भीष्म साहनी के कथाकर्म में साम्प्रदायिकता

भीष्म साहनी के कथाकर्म में साम्प्रदायिकता

किसी भी समाज को समझने में उस वक्त का साहित्य और उसका इतिहास मदद करते हैं। भीष्म साहनी के साहित्य की पड़ताल करने पर भी हमें समाज का एक चेहरा दिखाई पड़ता है। आज के पर्चे के विषय के बहाने, भीष्म जी के साहित्य के बहाने हम उनके वक्त के समाज की पड़ताल करेंगे, जिन जख्मों की लीपापोती हो चुकी है, उनकी टीस को सुनकर, संवेदित होने की चेष्टा करेंगे। साम्प्रदायिकता का जहाँ तक सवाल है, यह भावना रामाज में बहुत समय से है । साम्प्रदायिकता के हमारा तत्पर्य है किसी सदाय विशेष के व्यक्ति का, किसी समूह का अपने सम्प्रदाय के प्रति विशेष झुकाव होना। ऐसा करते हुए भी लोग एक-दूसरे के साथ समायोजन कर जीते हैं तथा एक-दूसरे के काम आते हैं। मुश्किल तथ पेश आती है जब इस भावना पर तर्क या विवेक का कोई वश नहीं चलता है तथा यह भावना विकराल व भयावह रूप धारण कर लेती है तथा उसकी कीमत दो सम्प्रदायों को जान-माल दोनों की भारी हानी से चुकानी पड़ती है। साम्प्रदायिकता की समस्या को आधार बनाकर कहानियों तथा उपन्यास लिखने वालों की अच्छी- खासी भागीदारी तथा दावेदारी विभिन्न भारतीय भाषाओं में कई लेखकों की रही है। यदि सिर्फ हिन्दी की बात करें तो ‘ज़िन्दगीनामा’ (कृष्णा सोबती), ‘आधा गाँव'(राही मासूम रजा), ‘सूखा बरगद’ (मंजूर एहतेशाम), ‘झूठा सच’ (यशपाल) तथा इनके साथ ही कई ऐसे लेखक हैं जिन्होंने साम्प्रदायिकता की समस्या को विभिन्न कोणों से, विभिन्न रूपों में रेखांकित किया है।

जहाँ तक भीष्म साहनी के कथाकर्म की बात आती है तो उनके पूरे कथाकर्म पर नजर डालने पर हमें दो विषय ही मिलते हैं, पहला मध्यवर्ग के जीवन का खोखलापन जिसे ‘चीफ की दावत’ तथा ‘मेड इन इटली’ जैसी कई प्रतिनिधि कहानियाँ हमारे सामने बयाँ करती हैं तथा दूसरा विषय है साम्प्रदायिकता तथा इसकी विकरालता अथवा इसकी समस्या या इसके परिणाम। साम्प्रदायिकता की समस्या एक ऐसी भयावहता लिए हुए हमारे समाज में व्याप्त है कि कई दफा फर्क करना मुश्किल हो जाता है कि कौन साम्प्रदायिक है कौन नहीं। अक्सर साम्प्रदायकिता की समस्या को बहुसंख्यक हिन्दू तथा अल्पसंख्यक मुसलमानों के बीच फसादों के रूप में पेश किया जाता है, मगर ‘आधा गाँव’ में राही मासूम रजा ने दस शिया मुसलमानी परिवारों की त्रासदी को बयाँ किया है। कृष्णा सोबती ने ‘जिन्दगीनामा’ में साम्प्रदायिकता के फलस्वरूप विभाजन तथा स्त्रियों पर उसके प्रभाव को वर्णित किया है। मगर जहाँ तक भीष्म साहनी की बात है, भीष्ण जी ने साम्प्रदायिकता की समस्या को जितने कोणों से देखा, झेला और दिखाया, हिन्दोस्तान में शायद ही कोई कथाकार होगा जिसके पास इस समस्या को देखने और दिखाने के इतने कोण हों। भीष्म जी का जन्म 1915 को अविभाजित हिन्दुस्तान के गुलाम वातावरण में पेशावर में हुआ। जब वे तरूण हुए उस वक्त भी भारत गुलाम था, जब समझदार हुए तब तक अंग्रेज हिन्दू-मुसलमानों को आपस में लड़ाने की साजिश कर चुके थे जिसका नतीजा दंगे थे जिसको आधार बनाकर यशपाल ने ‘झूठा सच’ लिखा तथा भीष्म जी ने ‘तमस’ जैसा कालजयी उपन्यास लिखा जो हमारे समय में एक दस्तावेज है। वे कांग्रेस के कार्यकर्ता थे, नतीजतन दंगों के बाद स्थिति को सम्भालने की जिम्मेदारी भी उनके कंधो पर होती थी तथा दंगों का राक्षसी रूप में अपनी आँखों से देखते भी थे। शायद यही वह भोगा हुआ यथार्थ था जो उनकी कलम में बार-बार उतर आता, फिर वह अमृतसर आ गया है. हो या ‘आवाजे’ , ‘चीले’ या ‘जहूरवस्था’ , ‘निमित्त’ या फिर पाली।

