है। वे यहाँ के सभी धर्मों, विचारों, मतों तथा संस्कृतियों के बीच आपसी सामंजस्य देख रहे थे। उनके लिए भारतीय राष्ट्र न सिर्फ विविधताओं का समन्वित रूप था बल्कि उत्तराधिकार में मिले इस समन्वित रूप का संरक्षण करना एक उत्तरदायित्व भी था।

दिनकर का ‛राष्ट्रवाद’ बहुवचनीय है। उन्होंने इसकी खोज भारतीय चिंतनधाराओं में की थीं। उन्हें उत्तरदायित्वस्वरूप जो बहुलतावादी संस्कृति मिली थी, उसकी जड़ें उन्हें जैन धर्म के अनेकांतवादी दर्शन में दिखाई पड़ी थीं। वे कहते हैं कि ‛अनेकांतवादी वह है जो दूसरों के मतों को आदर से देखना और समझना चाहता है। अशोक और हर्ष अनेकांतवादी थे, जिन्होंने एक धर्म में दीक्षित होते हुए भी सभी धर्मों की सेवा की। अकबर अनेकांतवादी था, क्योंकि सत्य के सारे रूप उसे किसी एक धर्म में दिखाई नहीं दिए और संपूर्ण सत्य की खोज में वह आजीवन सभी धर्मों को टटोलता रहा। परमहंस रामकृष्ण अनेकांतवादी थे, क्योंकि हिन्दू होते हुए भी उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत की साधना की थी। और गांधी जी का सारा जीवन ही अनेकांतवाद का मुक्त अध्याय था।’ इस प्रकार से दिनकर की विविधता के साथ एकता वाले ‛राष्ट्रवाद’ संबंधी समझ पर महावीर के अनेकांतवाद का भी असर देखा जा सकता है।

दिनकर के ‛राष्ट्रवाद’ में सभी धर्मों, संप्रदायों, मतों, विचारों एवं संस्कृतियों को बराबर की प्रतिष्ठा हासिल है। उनकी दृष्टि में यह बहुवचनीयता भारतीय राष्ट्र को सशक्त भी करती है और सुंदर भी बनाती है। परंतु इधर कुछ वर्षों से दिनकर के बहुवचनीय ‛राष्ट्रवाद’ को ‛हिन्दुत्व राष्ट्रवाद’ की भीषण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। हिंदुत्ववादी उनके विचारों पर सुनियोजित तरीके से निरंतर आघात कर रहे हैं। ताज़्जुब यह कि इसके बावजूद ये दिनकर के ‛राष्ट्रवाद’ को ‛हिन्दुत्व राष्ट्रवाद’ के समानार्थी रुप में प्रस्तुत करने का षड़यंत्र भी कर रहे हैं ! जबकि दोनों के ‛राष्ट्रवाद’ संबंधी चिंतन में न केवल जमीन-आसमान का फ़र्क है बल्कि दोनों एक-दूसरे के विरोध में भी खड़े हैं। एक का ‛राष्ट्रवाद’ बहुवचनीय है तो दूसरे का ‛राष्ट्रवाद’ एकवचनीय है। दिनकर के राष्ट्रवाद में ‛सर्व धर्म समभाव’ है तो हिन्दुत्व राष्ट्रवाद में ‛एकोहं द्वितीयोनास्ति’ पर जोर है।’ हिन्दुत्व राष्ट्रवाद के मुताबिक भारत एक हिंदू राष्ट्र है, जिसमें गैर-हिंदुओं के लिए कोई स्थान नहीं है या फिर है भी तो दोयम दर्ज़े का। सावरकर ने स्वयं कहा है कि ‛हिन्दुत्व के लक्षण हैं- एक राष्ट्र, एक जाति, एक संस्कृति।’ सावरकर ‛बहुलतावादी राष्ट्रवाद’ के विरुद्ध धर्माधारित ‛एकरूपतावादी राष्ट्रवाद’ के हिमायती थे।

राष्ट्रवाद को लेकर दिनकर और हिंदुत्ववाद की समझ के बीच के विरोधी संबंधों को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रख कर देखने से बखूबी समझा जा सकता है। यही वह दौर है जिसमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत में ‛राष्ट्रवाद’ के विचार विकसित हुए हैं। दुनिया में ‛राष्ट्रवाद’ की अनेक अवधारणाएँ हैं और उन अवधारणाओं की आलोचनाएँ भी हैं। कमोबेश यही स्थिति भारत में भी देखी जा सकती है। इस दौर में यहाँ भी ‛राष्ट्रवाद’ की दो प्रमुख अवधारणाओं को आपस में टकराते हुए देख सकते हैं। एक अवधारणा ‛बहुलतावादी राष्ट्रवाद’ की थी तो दूसरी ‛एकरूपतावादी राष्ट्रवाद’ की। इस दूसरी अवधारणा के तहत धर्माधारित राष्ट्र के निर्माण का विचार है जिसका प्रतिनिधित्व एक तरफ ‛इस्लामी राष्ट्रवाद’ के रूप में पाकिस्तान के