स्वामी सहजानंद : तीसरी दुनिया के जनांदोलनों के ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल

स्वामी सहजानंद : तीसरी दुनिया के जनांदोलनों के ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल

अभी हाल में सवर्ण जाति के लोगों के नरंसहार, सेनारी नरसंहार, के अभियुक्त साक्ष्य के अभाव में अदालत से बरी हो गए। अब तक पिछड़ी व दलित जातियों के नरसंहार के सवर्ण आरोपी ही दोषमुक्त होते रहे हैं। लेकिन पहली बार सवर्ण जाति के किसानों के नरसंहार के अभियुक्तों (मुख्यतः पिछड़े-दलित तबके से आने वाले) का छूट जाना थोड़ा आश्चर्य पैदा करता है। सेनारी गांव में मारे गए 35 लोगों में सभी किसान पृष्ठभूमि के लोग थे। सेनारी नरसंहार के अभियुक्तों के दोषमुक्त होने की घटना ने पुनः एक बार नरसंहार की पृष्ठभूमि के संबन्ध में इस सवाल को जन्म दिया कि आखिर क्यों किसानों व खेत मज़दूरों का मध्य आपसी अंतर्विरोध हिंसक विस्फोट का शिकार हो गया था।

बिहार में मगध इलाका लगभग दो दशकों रक्तरंजित रहा। सैंकड़ों लोग नरसंहारों के शिकार हुए। पीयूडीआर (पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) के बिहार में नरसंहारों संबंधी रिपोर्ट में इस बात को स्पष्टता से रेखांकित किया गया है कि अधिकांश नरसंहारों की जड़ में मजदूरी का प्रश्न प्रधान रहा है। इस दौरान खेत मज़दूरों को किसानों के विरुद्ध किया जाने लगा और उन्हें इसे जातीय खांचे में कैद करने परिपाटी शुरू हो गई। नरसंहारों की राजनीति के जरिये किसानों व खेत मज़दूरों के बीच की एकता को तार-तार कर उनके बीच अविश्वास की खाई चौड़ी कर दी गई।

बिहार में जिस वर्ष, 1994, खेत मज़दूरों के शत्रु माने जाने वाले निजी सेना रणवीर सेना का संगठन हुआ उसी वर्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती की 1941 में लिखी पुस्तक ‘खेत मज़दूर’ प्रकाशित हुई थी। पांच दशकों तक महत्वपूर्ण कृति का प्रकाशन न हो पाना थोड़े आश्चर्य का विषय है। यह पुस्तक यदि कुछ दशक पहले प्रकाशित होती तो बहुत सारे उलझन साफ हो जा जा सकते थे।

किसान भी खेत मज़दूरों के शोषण में पीछे नहीं

किसानों को जो खुद पहले सामंती उत्पीड़न बाद में साम्राज्यवादी शिकंजे के शिकार थे, उसे ही खेत मज़दूरों के शोषकों के रूप में चित्रित कर लड़ाई की पूरी दिशा को भटका दिया गया। इसका फायदा किसानों के दुश्मनों को मिला। इस कारण उन्हें किसानों से बेहतर व्यवहार करने का प्रयास करना चाहिए।

क्रांतिकारी किसान नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने ‘खेत मज़दूर’ किताब में लगभग किसानों को चेताते हुए वे कहते हैं- ” यदि किसानों को बर्बाद नहीं होना है, अगर वे अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारना नहीं चाहते, यदि वे नहीं चाहते कि उनके असली शत्रु उन्हीं के घर में लड़ाई लगा के उन्हें तबाह करें, तो खेत-मजदूरों से समानता और भाईचारा का सलूक बिना विलम्ब करना होगा।” साथ ही यह भी जोड़ते हैं- “सहृदयता का व्यवहार तो पशु-पक्षियों तक के साथ भी किया जाता है। कुत्ते-बिल्लियों को पालने पर उनसे कितनी मुहब्बत होती है। लेकिन किसानों के हाथ-पाँव स्वरूप ये खेत-मजदूर प्रेम के पात्र न हों यह कम ताज्जुब की बात नहीं है। आखिर उनमें कमी क्या है जिससे उनसे नफरत या उनमें नीचता की भावना होती है? बाकी लोगों से वे किस बात में कम हैं? जिनके बिना न गेहूँ उपजे और न बासमती और जो अपने खून को पानी बना के फसल उपजाएँ, फिर भी अच्छी चीजें जिन्हें मयस्सर न हों, ऐसे तपस्वियों और त्यागियों के साथ हृदयहीनता का व्यवहार खुद किसान करें? तब तो आसमान फट जाना चाहिए।”

