श्याम बेनेगल की ‘निशांत’ सामंती अत्याचार से पीड़ितों का मुक्ति संघर्ष

श्याम बेनेगल की ‘निशांत’ सामंती अत्याचार से पीड़ितों का मुक्ति संघर्ष

सामंतवाद इतिहास का एक भयावह दौर रहा है। इसकी नींव ही किसानों, कारीगरों के शोषण पर टिकी थी। एकाक ‘अच्छे’ शासकों के अलावा इसमें स्वेच्छाचारिता का सर्वत्र बोलबाला रहा है। इसमें सामंत की इच्छा ही ‘न्याय’ हुआ करता था और वह जो भी करता था ‘सही’ करता था। ज़ाहिर है ऐसे में लोग उसके ‘करम’ से बचने में ही भलाई समझते थे। अपने ऐतिहासिक कारणों से सामंतवाद का पतन होना ही था मगर स्वतंत्रता के पूर्व तक यह ब्रिटिश संरक्षण में भिन्न रूप में ज़मीदारी के रूप में फलता-फूलता रहा और आज भी इसके अवशेष कहीं-कहीं बांकी रह गए हैं, जो एक तरह से लोकतंत्र की असफलता है।

फिल्म ‘निशांत’ की पटकथा आज़ादी के पहले सन् पैतालीस के तमिल प्रदेश के एक ज़मीदारी के अत्याचार और शोषण पर आधारित है। ज़मीदार अपने वर्ग चरित्र के अनुरूप पूरे गांव को अपनी जागीर समझता है। किसान उसके ज़मीन को ‘किराये’ से जोतते हैं। मनमाफ़िक लगान वसूलता है और पूरी न होने पर किसी को कभी भी बेदखल कर देता है। लोग उस पर आश्रित हैं, कर्ज में डूबें हैं। जब चाहे किसी को घर ज़मीन से बेदख़ल कर देता है।

श्याम बेनेगल की 'निशांत' सामंती अत्याचार से पीड़ितों का मुक्ति संघर्ष

उसके तीन बेटे हैं। दो बाप के सामंती चरित्र के अनुरूप हैं। किसानों को परेशान करते हैं, बेगारी कराते हैं। यहां तक कि किसी की भी बहु-बेटी को उठा लेते हैं। छोटा भाई ‘विश्वमं’ सामंती परिवेश में भी भिन्न स्वभाव का है। शराब की लत नहीं, किसी को परेशान भी नहीं करता। ज़ाहिर है उसे घर में एक ‘कमजोर’ व्यक्तित्व के रूप में देखा जाता है। उसके व्यक्तित्व में एक दब्बूपन है भी जिसके कारण असहमत होकर भी वह गलत का विरोध नहीं कर पाता। फिल्म के शुरुआत में उसके भाइयों द्वारा देवालय से गहनों की चोरी में उसकी संलिप्तता इसी ढंग की रही होगी। उसकी पत्नी भी है, कोई अनबन भी नहीं फिर भी सम्बन्धों में एक ठंडापन है, मानो उसने विवाह भी जैसे अनिच्छा से किया होगा।

विश्वं स्कूल के मास्टर,जो दूसरे गांव से आया है, कि पत्नी ‘सुशीला’ के प्रति आकर्षित हो जाता है। मगर सुशीला उसका घूरना पसंद नहीं करती। इधर, इसके दोनों भाई उसकी इच्छा को ताड़कर शुशीला को जबरदस्ती उठाकर हवेली ले आते हैं। विश्वं को सुशीला से सहानुभूति है मगर उसके भाई उसके साथ बलात्कार करते हैं। वह उसे पाना चाहता है, उसका ध्यान रखता है और नाकाम रहने पर उस कसक में अपने अंदर सामंती रौब पैदा करना चाहता है मगर कर नहीं पाता। मगर उसके नर्मदिली से अंततः सुशीला समर्पण कर देती है, और यह समर्पण प्रेम में बदलता दिखाई पड़ता है।

