हिंदी और उर्दू में फ़र्क़ है इतना, वो ख़्वाब देखते हैं हम देखते हैं सपना

हिंदी और उर्दू में फ़र्क़ है इतना, वो ख़्वाब देखते हैं हम देखते हैं सपना

(संवाद-स्थलः लोदी बागान के एक भुरभुरे मक़बरे की सीढ़ियां, मौसम बहार का। एक सुहानी शाम )।

उर्दू: संवाद शुरू करने से पहले क्यों न इसकी कुछ सीमाएं या शर्ते तय कर लें।

हिंदी: ज़रूर, वर्ना बात बिखर जायेगी या एक भद्दी, भारी और बासी बहस में बदल जायेगी।

उर्दू: तो पहली शर्त तो यही कि हम इस संवाद के दौरान यूं बोलें जैसे हम हक़ीक़त में बोलती।

हिंदी: लेकिन यह शर्त इतनी साफ़ और सीधी नहीं जितनी सुनायी देती है, क्योंकि हक़ीक़त में हम एक ही अंदाज़ और आवाज़ में नहीं बोलतें। शहर और गांव में, हर शहर और गांव में, हर अवसर पर, हर एक के साथ हमारी आवाज़, हमारा अंदाज़, हमारा मुहावरा, हमारी शब्दावली-ये सभी एक से कहां होते हैं।

उर्दू: तुम तो छूटते ही बारीकियों में बह गयीं, मैं सिर्फ यह कहना चाहती थी कि मैं अपनी बात में फ़ारसी और अरबी के बोझिल लफ़्ज़ों से परहेज़ करूं, तुम संस्कृत के वैसे ही लफ़्ज़ों से।

हिंदी: मुझे मंजूर है। वैसे जो लेखक हमारे इस संवाद की कल्पना और रचना कर रहा है वह अपने काम में यह परहेज़ नहीं करता। कहता है, मैं अपने आपको और अपनी भाषा को किसी बाहरी बंधन में क्यों बांधू! कहता है, अगर फारसी, अरबी या संस्कृत का कोई लफ़्ज़ मुझे ठीक बजता सुनायी देता है और मेरी बात को खूबी और खूबसूरती से पेश करने में मेरी मदद करता है तो मैं उसको इस्तेमाल क्यों न करूं!

उर्दू: उसका यह कहना बेजा तो नहीं लेकिन उस पर यह आरोप तो लगाया ही जाता है कि वह अपने काम में, हिंदी के आम पाठक की परवाह न करते हुए, अक्सर उर्दू, फारसी, अरबी, संस्कृत, और पंजाबी के ऐसे ऐसे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल कर जाता है जो हिंदी के आम पाठक के लिए कठिनाई पैदा कर सकते हैं।

हिंदी: और वह इस इलज़ाम के जवाब में दो बातें कहता है। पहली यह कि आम पाठक की दुहाई देने वाले आम पाठक को नहीं जानते, उसके साथ अन्याय करते हैं, उसकी समझबूझ की प्रखरता को नहीं जानते, उसके बहाने अपने उल्लू सीधे करते रहते हैं, अपनी कमजोरियों को छिपाते फिरते हैं। दूसरी दलील वह यह देता है कि लेखक का एक बड़ा मकसद लोगों की भाषा को बेहतर बनाना होता है और वह इस मकसद में कामयाब तभी हो सकता है जब वह अपनी भाषा के दरवाजे उन भाषाओं के लिए खुले रखे जो उसकी भाषा के निकट रही हैं और जो उसकी भाषा को और ऊर्जा दे सकती हैं।

उर्दू: वह तो यह भी कहता है और ठीक ही कहता है, कि उर्दू को भी हिंदी और संस्कृत के शब्दों और स्वरों को खुले मन से मंजूर करना चाहिए।

हिंदी: असल में तुम्हें और मुझे एक दूसरे से कोई परहेज़ नहीं, अगर है तो इसका इलज़ाम उन लोगों को दिया जायेगा जो अपने राजनीतिक और तथाकथित मज़हजबी मकसद के लिए हमारा नाजायज़ और बेईमान उपयोग करते रहते हैं।

उर्दू: या उन हालात को जो अंग्रेज़ों ने अपने राज के दौरान जानबूझ कर पैदा कर दिये और जिन्हें हम आज़ादी के बाद भी बदल न सके।

