लिखा परदेश किस्मत में वतन की याद क्या करना, जहां बेदर्द हाकिम हो वहां फरियाद क्या करना?

लिखा परदेश किस्मत में वतन की याद क्या करना, जहां बेदर्द हाकिम हो वहां फरियाद क्या करना?

भारत सहित दुनिया के विभिन्न देश आज गंभीर आर्थिक एवं राजनीतिक संकट से गुजर रहे हैं जिसका खामियाजा मजदूर वर्ग को उठाना पड़ रहा है। देश में करीब मजदूर वर्ग का 80 फीसदी जमात असंगठित तौर पर काम करता है जो बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के काम करने को विवश है। हमारे राज्य का एक बड़ा मजदूर वर्ग अपने राज्य से पलायन कर दिल्ली, पंजाब, गुजरात महाराष्ट्र तमिलनाडु एवं देश के विभिन्न राज्यों में दिहाड़ी मजदूर एवं छोटे-मोटे उद्योग धंधों में काम करते हैं जहां वे विभिन्न तरह के क्षेत्रीय जातीय एवं सामाजिक तथा आर्थिक भेदभाव का सामना करते हैं।

बिहार में बेहतर रोजगार की सुविधा न होने के चलते बहुत सारे मजदूर अकुशल कामों में किसी तरह अपना गुजारा करते हैं। कोरोना ने उनके सामने एक गंभीर संकट लाकर खड़ा कर दिया है। अदम गोंडवी ने ठीक ही कहा है- सहमी सहमी हर नजर हर पांव में जंजीर है। ये मेरे आजाद हिंदुस्तान की तस्वीर है।।

प्रवासी मजदूरों का अपने राज्य में लौटने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है अभी भी बहुत सारे मजदूर रास्ते में फंसे हैं राज्य सरकारें चाहे जो भी दावे कर ले मजदूरों को उनके दावे पर कोई भरोसा नहीं रह गया है। इस कारण वह उन राज्यों को छोड़कर अपने-अपने राज्यों की ओर पलायन कर गए हैं।

इस बीच वे बहुत सारे मुसीबतों का भी सामना कर रहे हैं मजदूरों में भी कई श्रेणियां हैं वह मजदूर जो श्रेणीबद्ध है उन्हें राज्य सरकारें ट्रेन एवं विभिन्न यातायात के साधनों द्वारा संबंधित स्थानों पर भेजने का काम कर रही हैं लेकिन जो श्रेणीबद्ध नहीं है वे छुपे तौर पर विभिन्न साधनों के द्वारा अपने पैसे खर्च कर अथवा पैदल या साइकिल के द्वारा अपने संबंधित राज्यों की ओर कूच कर गए हैं।

यहां एक समझने के लिए एक मजदूर जिसका नाम दीपक कुमार है और वारसलीगंज के लोदीपुर गांव के रहने वाले हैं, अपनी पत्नी श्रीमती रिंकू देवी के साथ गुजरात के सियाराम कंपनी में, जो एक टाइल्स बनाने वाली कंपनी है; मजदूरी करते हैं- कंपनी में दीपक कुमार मशीन चलाते हैं। कंपनी वाले इन्हें 22,000 रुपये प्रतिमाह मजदूरी के तौर पर देते हैं। काम का घंटा 12 घंटा है। लॉकडाउन में इनका काम बंद हो गया था। पिछले दो महीने से बैठकर खा रहे थे। अब आगे रहना मुश्किल हो गया था, फलस्वरूप ट्रक द्वारा प्रति व्यक्ति 3,300 रुपये देकर पटना पहुंचे हैं।

दीपक के साथ तीन छोटे-छोटे बच्चे जिनका उम्र क्रम से 5 साल, 3 साल और 1 साल थे। गर्मी के चलते बच्चे परेशान थे। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा- पेट की खातिर वह उतना दूर गए हैं। अगर बिहार सरकार समुचित व्यवस्था करें तो बाहर क्यों जाएंगे सर। उन्होंने यहां तक कहा अगर यहां कुछ कम भी पैसा मिले तो चलेगा। किसी ने ठीक ही कहा है- लिखा परदेश किस्मत में वतन की याद क्या करना? जहां बेदर्द हाकिम हो वहां फरियाद क्या करना?

-राजकुमार शाही (लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार उनके निजी हैं)

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