कस्बाई मध्यवर्गीय जीवन का अंतर्द्वंद्व है रितुपर्णो घोष की फिल्म ‘रेनकोट’

कस्बाई मध्यवर्गीय जीवन का अंतर्द्वंद्व है रितुपर्णो घोष की फिल्म ‘रेनकोट’

कस्बाई क्षेत्र का मध्यवर्गीय जीवन अजीब द्वंद्व से घिरा होता है। इच्छाएं बड़ी मगर सुविधाओं के नहीं होने से उलझने बढ़ती जाती हैं। युवावस्था की रोमानियत यथार्थ के धरातल से टकराने पर सहसा उसे स्वीकार नहीं कर पाती। मगर यथार्थ को इंकार करने से वह बदल नहीं जाता। इसलिए विडंबनाएं होती हैं, दिल टूटते हैं मगर जीवन अपनी राह चलता है।

मगर इस ‘दिल टूटने’ का कारण वह ‘मर्यादाबोध’ भी है जो अस्मिता के हनन तक को कर्तव्य का नाम देकर स्वीकृत करा लेता है। मसलन, आज भी स्त्री-पुरुष का विवाह अधिकांशतः इस कारण नहीं हो पाता कि वे भिन्न जाति के हैं, अथवा दोनों के आय में असमानता है, चाहे दोनों एक-दूसरे को पसंद क्यों न करते हों। और जिनका दिल टूटता है वे इसे नियति मानकर स्वीकार कर लेते हैं!

फिर भी प्रेम होते हैं। और जहां प्रेम होता है वहां उदात्तता भी। और अगर प्रेम ‘असफल’ हो तो इस उदात्तता का प्रकटीकरण दो तरह से हो सकता है। या तो दोनों मिलने पर यथार्थ को पूरी तरह से खोलकर अपने सुख-दुःख का बता देते हैं, या फिर अतीत के हक़ीक़तों को छुपाने के लिए झूठ का वर्तमान गढ़ते हैं।

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फिल्म ‘रेनकोट’ इसी ‘झूठे वर्तमान’ का आख्यान है। ‘मन्नू’ और ‘नीरू’ हालात के जिस मोड़ पर मिलते हैं, वहां प्रेम की कसक तो है, बहुत कुछ छूट जाने का दुःख है, मगर इस विडम्बना का स्वीकारबोध नहीं है। एक पर्दा है दोनों के बीच, जो इतना जर्जर हो चुका है कि दोनों के हालात झांक रहे हैं मगर वे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। मगर बेबसी की अपनी जुबान होती है। व्यक्तित्व कुछ देर की अदाकारी से बदल नहीं जाता। मन्नू सहज व्यक्ति है; सामान्य आय स्तर का। इसलिए साधारण सुविधाओं में जीने का आदी है। ज़ाहिर है यह उसके लिए यह मजबूरी नहीं, सहज है। इसलिए जब वह नीरू के सामने ‘अमीर’ होने का अभिनय करता है, तो इसे ठीक से निभा तक नहीं पाता। उसकी प्रत्येक गतिविधि हक़ीक़त का बयान करते हैं।

अपनी इस सहजता के कारण ही वह शुरुआत में नीरू के ‘झूठ’ को पकड़ नहीं पाता, मगर जब हक़ीक़त खुलता है तो उसके अंदर आक्रोश नहीं करुणा का भाव पैदा होता है। वह ख़ुद सहायता माँगने आया था मगर सहयोग करके जाता है।

नीरू अपेक्षाकृत अधिक ‘व्यावहारिक’ है। किसी समय उसने इस ‘व्यावहारिकता’ के कारण घर वालों के कहने पर ‘अमीर’ व्यक्ति से विवाह कर लिया था। ज़ाहिर है उसने भावना को जज़्ब कर लिया था और उसे आक्रोश तक आने नहीं दिया; यहां तक कि मन्नू को समझाने में सफल रही।उसका यह आचरण उसी ‘मर्यादाबोध’ से संचालित रहा, जिसकी कीमत अक्सर स्त्रियों को ही अधिक चुकानी पड़ती है।

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इस मर्यादाबोध के रक्षा के लिए ही वह तमाम दुःख सहकर भी चुप है। मगर दुःख अपनी जगह हैं। लापरवाह पति के कारण जीवन की मूलभूत समस्याओं के लाले पड़े हैं; कर्जदारों से बचने ख़ुद घर में कैद कर रखा है। एकाकीपन उसके जीवन का हिस्सा हो गया है। उसके प्रारम्भिक जीवन की चंचलता की झलक जैसे इस विडम्बना को और तीव्र कर देती है।

नीरू को मन्नू के यथार्थ का बोध अपेक्षाकृत जल्दी हो गया रहा होगा क्योंकि वह उसके व्यक्तित्व को अच्छे से जानती है। फिल्म के क्लाइमैक्स में रेनकोट में अपना झुमका मन्नू के सहयोग के लिए छोड़ना उसके प्रेम की पराकाष्ठा है। वह उससे दूर रहकर भी जैसे उसके ख्यालों से कभी दूर न थी। सम्वाद में मन्नू के दूसरे स्त्री के जिक्र से उसकी असहजता इसे पुष्ट करती है।

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मगर इन सारे द्वंद्वों, मजबूरियों के बीच एक बात खटक ही जाती है कि दोनों हालात के आगे इस तरह आसानी से समर्पण क्यों कर देते हैं! कहीं कोई संघर्ष का जज़्बा नहीं दिखाई देता। केवल प्रेम है, संघर्ष नहीं। बहरहाल, अपने समय के समाजिक-आर्थिक मूल्यों से संस्कारिता और जूझते व्यक्तियों के लिए चीजें उतनी आसान नहीं होतीं, जितना शायद हम समझ लेते हैं।

(फिल्म ओ हेनरी की लघुकथा ‘द गिफ्ट ऑफ द मैगी’ पर आधारित है)


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