पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर: वैज्ञानिक सोच बनाम अंधविश्वास, कुरीति एवं सामाजिक बुराइयों की दुनिया

पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर: वैज्ञानिक सोच बनाम अंधविश्वास, कुरीति एवं सामाजिक बुराइयों की दुनिया

अंधविश्वास का जड़ अंधेपन में है या विश्वास में? बेशक, प्राथमिक तौर पर लगता है कि अंधेपन में ही है। शिकारी मानव नहीं जानते हैं कि शिकार या भोज्य जानवर क्यों कम हो रहे हैं, जंगल में तो उन जानवरों के नियंत्रक किसी देवरूप जानवर को खुश करने का उपाय ढूंढ़ते हैं। लेकिन ऐसा करने से पहले उसके अपने समुदाय में किसी नियंत्रक मानव का उद्भव एवं उसे खुश करने की आवश्यकता का अनुभव उन्हें हो चुका होता है। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि अंधविश्वास का जड़ अंधेपन में नहीं विश्वास में है और उस विश्वास का जनक है ‘नियंत्रक’ मानव या शासक। यानी विश्वास, अंधविश्वास एवं कुछ बाद के दिनों से अंधेपन का भी जनक है शासक, शासक वर्ग (खुश करने की आवश्यकता के प्रबंधन में) एवं शोषण की व्यवस्था।

दुनिया के हर देश में अंधविश्वास मौजूद है। उनका प्रकार कुछ सामान्य हैं कुछ अलग-अलग हैं। भारत में अंधविश्वासों के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत के आधुनिक काल को नई, यूरोपीय ज्ञानविज्ञान की पढ़ाई की शुरुआत से चिन्हित किया जाता है। लेकिन, अंधविश्वासों के खिलाफ संघर्ष उतना ही प्राचीन है जितना खुद अंधविश्वास, क्योंकि यह वर्गसंघर्ष का प्रारंभिक वैचारिक स्वरूप है। चार्वाक एवं उनके अनुयायियों के विचार एवं सामान्यत: लोकायतिकों के संघर्ष उन अंधविश्वासों के खिलाफ ही तो थे, जो उस समय के शासकों द्वारा समाज में पुरोहिततंत्र के माध्यम से फैलाए जा रहे थे (या सम्पत्तिवान वर्ग के चिन्तक अपनी सम्पत्ति-कुंठित सोच में जिन अंधविश्वासों तक पहुँच रहे थे)। भारतीय दर्शन में निरीश्वरवाद एवं भौतिकतावाद की धारा, अंधविश्वासों के खिलाफ संघर्षों का भी धारा है! या विपरीत दिशा से कहें, कि अंधविश्वासों के खिलाफ संघर्ष अन्तत: भौतिकतावाद की ओर पहुँचने का संघर्ष है।

भारत में खासकर हिन्दूसमाज में जो अंधविश्वास प्रचलित हैं उनमें से कुछ ऐसे हैं जो कुरीति या सामाजिक बुराईयों पर आधारित हैं, इसलिए उन्हें अंधविश्वासों में नहीं गिना जाता है। लेकिन वे अंधविश्वासों का जन्म देते रहते हैं। जैसे- जातिगत दमन पर आधारित, छुआछूत से सम्बन्धित एवं अन्तर्जातीय विवाहादि से सम्बन्धित अंधविश्वास। उसी तरह, पुरुषतंत्र एवं नारी के शोषण पर आधारित सहमरण या सति की प्रथा से सम्बन्धित अंधविश्वास, विधवा के विवाह पर रोक से सम्बन्धित अंधविश्वास, बहुविवाह/बालविवाह की प्रथा, मासिकधर्म एवं सन्तानोत्पत्ति से सम्बन्धित अंधविश्वास, डायन प्रथा आदि। जाति पर आधारित अंधविश्वासों की ही तरह इस देश में सम्प्रदाय पर आधारित अंधविश्वास भी बने जिनमें प्रमुख हैं, खानपान में बर्तन एवं हुक्के का अलग किया जाना एवं विवाह सम्बन्धित। फिर हैं, कार्यस्थल पर के, मूख्यत: कार्य के औजार आदि से सम्बन्धित अंधविश्वास। और फिर, सामान्य, सन्तानोत्पत्ति, जीवन की रक्षा एवं कार्य की सफलता के लिए यात्रा, दिन की शुरुआत, शयन, आहार, वस्त्र एवं गृहनिर्माण आदि सम्बन्धित अंधविश्वास।

