अमेरिका आखिर क्यों चीन को नहीं देखना चाहता?

अमेरिका आखिर क्यों चीन को नहीं देखना चाहता?

चीन के विरूद्ध ट्रंप प्रशासन द्वारा चीन के खिलाफ निंदा अभियान लगातार तेज होता जा रहा है। चीन-अमेरिका के मध्य चल रहे ट्रेड वार की पृष्ठभूमि में इस लड़ाई ने, कोरोना काल में, एक नया आयाम ग्रहण कर लिया है। ये बात दुनिया भर में एक लगभग स्थापित-सी हो गई है कि डोनाल्ड ट्रंप अपनी विफलताओं को छुपाने के लिए सारा दोरामदार चीन पर थोप अपनी जिम्मेवारी से बच जाना चाहते हैं।

सबसे विचित्र स्थिति भारत की है। भारत-चीन का आधी सदी से भी अधिक का सीमा विवाद फिर कुछ दिनों गहराने लगा है। सीमा पर तनाव बढ़ गया है, दोनों पक्षों की ओर से सेना की गोलबंदी शुरू हो गई है। अमेरिका ने इन तनावों के बीच मध्यस्थता की भी पेशकश कर दी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत और अमेरिका की नजदीकी नरेंद्र मोदी के समय में काफी बढ़ चुकी है। कई अंतरराष्ट्रीय समझौते इसकी तस्दीक करते हैं। निकट होने की यह प्रक्रिया अब इतनी आगे बढ़ चुकी है कि डोनाल्ड ट्रंप की खुलेआम धमकी को भी भारत द्वारा मित्रतापूर्ण व्यवहार की श्रेणी में ही गिना जाता है।

चीन और अमेरिका के बीच क्या चल रहा है इसकी खबरें हमें अधिकांशत: अमेरिकी या ब्रिटिश एजेंसियों से ही प्राप्त होती है। भारत में चीन से संबंधित सारी सूचनाएं अमेरिकी या ब्रिटिश समाचार एजेंसियों के माध्यम से आती है। इस कारण चीन के बारे में कभी भी वस्तुपरक मूल्यांकन नहीं हो पाता। अमेरिकी न्यू एजेंसियों के हित अमेरिकी राज्य से जुड़ाव हजार धागों से जुड़े होते हैं। इराक युद्ध के दौरान हमने अमेरिकी और ब्रिटिश समाचार एजेंसियों की काली करतूतों से हम सभी अवगत है। भारत के किसी समाचार चैनल का कोई प्रतिनिधि चीन में मौजूद नहीं है। इस कारण चीन के बारे में अमेरिकी दृष्टिकोण के अलावा कोई दूसरा दृष्टिकोण भारत के नागरिकों को उपलब्ध ही नहीं होता। भारत के संपादकीय पन्नों पर दशकों से अमेरिकी हितों को प्राथमिकता देने वाले लेखकों की टिप्पणियां पढ़ने को मिलती हैं। भाजपा के सत्तासीन होने के बाद चीन विरोधी सुर काफी तेज हो गए है।

कोराना नहीं, वुहान वायरस

जबसे कोरोना वायरस के चीन के वुहान शहर में उत्पत्ति संबंधी खबरें आने लगी है अमेरिका इस वायरस का नामकरण में चीन का नाम जोड़ना चाहता था। 25 मार्च को जी-7 देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक के समापन के अवसर पर दिये जाने वाले वक्तव्य पर सहमति नहीं बन पाई थी। इस वक्तव्य को ड्राफ्ट करने की जिम्मेवारी अमेरिका की थी। उसने कोरोना वायरस को ‘वुहान वायरस’ लिखते हुए ये जोर डाला कि यह वैश्विक महामारी चीन की देन है। इस बात पर अमेरिका छोड़ बाकी देश सहमत नहीं हो पाए। फलतः सामूहिक वक्तव्य पर सहमति नहीं बन पाई। इस घटना के पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कोरोना वायरस को ‘चीनी वायरस’ की संज्ञा दी थी। हालांकि, बाद में उन्होंने इस पद का इस्तेमाल करना बंद कर दिया था। ट्रंप प्रशासन के एक व्यक्ति ने इस वायरस को ‘कुंग फ्लू’ सरीखी अपमानजनक टिप्ण्णी भी की थी। अमेरिका के ‘फॉक्स न्यूज’ के एंकर जेस्सी वाटर्स ने रंगभेदी ढ़ंग की टिप्पणी करते हुए कहा ‘‘चीन में ये वायरस क्यों पैदा हुआ? क्योंकि चीनी लोग कच्चे चमगादड़ों,छिपकिलियों और सांपों को भोजन के रूप में खाते हैं।’’ इस दुष्प्रचार का परिणाम ये हुआ कि अमेरिका में ऐशियाई लोगों पर हमले बढ़ने लगे। संभवतः इन्हीं वजहों से ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के महानिदेशक टेड्रोस अधानोम घेब्रेसियस को कहना पड़ा- ‘लांछन नहीं, बल्कि एकजुटता।