हिंदी: ठीक, बिल्कुल ठीक कह रही हो। तो अब अपने इस संवाद की दूसरी कुछ शर्तों की बात करें तो मैं चाहूंगी कि हम इस बहस में न उलझें कि हम एक हैं या दो।

उर्दू: इस बहस को ज़बानदानों के लिए ही छोड़ दें तो बेहतर होगा। और न ही इस बहस में उलझें कि हम दोनों में से बड़ी कौन है-उम्र में या अक्ल में। और न ही इस चक्कर में पड़ें कि हम बहनें हैं या सिर्फ सहेलियां। यह ही मान लेना काफी होगा कि हम एक ही खानदान की हैं।

हिंदी: और यह मान लेना काफी ही नहीं जरूरी भी होगा कि हम एक दूसरी को समझा सकती हैं, सराह सकती हैं, समृद्ध कर सकती हैं, प्यार कर सकती हैं, कि हम एक दूसरी से बरतर या कमतर नहीं, कि आवाज़ और अंदाज के लिहाज से हम अगर भिन्न है तो यह अच्छा ही है-हमारे लिए भी और हमें लिखने और बोलने वालों के लिए भी।

उर्दू: और तुम्हारी इसी बात से एक और शर्त उभरती दिखायी देती है कि हम इस संवाद के दौरान कट्टरपंथी तेवर हरगिज़-हरगिज़ नहीं अपनायेंगी।

हिंदी: और इसके लिए यह ज़रूरी है कि हम यह न भूलें कि हम गैर नहीं, कि हम एक दूसरी की नीयत पर शक न करें, कि हम शाना-ब-शाना चल और मचल सकती हैं। और इसके लिए ज़रूरी है कि हम पीछे की तरफ कम देखें, आगे की तरफ़ ज़्यादा। एक गाना हुआ करता थाः मुड़ मुड़ के न देख मुड़-मुड़ के!

उर्दू: मुझे तुम्हारा विनोद जिसे तुम मज़ाक कहती हो बहुत पसंद है।

हिंदी: उसकी तुम्हारे मिज़ाज में भी कोई कमी नहीं।

उर्दू: लेकिन गुरु गंभीर मुद्रा मेरे चेहरे पर गढ़ दी गयी है। मैं तुम्हारी मदद से उस से छुटकारा पा लेना चाहती हूं।

हिंदी: और मैं तुम्हारी मदद से अपनी एक लत से।

उर्दू: किस लत की बात कर रही हो?

हिंदी: चटखारे लेने की लत से। बस इस संवाद के दौरान भी और वैसे भी हमारा रुख यही रहे तो हम उस खाई को पाट सकेंगी जो हमारे बीच खोद दी गयी है। हमें अपनी खामियों को छिपाना नहीं और अपनी खूबियों पर ज्यादा इतराना नहीं। हमें हीनताबोध से भी बचना है, बरतरीयताबोध से भी।

उर्दू: बरतरीयता बोध! खूब! क्या इख्तरा है!

हिंदी: इख्तरा! मैं इस शब्द को शब्दकोश में देख लूंगी।

उर्दू: और अगर वहां यह न मिला तो?

हिंदी: तो इसका मतलब तुम से पूछ लूंगी। या उस लेखक से जो यह संवाद रच रहा है क्योंकि वह हिंदी में उर्दू से ही आया था, किसी जमाने में, और उसका मानना है कि हिंदी और उर्दू के शब्दकोश हम दोनों को एक दूसरी के करीब लाने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।

उर्दू: काश कि हम दोनों को लिखने, पढ़ने, बोलने वाले सभी इतने उदार होते!