श्याम बेनेगल की 'निशांत' सामंती अत्याचार से पीड़ितों का मुक्ति संघर्ष

मास्टर साहब मानवीय व्यक्ति हैं, उनकी पत्नी सुशीला और एक बच्चा है। वह गांव में नए हैं। ज़मीदार के बेटों की मनमानी उसे अजीब लगती है। और जब उसकी पत्नी को सबके सामने जबदस्ती उठा लिया जाता है तो स्तब्ध हो जाते हैं। रोकने की नाकाम कोशिश करते हैं। गांव की पुलिस से लेकर शहर में कलेक्टर, पत्रकार तक जाते हैं मगर कहीं कुछ नहीं होता। मजबूर होकर बच्चे के पास गांव वापस आते हैं, मगर उनके अंदर एक आग लगी रहती है, और अपनी ‘अक्षमता’ की ग्लानि भी।

सुशीला और मास्टर साहब में पति पत्नी का स्वाभाविक प्रेम है। कहीं कोई असमान्यता नहीं दिखाई देती। दोनों का एक बच्चा है। सुशीला शिक्षित नहीं जान पड़ती। उसे जब हवेली में जबरदस्ती ले जाया जाता है तो वह स्वाभाविक रूप से उसका विरोध करती है। एक दिन खाना नहीं खाती। उसका जबरदस्ती शारीरिक शोषण होता है, छटपटाती है, मायूस रहती है। मगर इसके बाद जिंदगी जैसे अपना रास्ता ढूंढ़ लेती है। वह खाना खाने लगती है। कुछ-कुछ ‘अपने’ घर की तरह जीने लगती है। नौकरानी से बच्चे और पति का हाल पूछती है। उसके द्वारा पति के दु:खी न दिखाई देने के झूठ को जैसे सहज स्वीकार लेती है। सम्भवतः पितृसत्ता का जो रूप वह देखती आयी हो उसके कारण उसे इस पर विश्वास हुआ हो।

वह असहज है मगर उसके अंदर स्थिति के प्रति गंभीर प्रतिरोध नहीं है। न तो किसी क्षण वह बहुत आक्रोशित दिखाई देती है न वहां से भाग जाने का कोई प्रयास करती है। बल्कि कुछ दिन बाद विश्वं को स्वीकर कर लेती है और अपना हक के रूप में अलग रसोई मांगती है। मोटर से देवालय जाती है और वहां पति को देखकर थोड़ा भावुक होती है मगर उसे धिक्कारती अधिक है, मानो उसने उसे छुड़ाने के लिए कुछ न किया हो! शुशीला का यह व्यवहार दर्शक को थोड़ा आश्चर्य में अवश्य डालता है, वरना देवालय से ही पति के साथ भाग जाने का प्रयास किया जा सकता था। इस व्यवहार की चरम परिणीति तब होती है जब जनता हवेली में हमला कर ज़मीदार और उसके दो बेटों को ख़त्म कर देती है तब वह विश्वं के साथ भाग जाती है, अवश्य वह ‘रूखमणी’ को भी बराबर पुकारती है।

श्याम बेनेगल की 'निशांत' सामंती अत्याचार से पीड़ितों का मुक्ति संघर्ष

सोचा जा सकता है कि सुशीला में बदलाव किस कारण से आया होगा! वह जिस सामंती अत्याचार से पीड़ित है, उसी से मुक्ति में सहयोग क्यों नहीं देती! विश्वं से उसके लगाव को यदि उसके एकनिष्ठ ‘प्रेम’ के कारण सहज मान भी लिया जाय तो शुशीला का व्यक्तित्व बहुत ‘साधारण’ रह जाता है। आखिरी क्षण में उसे अपना बच्चा याद तो आता है मगर पति का जैसे उसके लिए अस्तित्व ही खत्म हो गया है। यदि उसके इस व्यवहार को पितृसता के उस मूल्य के कारण माना जाय जहां एक बार स्त्री ‘लांक्षित’ हो जाती है तो उसकी वापसी संभव नहीं तो फिल्म की इस नाटकीयता का औचित्य बहुत साधारण रह जाता है।