कोरोना वायरस था का आधिकारिक नाम H1N1 और सार्स का विकास ठीक उसी तरह हुआ है जैसे बाकी वायरसों का। यानी जानवरों से मनुष्यों के मध्य प्रसारित हुआ है। अब तक वैज्ञानिकों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मध्य इस बात पर सहमित नहीं बन पाई है कि इस कोरोना वायरस की उत्पत्ति कैसे हुई लेकिन यह स्पष्ट है कि जानवरों के रहने के स्थलों से ये मानव समाज के पास चला आया है। अधिकांश नये रोगों व महामारियों के उभरने के पीछे यही कारण रहा है। कोराना वायरस के पूर्व H1N1, H5N2, H5N6, A/H1N1 सरीखे वायरसों के उभरने का यही रूट रहा है।

H5N2 की उत्पत्ति अमेरिका में हुई थी लेकिन किसी ने भी उसे ‘अमेरिकी वायरस’ कहकर अमेरिका को लांछित नहीं किया था। दरअसल, इस किस्म के वायरसों का उभरना प्रकृति व मनुष्यों के मध्य बिगड़ते संतुलन का परिणाम है। मनुष्यों द्वारा जानवरों के रहने की जगहों यानी जंगलों में हस्तक्षेप करने का स्वाभाविक परिणाम है महामारियों का उभार।

‘स्पैनिश फ्लू’, स्पेन नहीं, अमेरिका से फैला

वायरसों का नामकरण हमेशा से एक विवादित मसला रहा है। 1832 में ‘कॉलरा’ जब हिंदुस्तान से यूरोप की ओर फैला तो इसे ‘एशियाटिक कॉलरा’ की संज्ञा दी गयी। अमेरिका में 1848 में कॉलरा पहुंचा उसके बाद ही वहां ‘सार्वज्निक स्नान आंदोलन’; पब्लिक बाथ मूवमेंट की शुरूआत हुई। कोराना के वक्त पूरी दुनिया में 1918 के स्पैनिश फ्लू को के ध्वंसात्मक प्रभाव की याद आयी। स्पैनिश फ्लू का नाम स्पेन के नाम पर पड़ा। इसी भी दिलचस्प कहानी है। प्रथम विश्वयुद्ध के वक्त अधिकांश देशों में प्रेस पर पाबंदी लगी हुई थी। चुंकि स्पेन प्रथम विश्व युद्ध का हिस्सा नहीं था फलतः वहां प्रेस का स्वतंत्र था। इन्हीं वजहों से स्पेन में महामारी से संबंधित रिपोर्टिंग भी सबसे अधिक हुई। स्पेन में रिपोर्टिंग अधिक हुई इस कारण इस महामारी को ‘स्पैनिश फ्लू’ का नामकरण कर दिया गया।

जबकि संभावना व्यक्त की गई थी कि स्पैनिस फ्लू का प्रारंभ अमेरिका के सैन्य आधार वाले कांसास से हुआ जहां मुर्गी के माध्यम से इस वायरस का प्रसार, प्रथम विश्व युद्ध के, सैनिकों में हुआ। वहां से स्पैनिश फ्लू ब्रिटिश भारत सैनिकों के माध्यम से ही पहुंचा। स्पैनिश फ्लू से हुई मौतों में भारत का हिस्सा 60 प्रतिशत था। लगभग पौने दो करोड़ सिर्फ भारत में काल-कवलित हो गए। लेकिन कभी भी इस वायरस को ‘अमेरिकन वायरस’ के रूप में बदनाम नहीं गया। न ही भारत ने अमेरिका से इतनी मौतों का कोई मुआवजा मांगा जैसा आज अमेरिका चीन के साथ करने की धमकी दे रहा है।

चीन तकनीक के मामले में अमेरिका से आगे

आखिर अमेरिका को चीन से इतनी दिक्कत क्यों हो रही है? चीन की सबसे खास बात ये है वह विश्व बाजार पर तेजी से पकड़ बनाने के अलावा अपने घरेलू बाजार का भी तेज गति से विस्तार करता जा रहा है। चीन में घरेलू बाजार बढ़ने का कारण वहां लोगों की बढ़ती आमदनी और मजदूरी में बढ़ोतरी है। चीन उत्पादन के कुछ मामलों में यूरोप से आगे बढ़ता जा रहा है। वित्तीय और तकनीक क्षेत्र में काफी प्रगति हो जाने के कारण वो दुनिया के देशों को वो उपलब्ध कराने की स्थिति में है।

पेटेंट के मामले में भी चीन दुनिया में काफी आगे है। चीन में पेटेंट अमेरिका से चार गुणा ज्यादा है। सार्वजनिक शिक्षा के मामले चीन में हुए एक 15 वर्ष के बच्चों की प्रतियोगिता संबंधी अध्ययन में ये बात स्पष्ट होकर सामने आई कि अपने चीन के शंघाई आधारित बच्चे अपने अमेरिकी साथियों के मुकाबले बहुत आगे थे। आज चीन में दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले अधिक साइंटिफिक इंटेलिजेंसियां है।