किसान की स्थिति सांप द्वारा खाए जाने वाले मेढ़क की तरह

स्वामी सहजानन्द किसानों की स्थिति की तुलना उस मेढ़क से करते हैं जो खुद तो सांप द्वारा निगला जा रहा है परंतु खुद मौत के मुंह मे जाने के दौरान भी यदि कोई फतिंगा उसके पास आ जाये तो उसे पकड़ लेने का अवसर नहीं छोड़ता।

स्वामी सहजानन्द कहते हैं- ” जैसे साँप के मुँह में पड़ा मेढक जब तक जिन्दा है, तब तक कीट-पतंगों को, यदि वे पास आ जाएँ, खुद भी खा जाने की कोशिश करता ही है। उसकी यह मजबूरी है। ठीक उसी प्रकार जमींदार, साहूकार के चंगुल में फँसा मजलूम किसान मजबूरन खेत-मजदूरों का थोड़ा शोषण करना चाहेगा ही। खूबी तो यह है कि इस बात का उसे अनुभव भी न होगा कि शोषण कर रहा है। यही तो वर्तमान समाज में प्रविष्ट जहर की खूबी है। खेत-मज़दूरों में जो पिछड़ी जातियों के हैं वह भी एक-दूसरे को ऊँच-नीच, स्पृश्य-अस्पृश्य मानते ही हैं और इससे उन्हें कोई हिचक भी नहीं होती। क्या वे लोग अपने नाई, धोबी वगैरह को पूरी मजदूरी देते हैं? देना चाहते हैं? हर्गिज नहीं? तो क्या यह बात वे समझते हैं कि शोषण कर रहे हैं? कदापि नहीं। क्यों? इसीलिए न कि उनकी गरीबी, उनकी मजबूरी से ही वे ऐसा करते हैं? मगर समाज की मनोवृत्ति ही ऐसी है कि वे समझ पाते ही नहीं कि वे भी सचमुच शोषण करी रहे हैं। हालाँकि, गैरों के द्वारा होने वाले अपने शोषण के विरुद्ध वे खुद चिल्लाते हैं। यही बात दूसरे किसानों की है जो गरीब हैं। जो धनी हैं उनका तो कहना ही नहीं।”

किसान खुद तबाह कैसे दे श्रमिकों को उचित मजदूरी

किसानों को खेत मज़दूरों से बेहतर बर्ताव के पश्चात वे तस्वीर के दूसरे पहलू को भी सामने लाते हैं। किसान खुद भी दयनीय स्थिति में है। वह खुद दुर्दशा में है लिहाजा उस पर बहुत बोझ भी नहीं डाला जा सजता। सहजानंद इसे स्पष्टता से रखते हैं- ” फलतः करोड़ों के पास जमीन या उसकी पैदावार का एक अन्न भी नहीं पहुँचता। इसीलिए तो अधिकांश अत्यन्त और गरीब हैं, तंग और तबाह हैं। फिर वे अपने खेत-मजदूरों को कहाँ से जमीन दें? यह तो ‘खुदरा फजीहत दीगरे रा नसीहत’ हो जाएगी। किस हिम्मत और समझ से उनसे जमीन का मुतालबा खेत-मजदूरों की ओर से किया जाएगा? आखिर कोई आधार भी तो इस मुतालबे का होना चाहिए। जब खुद किसान ही मरा जा रहा है और इसीलिए न सिर्फ अपनी इंच-इंच जमीन को दाँतों तले पकड़े हुए है, बल्कि और जमीन की चाह और खोज में बेहाल है, तो फिर वह मजदूरों को देने की बात सुनेगा भी कैसे? यह बात उसे सुनाई भी कैसे जाएगी? इसकी हिम्मत कौन पत्थर का कलेजा, संगदिल करेगा? जब उसकी पैदावार खुद किसान के लिए ही बहुत ही नाकाफी है तो उसमें दूसरा साझीदार बनके और क्या करेगा। सिवाय अपनी और उसकी भूख बढ़ाने के? हाँ, यदि पैदावार बढ़े, आबापाशी आदि का पूरा प्रबन्ध हो जाए और खेती के लायक जमीन बढ़ जाए तो बात दूसरी है। मगर ऐसी दशा में हमारा ध्यान सबसे पहले इन्हीं बातों की ओर जाना चाहिए, न कि जमीन के मुतालबे की ओर।”