निर्माण के लिए मुस्लिम लीग कर रही थी तो दूसरी तरफ़ ‛हिन्दुत्व राष्ट्रवाद’ के रूप में हिन्दुस्थान के निर्माण के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ। परंतु आपस में एक-दूसरे के विरोधी दिखने वाले व ऊपर-ऊपर ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्ति की आकांक्षा का भ्रम पैदा करने वाले ‛राष्ट्रवाद’ के ये दोनों ही विचार मूलतः ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा निर्मित व पोषित थे और ये दोनों ही उसे मजबूत कर रहे थे। इन दोनों अवधारणाओं के इतिहास-भूगोल पर अलग से बात करने की जरूरत है और इन पर बात करने के लिए संभव है कि विदेशी श्रोतों का सहारा लेना पड़े। फिलहाल इतना ही कि इन्हीं धर्माधारित ‛राष्ट्रवाद’ के विचारों का नतीजा था- भारतीय राष्ट्र का विभाजन और भीषण रक्तपात। दूसरी अवधारणा ‛बहुलतावादी राष्ट्रवाद’ की थी जो स्वतंत्रता आंदोलन के रूप में भारतीय समाज में राजनीतिक, सामाजिक, धर्मिक व सांस्कृतिक आदि जागृति का विचार विकसित कर रही थी। इसका प्रतिनिधित्व गाँधी, नेहरू, टैगोर, मौलाना आज़ाद के साथ भगत सिंह व चन्द्रशेखर आज़ाद आदि कर रहे थे। स्वतंत्रता आंदोलन के विचारों के साथ विकसित होने वाले इसी ‛बहुलतावादी राष्ट्रवाद’ के बरक्स दिनकर के ‛राष्ट्रवाद’ संबंधी विचारों को समझा जाना चाहिए।

दिनकर स्वतंत्रता अंदोलन के धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक व समाजवादी मूल्यों के रचनाकार लेखक थे। ये ही मूल्य ‛संस्कृति के चार अध्याय’ में उनकी लेखकीय दृष्टि के रूप में प्रतिफलित हुए हैं। वे इस पुस्तक का सार रूप प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि ‛मेरी पुस्तक का विषय भारत की सामासिक संस्कृति का जन्म और विकास है। मेरी धारणा यह है कि भारत में जब आर्य और आर्येतर जातियों का मिलन हुआ, तब वही मिश्रित जनता भारत की बुनियादी जनता हुई और उसका मिश्रित संस्कार ही भारत का बुनियादी संस्कार हुआ। इस बुनियादी संस्कृति में पहली क्रांति महावीर और बुद्ध ने की। फिर, जब मुसलमान आए तब उस संस्कृति में नई सामासिकता उत्पन्न हुई और जब यूरोप भारत पहुँचा तब हमारी संस्कृति फिर से नवीन हो गई।’ इस कथन से भारतीय संस्कृति के प्रति उनके न केवल उदार दृष्टिकोण का पता चलता है बल्कि इससे इस बात का भी अंदाज़ा लग सकता है कि वे कितने विशाल राष्ट्र की अवधारणा प्रस्तुत कर रहे थे। क्या हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद के आकांक्षी इस पुस्तक की स्थापनाओं को कभी पचा पाएंगे? यदि ये इसे पचा ही पाए होते तो सन् 1962 ई0 में ‛संस्कृति के चार अध्याय’ के तीसरे संस्करण की भूमिका में दिनकर भला यह क्योंकर लिखते कि ‛मेरी स्थापनाओं से सनातनी भी दुःखी हैं और आर्यसमाजी तथा ब्रह्मसमाजी भी। उग्र हिंदुत्व के समर्थक तो इस ग्रंथ से काफी नाराज हैं।’ यह भूमिका ‛परशुराम की प्रतीक्षा’ के रचना-काल के क़रीब की है। जिस ‛परशुराम की प्रतीक्षा’ के हवाले हिंदुत्ववादी सदैव अपने राजनीतिक विरोधियों पर रंग जमाते रहते हैं, उसी के रचना-काल में हिंदुत्ववादियों द्वारा ‛संस्कृति के चार अध्याय’ के किए गए विरोधों को उजागर कर दिनकर ने इनकी दुखती रगों पर अपना हाथ रख दिया था। यह तीसरे संस्करण की भूमिका उसी ‛संस्कृति के चार अध्याय’ की है, जिसे कुछ सालों से हिंदुत्ववादी अपने सिर पर इस तरह से उठाये फिर रहे हैं मानों यह ग्रन्थ इन्हीं के ‛हिंदुत्ववादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को जायज ठहराने के लिए लिखा गया हो!

