फिल्म ‘बंदिनी’ : मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार

फिल्म ‘बंदिनी’ : मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार

मानवता और प्रेम मनुष्य मात्र की सहजवृत्ति है, मगर मातृत्व की अतिरिक्त क्षमता के कारण और उससे जनित जैविक-मनोवैज्ञानिक कारणों से भी स्त्रियों में ममत्व और करुणाशीलता के अधिक उदाहरण देखे जाते हैं। निष्ठुर, स्त्री या पुरूष कोई भी हो सकता है मगर फिर भी स्त्रियों में इसके उदाहरण अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। “स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है” यह कथन पितृसतात्मक समाजीकरण के माहौल में सत्य है मगर फिर भी स्त्री-पुरूष के एक सीमा तक भिन्न जैविकी जनित भिन्नता से इंकार नहीं किया जा सकता।

फिल्म ‘बंदिनी’ [1963, बिमल राय] की ‘कल्याणी’ के चरित्र को इस परिप्रेक्ष्य में देखने से उनके चरित्र की उदात्तता महज सामाजिक मूल्य न होकर सहज लगती है। डॉ. देवेंद्र के निश्छल प्रेम का प्रभाव उसके मन में भी है, मगर शुरुआत में वह अपने पिछली जिंदगी के परछाईंयों से ‘भयग्रस्त’ रहती है। यह भय ख़ुद के प्रति नहीं अपितु देवेंद्र के प्रति अधिक जान पड़ता है क्योंकि जिंदगी के ठोकरों ने उसे जीवनगत इच्छाओं से लगभग असंपृक्त कर दिया है।

फिल्म 'बंदिनी' : मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार

विकास बाबू से उसका प्रेम भी उनके व्यक्तित्व और उम्र के सहज आकर्षण से हुआ था। वे भी उनसे प्रेम करते थे मगर उनके क्रांतिकारी जीवन की अनिश्चितता और जोखिम ने दोनों को अलग कर दिया। अवश्य उनके दूसरे लड़की से विवाह का तर्क मजबूत नहीं है और इस मजबूरी के विवाह को देशहित से जोड़ने का प्रयास भी किया गया है, जो गले नह उतरती। बहरहाल, कहानी के इस मोड़ से कल्याणी का जीवन दूभर हो जाता है। लोकोपवाद से पिता-पुत्री का गांव में मुश्किलें बढ़ती जाती हैं। वह पिता को इस ‘दुविधा’ से बचाने घर छोड़ देती है।

नाटिकीय घटनाक्रम में कल्याणी से विकास बाबू की पत्नी जो हिस्टीरिया से ग्रसित है और असामान्य व्यवहार करती है, की ज़हर देकर हत्या हो जाती है। इसका औचित्य भी खास नहीं दिखाई पड़ता मगर इसे कल्याणी के अवचेतन में दबे पीड़ा, कुंठा, प्रतिशोध का फल दीखाना प्रतीत होता है। अवश्य इसे उसका असमान्य कार्य दिखाया गया है, क्योंकि उसी समय पिता की मृत्यु हुई थी जिससे उसके चरित्र को मानवीय रखने का प्रयास दिखाई पड़ता है मगर इससे ‘स्त्री सुलभ ईर्ष्या’ जैसे परम्परागत सामंती मुहावरे का निष्कर्ष भी निकाले जाने का ख़तरा बन जाता है।

फिल्म 'बंदिनी' : मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार

इस घटना से ही कल्याणी जेल जाती है और उसके ‘बंदिनी’ जीवन की शुरुआत होती है, और जेल में एक तपेदिक के मरीज की सेवा के दौरान डॉ देवेंद्र के संपर्क में आती है। कल्याणी अपने सकारात्मक व्यवहार के कारण सब का दिल जीत लेती है और कालांतर में उसे उसके अच्छे व्यवहार के कारण सजा में ढिलाई मिलती है और रिहा कर दी जाती है।

विकास बाबू क्रांतिकारी हैं। क्रांतिकारी संगठन से जुड़े हैं। जीवन जोखिम से भरा है। अपने नज़रबन्दी के दौरान कल्याणी के संपर्क में आते हैं, और दोनों में प्रेम हो जाता है। वहां से विस्थापन के दौरान वे कल्याणी को अपना पत्नी मान शीघ्र ही संपर्क की बात कहते हैं। मगर नाटकीय परिस्थितियों में पार्टी संगठन के निर्देश में उन्हें दूसरी स्त्री से विवाह मरना पड़ता है। इधर आहत कल्याणी घर छोड़ देती है।

फिल्म 'बंदिनी' : मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार

फिल्म में क्लाइमैक्स में जेल से रिहा कल्याणी डॉ. देवेंद्र के घर जाने के लिए निकलती है, क्योंकि देवेंद्र की माँ भी उसे स्वीकार कर ली होती है। उसके सामने नया जीवन का रास्ता है जहां देवेंद्र जैसा निश्छल प्रेमी है। मगर नाटकीय घटनाक्रम में स्टेशन में विकास बाबू उन्हें छूत के रोग से ग्रसित निस्सहाय दिखाई पड़ते हैं, जो शेष जीवन बिताने अपने गांव जा रहे थे। उसे विकास बाबू के मजबूरी के विवाह का पता चलता है। स्वयं विकास बाबू कल्याणी के प्रति अपनी जवाबदारी न निभा पाने का पछतावा व्यक्त करते हैं। वे कल्याणी से कोई आग्रह नहीं करते न ही उन्हें देवेंद्र के बारे में कोई जानकारी है।

यहां कल्याणी द्वंद्वग्रस्त हो जाती है। एक तरफ देवेंद्र दूसरी तरफ विकास बाबू। दोनों का प्रेम बराबर। मगर विकास बाबू के जहाज छूटने के समय यह द्वंद्व चरम में पहुँच कर निष्कर्ष तक जाता है और वह दौड़ते विकास बाबू के पास जाकर लिपट जाती है।

फिल्म 'बंदिनी' : मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार

इस प्रेम त्रिकोण में तीनों का चरित्र उदात्त है।किसी को शिकायत नहीं। मगर देखा जाए तो कल्याणी का सहज प्रेम विकास बाबू के प्रति उमड़ा था, उसके साथ समय गुजरा था, वे देश की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे, वे आखिर में निस्सहाय हो गए थे, इसलिए कल्याणी का उनके पास जान उसके चरित्र को और गरिमामय बना देता है। यहाँ अनायास बौद्ध भिक्षु ‘उपगुप्त’ की कथा याद आ जाती है।

फिल्म चारु चन्द्र घोष के बंगाली उपन्यास ‘तमसी’ पर आधारित है जिसे हम अपने पाठकीय सीमा के कारण पढ़ नहीं पाए हैं। फिल्म का देशकाल तीस के दशक का बंगाली समाज है, अवश्य फिल्म का निर्माण 1963 का है। ज़ाहिर है चरित्रों के निर्माण में अपने देशकाल का भी प्रभाव होता है, इसलिए समकालीन यथार्थवादी दृष्टि से आकलन करने पर इसमे कुछ अतिरिक्त अदर्शात्मकता दिखाई पड़ सकता है। मगर कोई कला निरुद्देश्य नहीं हुआ करती, इसलिए कलाकार (फिल्मकार) का दृष्टिकोण भी।


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