सभी रचनाओं में साम्प्रदायिकता की प्रामाणिक व संवेदनशील रिपोर्टिंग दर्ज है। वे इस भयावहता का प्रमाण खुद देते हैं, “मैं अनेक दंगे देख चुका था, इसलिए वातावरण में होने वाली छोटी-सी तब्दिली को भी भाँप गया, भागते व्यक्ति , खटाक से बंद होते दरवाजे. घरों की छतों पर खड़े लोग, चुप्पी और सन्नाली, सभी दंगों के चिहन थे।” अमृतसर आ गया है )

सच! इससे भयावह दृश्य और क्या हो सकता है किसी तूफान से पूर्व सन्नाटे का, जो अकसर तूफान से पहले होता है। यही नहीं अपने ये अनुभव उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में भी साझा किया है- “चारों ओर छाई चुप्पी को भी सुन” चुका हूँ। अकुलाहट-भरी इस नीरवता का अनुभव भी कर चुका हूँ। सूनी गलियाँ लाँघ चुका हूँ । पर मैंने यह चुप्पी और इस वीरानी का ही अनुभव नहीं किया था. मैने पेड़ों पर बैठे गिद्ध और चीलों को भी देखा था। आधे आकाश में फैली आग की लपटों की लौ को भी देखा था, गलियों-सड़कों पर भागते कदमों और रोंगटे खड़े कर देने वाली चिल्लाहटों को भी सुना था और जगह-जगह से उठने वाले धर्मान्ध लोगों के नारे भी सुने थे, चीत्कार सुनी थी।” (आज के अतीत)

उनके ये अनुभव थे तो बंबई दंगों के, मगर उनके अनुभव के संसार में सिर्फ भिंडवी ही कैद नहीं थी बल्कि रावलपिंडी तथा कई ऐसी जगहें भी थी जिनने उन्हें ‘तमस’ लिखने की न सिर्फ प्रेरणा दी बल्कि उनका हाथ पकड़कर लिखने को बाध्य किया। साम्प्रदायिकता का एक अन्य दृश्य ‘निमित्त’ कहानी में देखने को मिलता है जहाँ दंगे होने पर मिल का मालिक अपने मुसलमान मजदूर इमामदीन को गाड़ी में बिठाकर फरार भी करवाता है और दंगाइयों को उसके पीछे लगा भी देता है । हमारी जिन्दगी में हम कई ऐसे दोहरे चरित्र के लोग देखते हैं जो साँप बनकर डसते भी हैं तो ओझा बनकर जहर उतारने का नाटक भी करते हैं। कहानी का यह पात्र ये जानने के लिए बेचैन है कि इमामदीन दंगाइयों के हाथों मरा या नहीं। वही उसका मनोरंजन है। ऐसे चरित्र तमस के मुराद अली की याद दिला देते हैं जो पहले तो नत्थु से सूअर मरवाता है और उसे मस्जिद के बाहर फिंकवाता है और दूसरी तरफ सद्भावना रैली में सबसे अगली सीट पर बैठकर अमन के नारे भी लगवाता है। ऐसे चरित्रों की परतें उघाड़ते हुए भीष्ण जी लिखते हैं- “ड्राइवर की सीट के साथवाली सीट पर एक आदमी हाथ में माइक्रोफोन पकड़े बैठा था। बहुत से लोगों ने उसे नहीं पहचाना। नत्थु मर चुका था, वरना नत्थु यहाँ मौजूद होता तो उसे पहचानने में देर नहीं लगती। मुराद अली था कैंटीली मूंछों वाला मुराद अली।” (तमस )