दिनकर ने ‛संस्कृति के चार अध्याय’ में भारत के सांस्कृतिक जीवन में युगान्तकारी परिवर्तन लाने वाले चार महत्वपूर्ण अध्यायों को सामने रखा है। उनमें क्रमशः आर्यों का भारत में आना, बुद्ध का आविर्भाव, भारत में इस्लाम का आगमन एवं भारत में अंग्रेज़ों का प्रवेश है। दिनकर ने जिस इतिहास दृष्टि से भारतीय सांस्कृतिक जीवन को इन चार अध्यायों में रख कर समझा था, उसे हिंदुत्वादी शक्तियां झूठा कहकर खारिज कर रही हैं। वे ‛संस्कृति के चार अध्याय’ में भारत की बहुलतावादी संस्कृति के निर्माण में भारत के बाहर से आए हुए आर्यों तथा भारत की मूल आर्येतर जातियों की भूमिका को इस रूप में रेखांकित करते हैं कि ‛भारतीय संस्कृति सामासिक है- इसका निर्माण भारत की मूल जाति नीग्रो, आग्नेय, द्रविड़ आदि के साथ आर्यों (विदेशियों) के मिलन से हुआ।’ वे भारत की मूल जाति नीग्रो, आग्नेय, द्रविड़ आदि को मानते हैं और आर्यों को बाहरी अथवा विदेशी। परंतु हिंदुत्ववादी तो आर्यों को बाहरी मानने से साफ इनकार करते हैं। ये आर्यों के बाहरी होने के प्रश्न को अपनी अस्मिता से जोड़ कर देखते हैं। इनकी दृष्टि में सिर्फ इस्लाम बाहरी हैं। इस्लाम के विषय में इनकी समझ है कि ये न सिर्फ बाहरी हैं बल्कि बाहरी आक्रमणकारी भी हैं। जबकि दिनकर ने इस्लाम और आक्रमणकारियों में फ़र्क करते हुए कहा है कि ‛जिन लोगों ने इस्लाम की ओर से भारत पर अत्याचार किए, वे शुद्ध रूप से इस्लाम के प्रतिनिधि नहीं थे। इन अत्याचारों को इसलिए हमें भूलना है कि उसका कारण ऐतिहासिक परिस्थितियां थीं…और इसलिए भी कि उन्हें भूले बिना हम देश में एकता स्थापित नहीं कर सकते।’ वे इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‛जिस मुसलमान के कारण इस्लाम भारत में उतना बदनाम हुआ, वह ईरानी कम, तुर्क या हूण अधिक था और अरबी तथा ईरानी संस्कृति की उदारता उसमें नहीं थी।’ दिनकर इतिहास के कंटीले रास्तों पर वर्तमान को नहीं ले जाना चाहते थे। वे भारतीय राष्ट्र को इतिहास के उन अनुभवों के साथ जोड़ कर आगे बढ़ाना चाहते थे जो राष्ट्रीय एकता व अखंडता को मजबूत कर सके। जबकि हिन्दुत्ववादी बार-बार इतिहास के उन्हीं अध्यायों को उद्घाटित करते रहते हैं जिससे कच्चे हिन्दू मनों में भारतीय मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा हो सके।

दिनकर राष्ट्रकवि हैं, उन्होंने गद्य-पद्य में काफी कुछ लिखा है। परंतु उनका एक भी ऐसा उद्धरण देखने के लिए नहीं मिलता जिसमें उन्होंने अपने आप को हिंदुत्ववादी कहा हो या फिर इस्लाम के प्रति किसी भी रूप में दुराग्रह के कोई संकेत दिए हों। बल्कि ठीक इसके विपरीत, अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनमें उन्होंने हिंदुत्ववाद की कड़ी आलोचना की है। दिनकर भारतीय संस्कृति के निर्माता के रूप में बुद्ध और महावीर को देखते हैं। ये दोनों ही भारतीय दार्शनिक परंपरा के अंतर्गत नास्तिक दर्शन के प्रतिपादक थे। बुद्ध ने स्थापित वर्णाश्रम