किसान, खेत मज़दूर की लड़ाई कफ़न खसोटी है

इसलिए किसान व खेत मज़दूर की लड़ाई को कफ़न छीनने की लड़ाई करार देते हैं- ” वर्तमान दशा में किसानों के साथ खेत-मजदूरों द्वारा की गई लड़ाई सिर्फ कफन खसोटी होगी। यही होगा कि दोनों दल भुक्खड़ों की तरह आपस में कफन के लिए, टुकड़ों के लिए लड़ेगा सही, मगर नतीजा कुछ न होगा। इसलिए हमने इस दिक्कत की जड़ को ही पकड़ा है। इसके जरिए हमने किसानों को- जिनमें खेत-मजदूर भी आ जाते हैं-असलियत तक पहुँचा देने की कोशिश की है। हम चाहते हैं कि जड़ को पकड़ें ताकि काम चले। फूल पत्तों से कुछ होने-जाने का नहीं।” इस समस्या की जड़ के रूप में स्वामी सहजानन्द बताते हैं कि असली समस्या मजदूरी नहीं बल्कि जमीन है। यदि खेत मज़दूरों को जमीन उपलब्ध करा दिया जाए तो कुछ हद तक इस समस्या से निजात पाया जा सकता है।

किसान सभा खेत मज़दूर के साथ क्योंकि वह सबसे दुखिया

स्वामी सहजानंद ने किसान सभा के अपने अनुभवों से इस बात को महसूस किया कि हमसे जुड़े किसान, खेत मजदूरों के मामले में, किसानों का पक्ष लेने जी उम्मीद पीला बैठे हैं। इसलिए किसान सभा के शामिल किसानों को खेत मज़दूरों के प्रति अपना रवैया बदलने की लगभग चेतावनी देते हुए सहजानन्द सरस्वती कहते हैं ” बहुत से किसान, किसान सभा और उसके आन्दोलन में शरीक होकर भी मन ही मन यह समझे बैठे हैं कि किसान सभा से फायदा उठा लें। मगर खेती के मजदूरों के साथ अपना रवैया न बदले- उनके साथ सख्ती और बेमुरव्वती से ही पेश आते रहें। उन्होंने शायद यह समझ लिया है कि किसान सभा एक खास जमात की चीज है, ठीक उसी तरह जैसे जमींदार सभा। मगर उन्हें जान लेना चाहिए कि किसी बँधी बँधाई जमात की चीज न हो के यह सभा खेती से सम्बन्ध रखने वाली और उसी के जरिए गुजर करने वाली शोषित एवं पीड़ित जनता की चीज है। इसीलिए जो जितना ही ज्यादा पीड़ित और दुखिया है उतना ही ज्यादा वह किसान सभा के नजदीक है- किसान सभा भी उसके उतना ही निकट है। जुल्म और अत्याचार चाहे किसान करे या जमींदार या और ही कोई। मगर सभी बराबर हैं और किसान सभा उसे हर्गिज बर्दाश्त नहीं कर सकती। खेत मजदूर सबसे अधिक दुखिया होने के कारण किसान सभा की नजर सबसे पहले उन्हीं पर जाती भी है।”

