जागृति सौरभ की लघुकथा: मुस्कान

जागृति सौरभ की लघुकथा: मुस्कान

शाम का वक़्त था। हर दिन की तरह उस दिन भी मैं खामोश सड़कों को देख रही थी। ज़िन्दगी में जैसे रंगों की तलाश में नज़रे यहाँ से वहाँ घूम रही थी। घर में सन्नटा पसरा था। शाम के करीब पाँच बज रहे थे। सब अपने-अपने कामों में व्यस्त थे। मेरा भी लगभग काम हो गया था इसलिए बॉलकनी में खड़ी होकर खेल रहे बच्चों में खुद का बचपन ढूंढ रही थी।

उन बच्चों में एक नया चेहरा नज़र आया, करीब ढाई साल का होगा। बाकी बच्चों से बिल्कुल अलग। अलग इसलिए कि मुझे वह बच्चा ‘छोटा पैक बड़ा धमाका’ वाला लड़का लगा।

वह तेज़ आवाज में लगातार गाए जा रहा था, “तेरी आंखों का ये काजल करे है मुझे पागल…।” उसके मुँह से यह बोल सुनकर उस वक्त दंग कम हुई पर जोरों से हँस जरुर पड़ी थी। मेरी हंसी इतनी तेज थी कि सभी खेलते बच्चों का ध्यान मेरी तरफ खींच गया था।

वे लोग देखते भी क्यों नहीं? इस गली में इन बच्चों को पहली बार मेरी हँसने की आवाज सुनाई दी थी लेकिन जब मुझे आभास हुआ कि सभी की नजरें मेरी तरफ है तो मैं धड़ से अपने कमरे में आ गई।

मेरे मन में गाने वाले उस बच्चे की तस्वीर कुछ इस तरह से नत्थी हो गई थी कि देर तक कमरे में रह न सकी। कमरे से बाहर निकली, वह बच्चा जा चुका था। वह कौन था, किसका बच्चा था? कुछ मालूम नहीं…और न किसी से पूछ सकती थी।

बच्चे को न देख बालकनी से वापस कमरे में मैं ऐसे आई जैसे ऑफिस में दिनभर काम कर थका हुआ व्यक्ति आता है। जैसे शरीर में ताकत ही न बची हो। मानो मेरा चैन उस गाने वाले बच्चे ने अपने साथ ले गया हो।

रातभर मेरे मन-मस्तिष्क में उस बच्चे की आवाज गूँजती रही। अब बस सुबह होने का इंतजार था। ऐसी सुबह उससे पहले कभी नहीं हुई थी। मैं उठकर झट से बालकनी में गई। बाहर गली एकदम सुनसान थी। सुबह छह बजे भला कौन होगा? दिन भर बार-बार बहुत ताक-झाक करती रही। लेकिन हताशा ही हाथ लगी।

फिर शाम में छोटे बच्चों की खिलखिलाने की आवाज आने लगी लेकिन इस बार बाहर निकलने का जी नहीं किया। थोड़ी ही देर में ऐसा लगा मानो कोई बच्चा किसी चीज़ के लिए जिद कर रहा है। आवाज थोड़ी जानी-पहचानी लगी।

बाहर निकली तो वही गाना गाने वाला बच्चा एक खिलौने दिलाने की जिद मचाए हुए था। उसके रुदन से पास खड़ी औरत, जो शायद उसकी माँ थी, ने उसकी पसंद का खिलौना ले दी। साथ में वह औरत यह भी जोर-जोर से कह रही थी, “आगे से जिद न करना हितेन। मैं न दिलवाऊंगी।” औरत की बातों से ऐसा लग रहा था कि वह हर चीज के लिए जिद करता था।

खैर, मैं खुश थी उसे देखकर। खिलौना मिलने की खुशी से वह फिर से चीख-चीखकर गाना गाने लगा। इसबार गाने के बोल अलग थे, “इश्क़ का मंजन घिसे है पिया….! मैं इस बार भी खिलखिला कर हँस पड़ी। साथ ही यह भी सोचने लगी कि ऐसे गाने बच्चे कहा से सीखते हैं।

मैं कुर्सी बालकनी में ले गई और फिर उस मनमोहक बच्चे को बैठ देर तक निहारती रही। अगले दिन दोपहर में गली में सब्जी वाले भईया की आवाज आई। वह आवाज लगाए जा रहे थे- “सब्जी ले लो, आलू ले लो, प्याज़ ले लो, हरी-हरी सब्जी ले लो।” उनकी आवाज में एक आवाज और ताल पर ताल मिला रही थी। वह आवाज हितेन की थी। हितेन सब्जीवाले भैया की बात दोहराता जा रहा था- “सब्जी ले लो, आलू ले लो…।”

उसकी नटखट शैतानियों ने सबके होंठो पर मुस्कान भर दी थी। उसके कुछ ही देर बाद कुछ ऐसा घटा जो मेरी ज़िंदगी में नई ऊर्जा भर दी। एक व्यक्ति अपने साइकिल में अगरबत्ती लिए हमारे गली में आया। उम्र कोई 55-60 के बीच रही होगी। चेहरे से काफी थकान, विनती भरी करती आंखें-“अगरबत्ती ले लो…।” “भईया कितने के दिए” अगल-बगल की औरतों ने पूछा। सब तरह के हैं-50 के, 100 के, 150 के कौन-सा दे दूं?

औरतें दाम पूछकर रह गई। इतने में जनाब हितेन आ गए और हर बार की तरह अगरबत्ती के लिए अड़ गए। तेज़-तेज़ आवाज में माँ को आवाज देने लगे। अगरबत्ती वाले कि आंखें चमक उठीं, वह ठहर गया…। लेकिन अंदर से हितेन की मां नहीं आई। देखते ही देखते हितेन की आवाज आंसू में बदल आएं। उधर माँ की आवाज आई, “अब तू पिटेगा, सुन ले…!” यह सुन अगरबत्ती वाला झुंझलाता हुआ साईकल पर बैठ जाने लगा इतने में हितेन जोर-जोर से रोने लगा और हाथ-पैर पटकने लगा। एक पल के लिए सोची मैं जाकर दिलवा दूँ लेकिन यह सोच अपने पैर रोक ली कि वो लोग कहीं गलत न समझ ले।

इतने में मैंने देखा कि अगरबत्ती वाला पीछे लौटकर बच्चे के हाथ में अगरबत्ती पकड़ा रहा था। उसने अपने हाथ हितेन के माथे पर फेरते हुए पूछा, “खुश हो अब।” हितेन ने हाँ में सर हिलाया। हितेन की खुशी का ठिकाना न था। वह जोर-जोर से कहता फिर रहा था, “अंकल ने मुझे अगरबत्ती दी।” उधर अगरबत्ती वाले भईया की आंखें मोतियों की तरह चमक रहे थे और चेहरे पर सुकून भरी मुस्कान लदा था।

-जागृति सौरभ (प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा झारखंड से। एम. ए . हिंदी से। पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित। फिलहाल स्वतंत्र पत्रकारिता।)

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