व्यवस्था के साथ वैदिक मान्यताओं को खारिज किया था। उन्हें सत्य, अहिंसा, करुणा और प्रेम को सर्वोत्तम मानवीय मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय जाता है। दिनकर बुद्ध के विचारों के इतने कायल थे कि वे चाहते थे कि भारत बुद्ध के रास्ते आगे बढ़े। जबकि सावरकर का मानना था कि बुद्ध के कारण ही देश गुलाम हुआ, उनका बुद्ध के संबंध में कथन है कि ‛उनका गौरव हमारा है तो पतन भी तो हमारा है।’ हिंदुत्ववाद का पूरा जोर भारतीय समाज पर बुद्ध के विचारों के विपरीत वैदिक मान्यताओं व वर्णाश्रम व्यवस्था को स्थापित करना तथा ‛मनुस्मृति’ के रूप में एक आचार संहिता को थोपने पर है। वर्ना इस उत्तर-आधुनिक दुनिया में गणेश के धड़ में हाथी के सिर जोड़ने के मिथक को ‛प्लास्टिक सर्जरी’ की तकनीक का वैदिक-भारत में होने की हास्यास्पद बात भला दूसरा कौन समझदार और जिम्मेदार व्यक्ति कर सकता था!

हिंदुत्ववाद के जीवन-काल को यदि कायदे से देखें तो इस विचारधारा का विज्ञान में न कोई योगदान रहा है, न कोई विश्वास। इसकी पूरी दिमागी कसरत ‛संस्कृति’ पर है और ‛संस्कृति’ भी क्या? हिन्दू संस्कृति! वास्तव में ‛हिन्दू संस्कृति’ जैसी कोई एक चीज इस देश में है भी नहीं। इस भारतीय उपमहाद्वीप में क्या हिंदुओं की कोई एक संस्कृति है? क्या हिमाचल के हिंदुओं की संस्कृति और केरल के हिंदुओं की संस्कृति एक है? क्या गुजरात के हिंदुओं की वही संस्कृति है जो बंगाल के हिंदुओं की है? जब एक क्षेत्र के हिंदुओं की संस्कृति दूसरे क्षेत्र के हिंदुओं की संस्कृति से भिन्न है, तब भारत को एक ‛हिन्दू सांस्कृतिक राष्ट्र’ कैसे बनाया जा सकता है? हाँ, ‛हिन्दू राष्ट्रवाद’ के नाम पर हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण तो हो सकता है परंतु ‛हिन्दू संस्कृति’ के नाम पर आपस में ‛संस्कृतियों का संविलयन’ नहीं हो सकता। इसी तरह हिंदुत्ववाद अर्थशास्त्र के मामलों में भी ‛खाली हाथ’ है। यह बहुत दिनों तक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के आर्थिक विचारों को अपने कंधों पर उठाये तो फिरा था किन्तु भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद उनके भी आर्थिक विचारों को अपने कंधे से उतार फेंका। देख सकते हैं कि ‛राष्ट्रवाद’ की आड़ में राष्ट्रीय संपत्तियों को किस तेजी के साथ पूंजीपतियों के हाथों औने-पौने दामों में बेचा जा रहा है। शेष सार्वजनिक संस्थाओं को सुनियोजित तरीके से कमजोर किया जा रहा है। राष्ट्रीयकृत बैंकों को कमजोर करने की नियत से संविलयन किया गया है। इस बीच एक भी कायदे का सार्वजनिक संस्थान या उद्योग खड़ा करने का उदाहरण नहीं मिल सकता है। यह कैसा ‛राष्ट्रवाद’ है जो हर दिन राष्ट्रीय संपत्तियों को निजी हाथों में बेचता रहता है? क्या राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को बेहाल करना भी कोई ‛राष्ट्रवाद’ है? क्या ऐसा ‛राष्ट्रवाद’ कभी राष्ट्रकवि दिनकर का ‛राष्ट्रवाद’ हो सकता है!