खेत मज़दूर ही भविष्य के उद्धारक

वे किसानों से कहते हैं कि जिन खेत मज़दूरों को आप नीची निगाह से देखने तथा उनके प्रति जातीय पूर्वाग्रह रखने के की मनोवृत्ति की आलोचना करते हैं- “कुछ जातियों को हमने दबा रखा है। उन्हें नीच तथा कमीना भी नाम दे रखा है। उनका प्रसिद्ध नाम है ‘रेयान’ या रैयान। बाकी लोग अपने को ‘अशराफ’ कहते हैं। दूसरे भी उन्हें ऐसा ही कहते हैं। अगर सिर्फ जमींदार ये दो भेद बना लेते तो खैर एक बात थी। मगर बदकिस्मती से किसानों के दिमाग में भी ‘रैयान’ शब्द घुस गया है। मैंने फटे तथा विदीर्ण कलेजे को थाम कर किसानों को ही अपने हलवाहों चरवाहों को ‘रैयान’ कहते सुना है। सच बात तो यह है कि किसानों के मुँह से यह शब्द सुन कर मुझे जो वेदना हुई है वह और मौकों पर शायद ही हुई हो। अपने ही पड़ोसियों और भाइयों को, जिनके बिना किसानों का काम एक मिनट भी नहीं। चल सकता और जो उनके असली हाथ-पाँव हैं, इस तरह घृणापूर्ण शब्दों से याद करना पागलपन की पराकाष्ठा है।” लेकिन जिन किसान ‘रेयान’ कहते हैं वही कल किसानों का भी वही उद्धार करेंगे। ऐसा विश्वास स्वामी सहजानंद द्वारा व्यक्त किया गया है। स्वामी सहजानन्द खेत मज़दूरों को भविष्य का उद्धारक बताते हुए कहते हैं- “किसान याद रखें, एक दिन आएगा, सो भी शीघ्र ही, जब ये ही ‘रैयान’ उनकी और अपनी-दोनों की-लड़ाई जीतेंगे! मेरा यह पक्का विश्वास है। सो भी अनुभव के आधार पर। इसलिए अच्छा हो कि यह बुरी तरह चुभने वाला ‘रैयान’ शब्द संगठित रूप से किसान हटा दें और कभी इसे जबान पर न लाने का संकल्प कर लें।”

जबर्दस्त लोकमत बनाना होगा

स्वामी जी चूंकि एक व्यावहारिक क्रांतिकारी थे लिहाजा वे इस बात की संभवाना की तलाश करते हैं कि इसे जमीन पर कैसे उतारा जाए। इसके लिए किसानों व खेत मज़दूरों में बीच अंतर्विरोध के बजाए उनके मध्य एकता कैसे कायम जी जाए ? यह उनकी चिंता के मुख्य केंद्र में था। ” यह सवाल तो ठीक ही है कि इसका जवाब भी मौजूद ही है। वह है लोकमत एवं प्रचंड आन्दोलन का प्रभाव । असल बात है सरकार को मनवाने की, और वह तो बिना लोकमत के दबाव के दूसरी तरह सुन सकती नहीं। इसीलिए हमें तो अपने प्रस्ताव के अनुकूल जबर्दस्त लोकमत बनाना ही होगा। इसके सिवाय चारा नहीं। इसीलिए तो हमने पहले ही कह दिया है कि किसानों और खेत-मजदूरों की संगठित तथा सम्मिलित शक्ति से ही यह काम करना होगा। यही कारण है कि दोनों के समझौते की बात हमने कही है। आखिर दोनों के स्वार्थ जब एक ही हैं तो फिर मिल के काम क्यों न किया जाए? जमींदार तो चाहेंगे ही, साहूकार भी चाहेंगे और सरकार भी, कि ये दोनों आपस में ही लड़ें और पारी-पारी से दोनों के कान ऐंठे जाएँ। “

अपने परिवार के सदस्यों की तरह सलूक करें खेत मज़दूरों के साथ

इन्हीं वजहों से स्वामी सहजानंद किसानों से अपील करते हैं कि वे खेत मज़दूरों के साथ बेहतर सलूक करें। सहजानंद खेत मज़दूरों के परिवार की दखभाल के साथ उनके खाने-पीने सबके ख्याल की बात किसानों से करते हैं। “खेत-मजदूरों और उनके बाल बच्चों को जब तक किसान अपने परिवार के व्यक्ति मान कर वैसा ही सलूक न करेंगे तब तक इस पुरानी कसर, इस पुराने पाप का असली और उचित प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। मजदूर, उसके बच्चे, उसकी स्त्री या बूढ़ा बाप किसान की खेती के लिए ज्यादा जरूरी है बनिस्वत उसके अपने बाप, बच्चे और स्त्रियों के। हल चलाने, खेत की निकाई करने, धान के बीज को उखाड़ने और रोपने में बहुत से किसानों का अपना परिवार कतई काम नहीं आता। किन्तु खेत-मजदूरों का परिवार ही वह काम करता है। और बिना धान या दूसरे गल्ले की खेती के किसान कायम कैसे रहेगा? ऐसी दशा में उनके परिवार को अपने परिवार की अपेक्षा यदि ज्यादा न मान के अपने परिवार जैसा ही माने तो इसमें किसान कोई आश्चर्य या उपकार की बात तो करता नहीं। हाँ, सिर्फ दूरदर्शिता और अक्लमंदी से काम जरूर लेता है। उनकी माँ-बहनों की इज्जत उतनी ही करता है जितनी अपनी माँ-बहनों की। यदि उनकी बेइज्जती कोई करना चाहे तो बर्दाश्त नहीं कर सकता। अगर उनमें कोई बीमार या कष्टग्रस्त हो तो उसकी पूरी चिंता करता तथा उनके आराम न होने तक चैन नहीं लेता। बीमारी आदि की दशा में उनसे कोई काम नहीं करवाता। उन्हें भूखे देख नहीं सकता। जैसे खुद साग सत्तू असल खाता है तैसे उन्हें भी खिलाता है। बस, इतना करने से ही सब मामला ठीक हो जाएगा-ठीक रहेगा।”