चर्चित मार्क्सवादी चिंतक एजाज अहमद कहते हैं- ‘‘चीन जिन क्षेत्रों में आगे है वहां अमेरिका सोच भी नहीं सकता है खासकर तकनीक आदि के मामले में। चीन ने तकनीक, उत्पादन और औद्योगिक विकास के मामले में जो प्रगति की है उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं है। आज चीन दुनिया का इकलौता सबसे महत्वूपर्ण उत्पादक केंद्र है। चीन दुनिया का आज वैसा ही औद्योगिक उत्पादन केंद्र है जैसा अमेरिका 70-70 वर्ष और इंग्लैंड उन्नसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में हुआ करता था। चीन अभी एकमात्र मैन्यूफैक्चरिंग औद्योगिक देश है।’’

लेकिन सैनिक क्षमता के मामले में चीन अमेरिका से काफी पीछे है। सैन्य मामलों में चीन सुरक्षात्मक स्थिति में है। फिर भी चीन का सुरक्षात्मक सैन्य ढ़ांचा इतना सशक्त माना जाता है कि अमेरिका के लिए उससे पार पाना अब आसान नहीं होगा। अमेरिका मे चीन को लेकर नर्वस बढ़ रहा है। इन्हीं वजहों से चीन को लेकर आक्रामक होता जा रहा है।

अमेरिका, भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया के अपने 10 साल पुराने गठबंधन के माध्यम से चीन को घेरने का प्रयास कर रहा है। भारत को तो पता ही नहीं चल रहा है कि चीन के साथ क्या करें? भारत का अपने पड़ोसियों के साथ कैसे रहना है इसे लेकर भी उहापोह की स्थिति है। भारत का संबंध किसी भी पड़ोसी देश के साथ अच्छा नहीं है।

ईरान और वेनजुएला को चीन का सुरक्षा कवच चीन का प्रभाव इस कदर बढ़ता जा रहा है कि अमेरिका को सोच समझकर कदम उठाने पड़ रहे हैं। 24 मई को इरान के बांदर अब्बास बंदरगाह से ‘फॉर्च्यून’ नामक पहला तेल टैंक ने कैरेबियन सागर में। वेनेजुएला के नेवी और एयरफोर्स ने अपने संरक्षण में प्यूरतो कैबेलो ऑयल टर्मिनल के लिए ले गई। इसी प्रकार दूसरा तेल टैंक 25 मई को पहुंचा। तीन अन्य तेल टैंक रास्ते में हैं। आम दिनों में सामान्य-सा लगने वाला ये व्यापारिक लेन-देन होता लेकिन अभी दुनिया में जिस ढ़ंग का तनाव चल रहा है उसमे ये ‘नार्मल’ बात नहीं है।

दुनिया भर में ये प्रश्न उठ रहा है कि आखिरकार अमेरिका ने अपने दो जानी दुश्मनों ईरान और वेनेजुएला के मध्य तेल के व्यापारिक लेन-देन को क्यों नहीं रोका? इसकी मुख्य वजह इन दोनों मुल्कों के बीच चीन का खड़ा होना है। चीन के ईरान के साथ गहरे व्यापारिक ताल्लुकात हैं। वेनेजुएला से भी चीन ने लगातार अपने संबंध प्रगाढ़ बनाए हैं। कोराना काल के दौरान चीन ने इन दोनों देषों को आवश्यक सेवाओं की सप्लाई किया था। चीन ने इधर संयुक्त राष्ट्र में लगातार इन दोनों देशों-ईरान और वेनेजुएला; में सत्ता परिवर्तन की अमेरिकी कोशिशों के विरूद्ध निरंतर आवाज उठाई है। यह चीन का सुरक्षा कवच ही था जिसकी वजह से अमेरिका द्वारा नौसेना के प्रतिबंधों के बावजूद तेल टैंको को वेनेजुएला पहुंचने में सहायता की।

क्या चीन का अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में उभार अमेरिका के लिए खतरा है। अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा नहीं है इसकी प्रमुख वजह ये है कि सैन्य मामलों में अमेरिका चीन से काफी आगे है। भले ही अमेरिकी प्रभाव में हाल के दिनों में गिरावट आई हो लेकिन अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी सैनिक ताकत है। इसके अलावा सभी महत्वपूर्ण आर्थिक संस्थानों- विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि उसके प्रभाव या कहें कब्जे में हैं। यह कार्य वह अपनी मुद्रा डॉलर की वर्चस्वशाली हैसियत के कारण कर पाता है।

अमेरिका आज वैसे ही सोच रहा है जैसा कि पुराना उपनिवेशवाद सोचा करता था कि दुनिया के संसाधनों पर कब्जा करने का सबसे पहले अधिकार उसका है और जो कोई भी इसमें बाधा बनेगा उसे रास्ते से हटा दिया जाएगा। इन्हीं वजहों से अमेरिका चीन को दूसरी आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरने देखना नहीं चाहता।

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