ऐसा प्रतीत होता है कि फिल्मकार का उद्देश्य मानवीय प्रेम की अद्वितीयता की प्रतिष्ठा करना है। सुशीला और विश्वं मानवीय व्यक्तित्व हैं, उनमें प्रेम हो जाता है, परिस्थितियां भले दवाबमूलक रही हों। अंतिम में विश्वं का उसके गोद में लेट जाना, सुशीला का उसे सहलाना और पार्श्व में ‘पिया बाज ज प्याला पीया जाय न’ गीत का बजना इसे इंगित भी करता है। ऐसे में इस तरह की नाटकीयता और दोनों का अंत असम्भव तो नहीं मगर फिल्म के कथानक के विकास की दृष्टि से दर्शक को स्वाभाविक नहीं लगता।

मास्टर साहब का चरित्र उदात्त और संघर्षशील है, अवश्य उसे अकेले व्यक्ति के अक्षमताबोध का अहसास भी है। वह अपनी पत्नी की मुक्ति के लिए तमाम ‘वैध प्रयास’ करता है, मगर असफल रहता है। वह ज़मीदार परिवार द्वारा किसानों के शोषण को भी देखता रहा है इसलिए उनसे मुक्ति के अंतिम उपाय की तरफ बढ़ता है। वह मंदिर के पुजारी के साथ मिलकर लोगों को उनके शोषण के विरुद्ध जाग्रत करता है। इस उपक्रम में वे कई सभाओं, मेंलों, धार्मिक कार्यक्रमों का सहारा लेते हैं। पुजारी के साथ होने और धार्मिक प्रतीकों का सहारा लेने से कार्य की सफलता बढ़ जाती है और अंततः एक वक्त आता है जब ज़मीदार और उसके दोनों बेटों को मार दिया जाता है। मास्टर जी इस लड़ाई में गोली लगने से घायल हो जाते हैं, मगर पत्नी के मुक्ति की चिंता उन्हें रहती है। पत्नी का घर में न मिलना उसके लिए अस्वभाविक रहा होगा मगर जब उग्र जनता विश्वं को ढूंढते पहाड़ी पर पहुंचती है उस समय भी वे पत्नी को बचाने चिल्लाते हैं मगर घायल होने के कारण पिछड़ जाते हैं और उनकी आवाज़ भीड़ में खो जाती है।

स्त्री चरित्र में विश्वं की पत्नी ‘रूखमणी’ भी है। उसकी छवि ‘पारम्परिक’ है, चेतना विहीन, यंत्रवत। पितृसत्ता के पारिवारिक मूल्यों को उसने लगभग स्वीकार कर लिया है। हालांकि, उसमें मानवता है और वह सुशीला से सहानुभूति रखती है, मगर कहीं उसके ज़ेहन में कुछ है जो उसकी खमोशी में छुपी रहती है। यही कारण है कि जब घर पर हमला होता है तो वह भागने का कोई प्रयास नहीं करती; उसे जैसे इस परिवार की नियति का अहसास हो गया था।

इस तरह फिल्म सामंती शोषण और उससे मुक्ति के प्रयासों तथा इस बीच मानवीय सम्बन्धों की जटिलता और उसके बहुआयामी चरित्र को दिखाती हैं। फिल्म का शीर्षक ‘निशांत’ है, रात्रि का अंत। फिल्म के संदर्भ में इसे सामंती अत्याचार के रात्रि का अंत ही कहना उचित होगा। फिल्म के अंत में गांव के सभी बच्चों को मंदिर में दिखाया गया है। यह आंदोलन के पहले पूर्व नियोजित रहा होगा। पुजारी लोगों को जागृत भी करते हैं, इसलिए बच्चों का मंदिर में होना उनके जागरण का प्रतीक भी है।


(प्रिय पाठक, पल-पल के न्यूज, संपादकीय, कविता-कहानी पढ़ने के लिए ‘न्यूज बताओ’ से जुड़ें। आप हमें फेसबुक, ट्विटर, टेलीग्राम, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर भी फॉलो कर सकते हैं।)

Leave a Reply

Your email address will not be published.