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मुराद अली जैसे चरित्र हमारे समाज, हमारे आस-पास में बहुतायत हैं मगर ‘निमित्त के उस ड्राइवर’ शेर सिंह जैसे चरित्र भी समाज में कम नहीं हैं जो इमामदीन को सही-सलामत घर पहुंचा देते हैं जिसकी जान को दंगे में खतरा था। भीष्म साहनी को दंगो का अकूत अनुभव था जो उनके द्वारा खड़े किए गए चरित्रों के रूप में बार-बार दिखता था। इन चरित्रों में जहाँ नकारात्मक अनुभवों की झलक मिलती है वहीं सकारात्मकता भी कम नहीं है। निमित्त का शेर सिंह दरअसल उसी सकारात्मक अनुभव का जीवत प्रमाण है। ऐसा एक पात्र ‘तमस’ में भी आता है जिस पर चर्चा ज़रूरी है। शहनवाज नाम का यह पात्र उपन्यास में बहुत थोड़े समय के लिए आया, मगर उसकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। एक तरफ हिन्दुओं के हाथों मुसलमानों का मारा जाना उसे मथता है, एक अंतर्द्वन्द उसके मन में चलता है, उसे प्रतिक्रियावादी बनाने की कोशिश करता है जिसकी अभिव्यक्ति नौकर को लात मारकर होती है, मगर दूसरी तरफ अपने जिगरी दोस्त तथा उसके परिवार को वह सही-सलामत सुरक्षित जगह पर पहुंचाता है। परिस्थितियों का यही द्वन्द एक सजग साहित्यकार पहचानता है और उसे अपने साहित्य में अभिव्यक्ति देता है। तमस में एक और महत्वपूर्ण किरदार है- “एहसान अली की पत्नी तथा रमजान अली की माँ। एक तरफ जहाँ एहसान अली हरनाम सिंह की दुकान लूटता है, वहीं दुकान जही उसका उठना-बैठना है तथा हरनाम सिंह से लेन-देन, तो दूसरी तरफ उसी एहसान अली की पत्नी न सिर्फ हरनाम सिंह और उसकी पत्नी को पनाह देती है बल्कि उन्हें सुरक्षित स्थान तक भी पहुँचाती है, उनके गहने भी लौटाती है।

दरअसल, भीष्म जी ने साम्प्रदायिकता की समस्या के साथ अपने साहित्य के माध्यम से पूरी जिन्दगी युद्ध किया तथा यह भी बताना चाहा कि इसके कारण क्या-क्या हैं, दंगो के वक्त परिस्थितियों किस तरह बदलती है और सालों की जान-पहचान को किस तरह अजनबीपन में बदल देती हैं। ऐसी परिस्थितियों ‘तमस’ में बहुतायत चित्रित हुई हैं। मगर इस बदलते वातावरण की भयानकता और त्रासदी को ‘अमृतसर आ गया है’ बड़े अच्छे और प्रभावी ढंग से चित्रित करती है। बाबू का खामोश बैठकर पठानों के उलाहने सुनना तथा ‘अमृतसर’ आ जाने पर अचानक से रंग बदलकर आक्रामक हो उठना, साथ ही एक मुसलमान मुसाफिर को ट्रेन में न चढ़ने देना तथा रॉड से मारकर उसकी हत्या कर देना, ऐसी ही घटनाएं हैं। दरअसल, किसी भी देश की जनसंख्या में मध्य वर्ग बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। मध्यवर्ग किसी भी देश में क्रांति की पूरक शक्ति के रूप में भूमिका करता है। इस बात को भीष्म साहनी जैसा वर्ग चेतना से लैस लेखक भली-भाँति जानता था, मगर यह मध्यवर्ग राजनीतिक जागरूकता के अभाव में तथा प्रचारतंत्र के जाल में फंसकर जल्द ही गुमराह भी हो जाता है, यह भी भीष्ण साहनी जैसा लेखक खूब समझता था। इसलिए उस जैसे लेखक के पात्र मध्यवर्ग से आते थे।

