जाने-माने गीतकार, लेखक और फिल्म निर्देशक गुलज़ार सामाजिक मुद्दों पर हमेशा बेबाकी से अपनी राय रखते हैं। वे अक्सर नज़्मों, गीतों और कविताओं के जरिए अपने जज्बात को बयां करते हैं। मौजूदा कोरोना संकट और लॉकडाउन की वजह से मजदूरों के पलायन पर भी उन्होंने अपनी संवेदनाएं व्यक्त की हैं। उन्होंने अपनी दो मार्मिक नज़्मों के जरिए मजदूरों की दुर्दशा पर प्रकाश डाला है। गुलज़ार ने ये दोनों नज्में वीडियो की शक्ल में फेसबुक पेज पर शेयर की हैं।
(1)
कुछ ऐसे कारवां देखे हैं सैंतालिस में भी मैंने
ये गांव भाग रहे हैं अपने वतन में
हम अपने गांव से भागे थे, जब निकले थे वतन को
हमें शरणार्थी कह के वतन ने रख लिया था
शरण दी थी
इन्हें इनकी रियासत की हदों पे रोक देते हैं
शरण देने में ख़तरा है
हमारे आगे पीछे, तब भी एक क़ातिल अजल थी
वो मज़हब पूछती थी
हमारे आगे पीछे, अब भी एक क़ातिल अजल है
ना मज़हब, नाम, ज़ात, कुछ पूछती है
—मार देती है
ख़ुदा जाने ये बटवारा बड़ा है
या वो बटवारा बड़ा था।
(2)
घरों को भाग लिए थे सभी मज़दूर, कारीगर।
मशीनें बंद होने लग गई थीं शहर की सारी
उन्हीं से हाथ पाओं चलते रहते थे
वगर्ना ज़िन्दगी तो गाँव ही में बो के आए थे।
वो एकड़ और दो एकड़ ज़मीं, और पांच एकड़
कटाई और बुआई सब वहीं तो थी
ज्वारी, धान, मक्की, बाजरे सब।
वो बँटवारे, चचेरे और ममेरे भाइयों से
फ़साद नाले पे, परनालों पे झगड़े
लठैत अपने, कभी उनके।
वो नानी, दादी और दादू के मुक़दमे।
सगाई, शादियाँ, खलियान,
सूखा, बाढ़, हर बार आसमाँ बरसे न बरसे।
मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है।
यहाँ तो जिस्म ला कर प्लग लगाए थे!
निकालें प्लग सभी ने,
‘चलो अब घर चलें’–और चल दिए सब,
मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है!
–गुलज़ार
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