सभी किस्म के अंधविश्वासों (एवं कुरीतियों, सामाजिक बुराईयों) के खिलाफ संघर्ष का एक व्यक्तिगत आयाम एवं एक सामाजिक आयाम होता है। सामान्य दृष्टि से लोगों के सामाजिक आचरण पर बहस में व्यक्तिगत आयाम को अहमियत दी जाती है। मसलन, कहा जाता है- “पहले खुद करके दिखाओ तब दूसरों को सिखाओ।” बंगाल में तो मुहावरा है- “आपोनि आचोरि धर्म अपोरे शिखाओ”। लेकिन, इसका दूसरा पक्ष भी है। सामान्य आदमी, कई कमजोरियों से घिरा हुआ, अक्सर पहले सामाजिक आन्दोलन का दामन थामता है फिर व्यक्तिगत आचरण में उन संघर्षों को शामिल करता है। ऐसे भी लोग हैं जो सामाजिक आन्दोलन में साथ चलते हुए भी व्यक्तिगत आचरण में विपरीत रास्ता अपनाते हैं। उनकी स्थिति भी संघर्ष की उसी सामाजिक प्रक्रिया के भीतर होती है, पीछे की ओर।

एक पारिभाषिक शब्द के रूप में ‘वैज्ञानिक’ या ‘तर्कपूर्ण’ सोच आधुनिक काल की उत्पत्ति है। लेकिन जीवन के विकास के चरणों के अनुरूप, सोच व काम में ‘वैज्ञानिकता’ एवं ‘तर्कपूर्णता’ मानवसभ्यता के साथ साथ आगे बढ़ी है। प्रौद्योगिकी का ज्ञान भी उसी तरह आगे बढ़ा है। किसी भी नये काम को अंजाम देते हुए मानव को सामान्यत: दो पहलुओं पर पुरानी सोच को अस्वीकार करना पड़ा होगा- (1) बाधक रूढ़ियों व रिवाजें और (2) यथास्थिति की शाश्वतता एवं नियति या भाग्य। साथ ही, एक पहलू पर नये सोचों में एक प्रवृत्ति को भी अस्वीकार करना पड़ा होगा (3) उपरोक्त दोनों के विरोध में उच्छृंखलता या उच्छृंखल वैचारिक प्रहार।

विज्ञान में जो तीव्र विकास हुए आधुनिक काल में, उसके कारण यह पृथ्वी, उस पर जीवन एवं वस्तुजगत काफी दूर तक नजर आने लगा और हम वैज्ञानिक सोच की बात करने लगे। लेकिन उसके मूल तत्व आज भी उपरोक्त ही हैं। बस नई भाषा में हम कहते हैं, तमाम अंधविश्वासों, कुप्रथाओं रूढ़िवाद का विरोध, जीवन को बेहतरी की ओर ले जाने में सामूहिक सहकार्य एवं अतिवाद या उग्रवाद का विरोध आदि आदि।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर सामान्य अर्थों में विचारों के प्रचारक नहीं थे। इसलिए अंधविश्वासों पर उनका अलग से कोई लेखन या काम बिरले ही मिलेगा। उन्होंने सिर्फ उन अंधविश्वासों के खिलाफ लिखा एवं संघर्ष किया जो सामाजिक कुरीतियाँ बन चुकी थीं, नारीजीवन को नरक की आग में धकेल रही थी एवं समाज को आगे बढ़ने से रोक रही थी। साथ ही, इस रोक को पहचानने के क्रम में उन्होने सामान्यत: अशिक्षा एवं विशेषत; शिक्षित वर्गों में, सनातन शास्त्रों पर आधारित शिक्षा को दोषी पाया। इसलिए इन दोनों के खिलाफ संघर्ष को उन्होने अपने जीवन का ध्येय बना लिया। जूझे गए सामाजिक संघर्षों के लिए आवश्यक युक्तियों और तर्कों से अलग उन्होने वैचारिक बातें नहीं के बराबर की।