‘अमृतसर आ गया है’ का वह बाबू भी मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। ‘अमृतसर आ गया है’ के पठान उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं जितना कि वह बाबू। उन पठानों की फब्तियाँ उतनी महत्वपूर्ण नहीं जितनी कि अपने इलाके में आने के बाद लाल अंगारों-सी जलती उसकी आँखें , दरअसल, यह कहानी जनता को बताती है कि कैसे दंगे लोगों के मन-मस्तिष्क को बदल डालते हैं, परिस्थितियों किस प्रकार व्यक्ति के हाथ में छुरा पकड़ा देती हैं। इन्हीं बदलते परिस्थितियों तथा परिवेश को प्रामाणिक रूप में पेश करती है उनकी कालजयी कृति- तमस। ‘तमस’ इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह साम्प्रदायिक दंगे भड़काने में सरकार की भूमिका तथा उसकी तटस्थता पर चोट करती है। नत्थू के द्वारा सूअर मारना शायद इतिहास की सबसे बड़ा त्रासदी कही जायेगी। नत्थु जैसे निर्दोष लोग तो समझ ही नहीं पाते कि उनका इस्तेमाल मुराद अली के जरिये कोई और कर रहा है। भीष्म जी ने लीज़ा नाम की बहुत महत्वपूर्ण चरित्र का सृजन किया है जिसके तानों से साफ पता चलता है कि होने वाले दंगों में रिचर्ड की क्या भूमिका है- “उसने पाईप सुलगाया और मेज़ के नीचे टोंगे पसारकर, तफरीह के मूड में, मुस्कराकर बोला, “कहाँ से शुरू करूँ?” “क्या, कहीं से शुरू करो, रिचर्ड? “लीजा ने भवें उठाकर पूछा। “तुम यही जानना चाहती थी, न कि यहाँ पर क्या कुछ हुआ है!” अबकी बार लीजा ने कन्धे विचका दिए, मानो कह रही हो, सुनाओ या न सुनाओ, कोई खास फर्क नहीं पड़ता।” (तमस )

दरअसल, लीजा का यह स्वभाव रिवर्स को कटघरे में खड़ा करता है, जनता की अदालत के कटघरे में। इसलिए तमस एक कालजयी कति है जिसमें साम्प्रदायिकता की समस्या के लगभग हर पहलू को भीष्ण जी दिखाते है, कभी हरनाम सिंह के जरिये जो दंगों के हो जाने के बावजूद अपनी जगह से उजाड़ना नहीं चाहता और जिसे उम्मीद है कि जल्द ही हालात अचो हो जायेंगे मगर उसे विस्थापन झेलना पड़ता है। कभी इकबाल सिंह के माध्यम से जिसका जबरन धर्म परिवर्तन कराया जाता है। कभी हमारी मुलाकात तपस्वी महाराज जैसे चरित्रों से होती है जो दंगे को विस्तार देने के लिए साम्प्रदायिक माहौल बनाते है तो वहीं कॉ. देवदत्त जैसा चरित्र भी है जो अपनी जान की परवाह किए बगैर दोनों सम्प्रदायों के बीच, लीगी और काँग्रेसियों के बीच संवाद स्थापित करने की जिम्मेदारी सम्भालता है।

इसी तरह के या इससे भी इतर कई चरित्र हमें उनके साहित्य में आगे भी मिलते हैं जो साम्प्रदायिकता की समस्या को तथा उसके परिणामों को हमारे सामने उजागर करते हैं। आवाजें भीण जी की एक लम्बी तथा बहुचर्चित कहानी है जो ‘अमृतसर आ गया है’ की तरह बेहतर शिल्प के लिए जानी जाती है। आवाजें में एक शरणार्थी कैम्प की कहानी है तथा इसमें पीढ़ियों के अंतस्संघर्ष को रेखांकित किया गया है। इसी तरह पाली भी एक लंबी कहानी है जो बाद में उपन्याससिका के रूप में प्रकाशित हुई। पाली की कथावस्तु मनोवैज्ञानिक है। एक बच्चा जो पाकिस्तान में पलता- बढ़ता है तथा कालांतर में उसे उसके हिन्दू माँ-बाप मिल जाते हैं। भीष्म जी इन सूक्ष्म चीज़ों का गहराई से निरीक्षण करते हैं तथा कहानी के माध्यम से उनकी कागज पर नक्काशी करते हैं। भीष्म जी साम्प्रदायिकता का वर्णन और चित्रण करते हुए एक चित्रकार के रूप में नजर आते हैं। इनके यहाँ साम्प्रदायिकता की समस्या आम लोगों के दृष्टिकोण रेखांकित होती है तथा भीष्ण जी के कथाकर्म में यह समस्या जितने कोणों से तथा जितनी बार प्रतिविम्बित हुई है उतनी संजीदगी से किसी अन्य लेखक के यहाँ शायद ही मिलेगी।

-अजय महताब (लेखक ‘परिकथा’ पत्रिका के सहायक संपादक हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ और कविता विशेषांक प्रकाशित। आदिवासी विमर्श की प्रतिनिधि कहानियों के संकलन ‘माँदर पर थाप’ का संपादन। राजेन्द्र विद्यालय में बतौर हिन्दी शिक्षक कार्यरत।)


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