हिंदी: अच्छा, अब यह भी तय कर लें कि हम राजनीति को इस संवाद से-बाहर रखेंगे।

उर्दू: इस शर्त को निभाना आसान नहीं होगा।

हिंदी: उर्दू ठीक कहती हो।

उर्दू: वैसे जिन लोगों ने अपने राजनीतिक मकसदों के लिए हमारा दुरुपयोग किया है और हमारे बीच फूट डाली है उनका पर्दा तो हमें फाश करना ही चाहिए। लेकिन इसमें ज़्यादा वक्त बरबाद न ही करें तो बेहतर होगा क्योंकि वह पर्दा कई बार फाश किया जा चुका है।

हिंदी: ठीक कहती हो।

उर्दू: ऐसे लोगों ने ही तुम्हें हिंदुओं की और मुझे मुसलमानों की ज़बान मान लेने के गलत और खतरनाक नज़रिये का प्रचार कर हमें एक दूसरे से दूर धकेल देने की कोशिश की है।

हिंदी: इस नज़रिए की बुनियाद हमारे अंग्रेज़ी हाकिमों ने ही डाली थी। आज़ादी के बाद तो इसका अंत हो जाना चाहिए था।

उर्दू: लेकिन वह हुआ नहीं। आजादी के बाद कुछ लोगों ने तो भारत में उर्दू का ही अंत कर देना चाहा-उर्दू को मदरसों में धकेल कर, उसे मुसलमानों की ज़बान ठहरा कर, गलत-शिक्षा नीतियों के तहत।

हिंदी: इस पर भी हमारे बीच बात होनी चाहिए।

उर्दू: ज़रूर होनी चाहिए लेकिन हमारे इस संवाद के मरकज़ में अदब ही रहेगा।

हिंदी: वह तो रहेगा लेकिन उसके हाशिये पर दूसरे विषय भी रहेंगे।

उर्दू: और अब तो हाशिये की अहमियत मरकज़ की अहमियत से भी ज़्यादा मान ली गयी है।

हिंदी: हमारे इस संवाद को रचने वाला भी तो एक हाशियानशीन ही है।

उर्दू: मैं तो उसे गोशानशीन ही समझती रही।

हिंदी: उसका गोशा हाशिये पर ही है।

उर्दू: इसीलिए उसके कुछ हरीफ उसे एक ‘ख़ालिस’ लेखक कह कर समझते हैं कि उन्होंने उसे एक गाली दे दी है।

हिंदी: और वह इस गाली को फूल की तरह ले लेता है।

उर्दू: वह हम दोनों के बीच इस संवाद में और इसके बाहर कोई भेदभाव नहीं करेगा क्योंकि वह हम दोनों से यकसां प्यार करता है, हम में से किसी एक को दूसरी से कमतर या बरतर नहीं समझता।

हिंदी: और अपनी हिंदी के सभी दरवाजे उर्दू के लिए खुले रखता है और चाहता है कि उर्दू के लेखक भी अपनी उर्दू के सभी दरवाज़े हिंदी के लिए खुले रखें। कहता है उर्दू और हिंदी के सभी लेखकों को यही करना चाहिए।

उर्दू: क्योंकि ऐसा करने से वे दोनों जवानों को और पुरजोर बना सकेंगे।

हिंदी: कहता है कि दोनों ज़बाने एक दूसरी के घर को अपना घर समझेंगी तो दोनों के घरों में रौनक रहेगी, रौशनी रहेगी, मस्ती रहेगी।

उर्दू: कहता है उर्दू और हिंदी की आपसी खाई को इसी तरह एक बाग में बदला जा सकता है।

हिंदी: कहता है हिंदी की लय को उर्दू से कोई ख़तरा नहीं होना चाहिए।

उर्दू: मानता है उर्दू के आहंग और रंग को हिंदी से कोई खतरा नहीं होना चाहिए।

हिंदी: लेकिन अब हमें इस गरदान को और आगे नहीं बढ़ाना चाहिए वरना उस पर आरोप लगाया जायेगा कि वह हम से अपना गुणगान करवा रहा है।

उर्दू: अच्छा तो यह बताओ कि तुम्हें मेरी बात समझने में कोई दिक्कत हुई?

हिंदी: यही सवाल मैं तुम से तो?

उर्दू: तो मेरा जवाब होगा, हरगिज़ नहीं।

हिंदी: तो मेरा जवाब भी यही है। लेकिन कहने वाले कहेंगे कि हमारे लेखक ने जानबूझ कर इस संवाद को आसान और सहज बना दिया है, अपनी इस दलील की पुष्टि के लिए कि हम दोनों के बीच ऐसी कोई दूरी नहीं जिसे दूर न किया जा सके।

उर्दू: ऐसे लोगों की परवाह हमारा लेखक नहीं करता, हम क्यों करें? और फिर अगर उसने अपनी दलील की ताईद के लिए हमारे इस संवाद के ज़रिये यह साबित करने की कोशिश की है कि हमारे बीच संवाद मुमकिन है तो उस पर किसी को एतराज़ क्यों हो?