किसानों व खेत मज़दूरों का पारस्परिक समझौता जरूरी

स्वामी सहजानन्द खेत मज़दूर व किसान परिवार के अंतर को रेखांकित करते हैं- ” मगर गरीब लोग तो जरूरत होने पर खुद भी खेती का सारा काम कर ले सकते हैं। उनके सामने शान का सवाल तो वैसा होता नहीं। खेत भी ज्यादा नहीं होते। सिर्फ पुरानी प्रथा और धर्म वर्म के खयाल से ही नहीं करते हैं। लेकिन जब मजबूरी होगी तो खामख्वाह करेंगे। नतीजा यही होगा कि ज्यादा दबाव देने पर वे न मानेंगे और उनके खेत मजदूर भूखों मरने लगेंगे। इसीलिए उनके साथ रिआयत की जा सकती है। क्योंकि दोनों की मजबूरी होने से समझौता हो सकता है-होना चाहिए। खासकर जब तक जमीनों का सवाल हल हो नहीं जाता। आखिर किसी प्रकार जिन्दा तो रहना ही है। दोनों की हालत दोनों देखें और बीच का रास्ता निकालें बात असल यह है कि जिस प्रकार ग्राह ने गज को करीब-करीब ग्रस ही लिया था ठीक उसी तरह गरीब किसान जो कुछ पैदा करते हैं उसे जमींदार, साहूकार वगैरह ग्रस लेते हैं। उनके पास बचने पाता है कहाँ? और जो बचता भी है वह तो कथमपि गुजर लायक होता ही नहीं। दूसरे उस पर ग्राहों की दृष्टि लगी ही रहती है कि कब कैसे उसे भी हड़पें। यही कारण है कि गरीब किसान अपने मजदूरों को भरपेट खिला सकता नहीं। कारण, खुद भी तो भूखा ही रहता है। इसलिए पहला काम तो यही है कि दोनों ही मिलके इन ग्राहों के पेट से उस पैदावार को बचाएँ। तभी पेट भरने की आशा है। मगर जब तक दोनों बराबर लड़ेंगे और एकमत होके ग्राहों से न भिड़ेंगे कुछ होने-जाने का नहीं। इसीलिए पारस्परिक समझौता होना जरूरी है। इसीलिए उसी दृष्टि से हमें उनकी मजदूरी का प्रश्न लेना होगा।”

किसान व उसके खेत मे काम करने वाले मज़दूरों के आपसी अंतर्विरोधों को सुलझाने का नायाब सुझाव स्वामी सहजानन्द ने बताया। यदि इन सुझावों को अमल में लाया गया होता तो बिहार में रणवीर सेना जैसी परिघटना का उदय ही नहीं हो पाता। स्वामी सहजानन्द सरस्वती यह कार्य इस लिए कर पाए क्योंकि उनकी गहरी व पैनी निगाह ग्रामीण यथार्थ पर थी। भारत के स्वाधीनता आंदोलन के किसी भी नेता के पास वैसी दूरदर्शिता न थी।

सम्भवतः इन्हीं वजहों से सुप्रसिद्ध विद्वान गेल आम्वेट ने ‘खेत मज़दूर’ की अपनी समीक्षा में कहा- “स्वामी सहजानन्द तीसरी दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण जनांदोलन के ‘ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल’ हैं।”


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