दिनकर की चिंता में सर्वप्रथम देश है, राष्ट्रवाद बाद में। यानि उनमें देश-प्रेम की वज़ह से ‛राष्ट्रवाद’ है, ‛राष्ट्रवाद’ की वज़ह से देश-प्रेम नहीं है। जबकि हिंदुत्ववाद का आदि भी ‛राष्ट्रवाद’ है और अंत भी। इसके आदि और अंत के बीच कोई ‛मध्य’ नहीं आता। इसका ‛राष्ट्रवाद’ एक खास किस्म का कार्यक्रम है। यह भारत की सांस्कृतिक बहुलता को खत्म कर हिंदुत्व की सांस्कृतिक अवधारणाओं को भारतीय राष्ट्र में जोर-जबरदस्ती के साथ लागू करने का लक्ष्य लेकर चलता है। इस प्रकार की प्रवृति से ‛राष्ट्रवाद’ की जगह ‛अंधराष्ट्रवाद’ पैदा होता है। यह ‛अंधराष्ट्रवाद’ अंतर्राष्ट्रीय समुदायों के बीच दो किस्म के संबंध कायम करता है, एक मित्र-राष्ट्र के रूप में और दूसरा शत्रु-राष्ट्र के रूप में। राष्ट्रीय समुदायों के बीच भी जोर-जबरदस्ती के साथ यही काम करता है। अपने नागरिकों को दो खेमों में बांटता है, एक खेमा देशभक्त के रूप में और दूसरा देशद्रोही के रुप में। ऐसा नहीं है कि यह कभी देश-प्रेम की बात नहीं करता हो। यह अपना समूचा कार्यक्रम देश-प्रेम की खाल ओढ़कर ही तो करता है! दिनकर इनके देश-प्रेम पर चोट करते हुए अपने ‛जननी जन्मभूमि’ नामक निबंध में लिखते हैं कि ‛अपने देश से प्रेम करना बहुत अच्छा है… किन्तु अपने देश को सर्वश्रेष्ठ मानकर अन्य देशों से घृणा करना बिल्कुल बेजा बात है।’ दिनकर मिथ्याभिमान और घृणा पर टिके हुए ‛राष्ट्रवाद’ के विरुद्ध थे। देश में धार्मिकता की आड़ में जिस प्रकार से हिंदुत्व की विचारधारा को स्थापित करने की कोशिशें चल रही हैं, उसके संबंध में दिनकर के विचार हैं कि ‛धार्मिकता की अति ने देश का विनाश किया, इस अनुमान से भगा नहीं जा सकता है और यह धार्मिकता भी ग़लत किस्म की धार्मिकता थी।’ ज़ाहिर है कि दिनकर इस कट्टरता, कुटिलता और संकीर्णता से भरी धार्मिकता पर आधारित ‛राष्ट्रवाद’ के पक्ष में नहीं थे।

दिनकर वास्तव में, देश-प्रेम के कवि और आलोचनात्मक ‛राष्ट्रवाद’ के लेखक थे। उनकी रचनाओं में ‛राष्ट्रवाद’ के दो रूप दिखाई पड़ते हैं। एक ‛सामान्यीकृत राष्ट्रवाद’ का रूप है और दूसरा ‛विशेषीकृत राष्ट्रवाद’ का रूप है। ध्यान देने की बात है कि हिंदुत्ववादी अक्सर उनके ‛सामान्यीकृत राष्ट्रवाद’ के ही कुछ अंशों का उपयोग करते हैं। ये कभी भूल से भी उनके ‛विशेषीकृत राष्ट्रवाद’ के क्षेत्र में घुसपैठ करने की हिम्मत नहीं कर पाते। जब वे राष्ट्रीय आपदा की घड़ी में सीधे-सीधे राष्ट्र को संबोधित कर रहे होते हैं तब उनकी रचनाओं में ‛सामान्यीकृत राष्ट्रीयता’ का रूप उभर कर सामने आता है। चाहे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उत्पन्न होने वाली भीषण परिस्थितियों के विरुद्ध लिखी गयी रचनाएं हों या भारत-चीन युद्ध के बाद लिखी गयी ‛परशुराम की प्रतीक्षा’ आदि जैसी रचनाएं हों। इसमें उनकी एक-एक पंक्ति में