हिंदी: यह एतराज़ उन्हीं लोगों को होगा जो चाहते हैं कि हमारी आपसी दूरी बनी रहे या बढ़ती चली जाये।

उर्दू: ऐसे लोगों की ज़हनियत को भी हमें बदलना होगा।

हिंदी: और उनकी नीयत को भी।

उर्दू: जहनियत और नीयत का आपसी रिश्ता बहुत करीबी।

हिंदी: इस रिश्ते को समझे और समझाये बगैर उनमें कोई परिवर्तन नामुमकिन।

उर्दू: बिल्कुल बजा।

हिंदी: सुनो, दबी ज़बान से एक बात कहूं अगर बुरा न मानो तो।

उर्दू: दबी ज़बान से नहीं, खुल कर कहो, मैं वचन देती हूं बुरा नहीं मानूंगी।

हिंदी: उर्दू के शायर हिंदी के शायरों को हीन क्यों समझते हैं, उनका मज़ाक क्यों उड़ाते रहते हैं?

उर्दू: तुम्हारा इशारा शायद उर्दू के उन शायरों की तरफ़ है जो समझते हैं कि ग़ज़ल में ही अज़ीम शायरी मुमकिन है और अज़ीम गज़ल उर्दू में ही मुमकिन है। उर्दू ग़ज़ल की खूबियों और ख़ासियतों और ताक़तों से किसी को इनकार नहीं, हिंदी के शायरों को भी नहीं, लेकिन अब कौन नहीं जानता कि ग़ज़ल के बाहर भी अज़ीम शायरी मुमकिन है, उर्दू में भी, हिंदी में भी, दीगर ज़बानों में भी। हिंदी को हीन वही कहेंगे जो उसके अदब को नहीं जानते। और ऐसे लोगों की उर्दू में कोई कमी नहीं।

हिंदी: उर्दू वालों की इस लाइल्मी को दूर करने की ज़रूरत है।

उर्दू: बहुत सख्त ज़रूरत है। हिंदी में पिछले कई बरसों से उर्दू के सभी बड़े शायरों का कलाम देवनागरी लिपि में मौजूद है। अगर हिंदी के सभी बड़े शायरों का काम भी फ़ारसी लिपि में मिलने लगे तो उर्दू वालों का यही लाइल्मी कम हो सकती है।

हिंदी: तो यह काम हो क्यों नहीं रहा?

उर्दू: कई कारण होंगे। सबसे बड़ा कारण तो यही कि उर्दू में प्रकाशन की हालत उतनी अच्छी नहीं जितनी कि हिंदी में।

हिंदी: इस समस्या पर फिर कभी बात करेंगे।

उर्दू: हां, फिलहाल तो इतना कि हर ज़बान में हर कमाल मुमकिन नहीं।

हिंदी: कोई ज़बान ऐसी नहीं जिसमें कई कमाल मुमकिन न हों।

उर्दू: हर ज़बान में नये कमाल भी मुमकिन हैं।

हिंदी: हो सकता है हिंदी में भी अज़ीम ग़ज़ल मुमकिन हो जाये।

उर्दू: हो सकता है उर्दू में भी अज़ीम आज़ाद नज़्म मुमकिन हो जाये।

हिंदी: अगर ये दोनों ज़बानें खुले दिल और दिमाग से आपस में मिलना जुलना और रसना बसना शुरू कर दें तो बहुत कुछ मुमकिन है।

उर्दू: हमारे संवाद की यह कड़ी इसी नुक्ते पर रोक दी जाये तो कैसा रहे?

हिंदी: तो अगली कड़ी की शुरुआत इसी नुक्ते से की जायेगी।

उर्दू: आदाब!

हिंदी: आदाब!

[कृष्ण बलदेव वैद का यह आलेख नया पथ, (जुलाई- सितंबर, 2008) में प्रकाशित हो चुका है। यह राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत से प्रकाशित हिंदी-उर्दू साझा संस्कृति पुस्तक (पृ. सं. 141-146) से लिया गया है]

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