हताशा, निराशा, कुंठा, पराजय, कायरता आदि के विरुद्ध तलवारें चमकती हैं, ललकारें भरी रहती हैं, शौर्य का प्रदर्शन होता है, राष्ट्रीय भावों के बोध होते हैं, सत्ता से संघर्ष होता है और क्रांति का जयघोष सुनाई पड़ता है। आम स्थितियों में की गयी रचनाओं में वे गर्जन-तर्जन सुनाई नहीं पड़ते। हिंदुत्ववादी उनके गर्जन-तर्जन मात्र से भरी रचनाओं का ही इस्तेमाल किया करते हैं। क्योंकि ये दैहिक शौर्य के आग्रही होते हैं। इसलिए इन रचनाओं के जरिये इनका ध्येय मात्र राजनीति का हिन्दुकरण और हिंदुओं का सैन्यीकरण करना होता है। उनकी आम स्थितियों की रचनाओं में जीवन और प्रकृति के सौंदर्य के साथ भारतीय समाज की विसंगतियां भरी रहती हैं। भारतीय समाज में कोढ़ की तरह व्याप्त धार्मिक और सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ़ क्षोभ रहता है। किसानों की दुर्दशा के चित्रण होते हैं। भारत की अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, बेकारी आदि की पीड़ा होती है। उनके ‛विशेषीकृत राष्ट्रवाद’ में सामान्यतः ‛राष्ट्रवाद’ की कम, विशेषतः किसान, मजदूर, वंचितों की आवाज अधिक सुनायी पड़ती है। अतएव, दिनकर के इस ‛विशेषीकृत राष्ट्रवाद’ को समझे बगैर उनके ‛राष्ट्रवाद’ के वास्तविक स्वरूप को कायदे से नहीं समझा जा सकता है।

दिनकर के ‛राष्ट्रवाद’ में बच्चों के लिए भी पर्याप्त स्थान और अवसर है। उन्होंने इसमें बच्चों के स्वप्न, कल्पना, जिज्ञासा, अभिव्यक्ति, प्रश्नाकुलता, भाव-बोध, खेल, खुली प्रकृति आदि की काफी चिंता की है। बच्चे राष्ट्र की बुनियाद होते हैं। इसलिए उन्होंने बच्चों को केंद्र में रखकर प्रचुर मात्रा में ‛बाल कविताएं’ लिखीं। उनमें ‛चाँद का कुर्ता’, ‛सूरज का ब्याह” ‛चूहे की दिल्ली यात्रा’ आदि ऐसी अनेक कविताएं हैं जो बच्चों के होठों पर चस्पां हो जाती हैं। उन्होंने बालिकाओं के जीवन को भी अपनी कविताओं के केंद्र में रखना जरूरी समझा था, तभी तो वे ‛बालिका से वधू’ जैसी सुंदर कविता की रचना करते हैं। दिनकर बच्चों को राष्ट्र के जीवन के साथ जोड़कर देख रहे थे। परंतु ‛हिंदुत्व राष्ट्रवाद’ में उन बच्चों की कितनी चिंता है? क्या इस ‛हिंदुत्व राष्ट्रवाद’ में भूखे-नंगे, कुपोषण और महामारी के शिकार, बीमार, अशिक्षित बच्चों की कोई चिंता दिखाई पड़ती है? क्या इसमें बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और सौहार्दपूर्ण सामाजिक वातावरण मुहैया कराए जाने के कोई प्रमाण मिलते हैं? क्या इसमें बच्चों के भीतर जनतांत्रिक मूल्यों और आलोचनात्मक विवेक विकसित करने की कोई व्यवस्था दिखाई पड़ती है? आखिर सवाल यह कि क्या इसमें दिनकर की बालिकाओं को ‛बालिका से वधू’ तक की निर्बाध यात्रा करने के अवसर दिये गए हैं? दिनकर जिन बच्चों में भारत का जीवन देख रहे थे, इस ‛हिंदुत्व राष्ट्रवाद’ में उन बच्चों का जीवन खतरे में है। यदि इन बच्चों का जीवन खतरे में नहीं होता तो भला आलोचनात्मक, वैज्ञानिक और स्वतंत्र चिंतन की अभिव्यक्ति के कारण इन्हें देशद्रोह के मुकदमें और जेल की यातना से लेकर सामाजिक विरोध का सामना क्यों करना पड़ता? यह कैसा ‛राष्ट्रवाद’ है जो अपने ही बच्चों के खिलाफ विश्वविद्यालयों में तोपों की तैनाती करने का विचार रखता है! यह ऐसा ‛राष्ट्रवाद’ है जिसमें वैज्ञानिक चिंतन और स्वतंत्र विचार के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। इस ‛राष्ट्रवाद’ में सत्ता से सवाल करना देशद्रोह है। जबकि दिनकर अपने समय की सत्ता को अधिक-से-अधिक जनतांत्रिक बनाने के उद्देश्य से सदैव कटु प्रश्न पूछा करते रहे थे। इस ‛हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद’ में सत्ता से प्रश्न पूछने वाले लेखकों को या तो देशद्रोह और अर्बन नक्सल का मुक़दमा ठोक कर जेलों में बंद कर दिया जाता है या फिर उनकी हत्या कर दी जाती है। जो दिनकर अपने समय का सूर्य थे, जो सदैव सत्ता से प्रश्न पूछते थे, उन्हें भी इस ‛हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद’ में प्रश्न पूछने की मनाही है। जो ‛राष्ट्रवाद’ दिनकरों को प्रश्न पूछने पर मार डालता हो, वह भला दिनकर का ‛राष्ट्रवाद’ कैसे हो सकता है!

राष्ट्रकवि दिनकर जनता के कवि हैं। उन्हें जनता पसंद करती है। इसलिए कला, साहित्य, इतिहास, राजनीति, धर्म, संस्कृति, जीवन-जगत, देश, राष्ट्र, राष्ट्रवाद, अंतर्राष्ट्रीयतावाद, राष्ट्र के निर्माताओं आदि के संबंधों में उनके व्यापक दृष्टिकोणों को जनता के बीच ले जाने की जरूरत है। क्योंकि यह ऐसा दौर है जिसमें ‛अंधराष्ट्रवाद’ के स्वप्नों को साकार करने के लिए कवियों, लेखकों, पत्रकारों, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, छात्र-छात्राओं को देशद्रोह के झूठे मुकदमों में फँसाकर जेल की यातना देने से लेकर उनकी हत्याएं तक की जा रही हैं। हद तो यह है कि मृत लेखकों तक को नहीं छोड़ा जा रहा है। उनके विचारों को या तो कलंकित किया जा रहा है या फिर अपने राजनीतिक हितों के लिए उनके विचारों को विकृत करके प्रस्तुत किया जा रहा है। रामधारी सिंह दिनकर के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। देश में घृणा और उन्माद पैदा करने के लिए जैसे टीवी पर रक्षा विशेषज्ञ के तौर पर ‛टीवी सैनिक’ बहाल किये गए हैं, वैसे ही अखबारों व पत्रिकाओं के लिए साहित्य विशेषज्ञ के तौर पर बाजाब्ता कुछ ‛रंगरूट’ भर्ती किए गए हैं। ऐसे में, रचनाकारों के साहित्यिक अवदानों तथा रचनात्मक मूल्यों के साथ उनकी वास्तविक पहचान को उद्घाटित करने का उत्तरदायित्व विशेषतः लेखकों और आलोचकों पर है। संभव है कि इस दौर में यह काम जोखिम भरा हो, परंतु यह जीवन से अधिक मूल्यवान है।

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