विद्यासागर की वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण सोच के विकास की दिशा में पहली विद्रोह-घोषणा इस तथ्य में दिखता है कि खुद शास्त्रज्ञ ब्राह्मण होते हुए, संस्कृत कॉलेज के, पहले छात्र और फिर शिक्षक होते हुए भी उन्होंने नये पाठ्यक्रम को प्रस्तावित करते हुए स्पष्टत: कहा कि न्याय और वेदांत के दर्शन भ्रांत हैं, इनकी पढ़ाई अविलम्ब बन्द होनी चाहिए। आगे चल कर, मातृभाषा में आधुनिक ज्ञान-आधारित शिक्षा एवं नारीशिक्षा को उन्होंने अपने जीवन का प्रथम ध्येय बनाया। शिक्षण में सुधार हेतु लगातार संघर्ष करते रहे- पाठ्यक्रम में सुधार, पाठ्यपुस्तकों में सुधार, गाँव-गाँव में आधुनिक विद्यालय का प्रसार, उन विद्यालयों के लिए प्रशिक्षित शिक्षक की व्यवस्था, शिक्षकों के बेहतर वेतन एवं छात्रों को पाठसामग्री हेतु अधिक राशि के अनुदान की स्वीकृति…।

लेकिन, जैसा शुरू में कहा गया कि किसी नए काम को अंजाम देने के लिए ‘उच्छृंखलता’ या जनसमर्थन के प्रति बेपरवाही का भी विरोध करना पड़ता है- जब श्रीमती कार्पेन्टर के एवं ब्राह्मो समाज के कहने पर शिक्षिकाओं के लिए नॉर्मल स्कुल की व्यवस्था, बिना सामाजिक ताकतों की सहमति प्राप्त किए होने लगी, उन्होंने तत्काल विरोध किया और कहा कि यह व्यवस्था असफल होगी। हुआ भी यही, तीन साल के अन्दर वह स्कूल बन्द हो गया। सिर्फ यही नहीं, जब संस्कृत कालेज में विद्यासागर नया रास्ता निकालने के लिए शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे और शास्त्रज्ञों तथा सामाजिक नेताओं से लोहा ले रहे थे, दीवार के उस पार हिन्दू कालेज के छात्र एवं डिरोजिओ के क्लासों की प्रेरणा से लैस भूतपूर्व छात्र पुराने हिन्दू समाज की ऐसी की तैसी कर रहे थे। उन से विद्यासागर की अच्छी मित्रता थी। बंगला के महाकवि माइकल मधुसूदन दत्त को जिस तरह से उन्होंने मदद किया एवं जीवन बचाया वह आज एक दंतकथा है। लेकिन उस उच्छृंखलता के नक्शेकदम पर विद्यासागर चले ही नहीं। विद्यासागर के प्रथम और भरोसेमन्द जीवनीकार थे उनके छोटे भाई शम्भुचन्द्र विद्यारत्न। उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि किसी अच्छे काम को करने के लिए लोगों को एकजुट करने का रास्ता दिखाने वाले वह पहले व्यक्ति थे।

शायद यह कहनेवाले भी प्रथम ब्राह्मण रहे होंगे, “मुझे जब कोई ब्राह्मण पंडित कहता है, तो मुझे शर्म आती है।” और ऐसा सिर्फ उन्होने कहा ही नहीं बल्कि जीवनभर के लिए ब्राह्मण्यता और कुलीनता को त्याग दिया। अकाल में, महामारी में एवं सामान्य समय में भी अपने हाथों से दुखियों और पीड़ितों की सेवा करते वक्त उन्होंने सोचा ही नहीं कि कौन शुद्र है और कौन मुसलमान है। उनका सेवा-भाव तो, भारत की स्वतंत्रता के सन्दर्भ में आधुनिकता को सही अर्थों में समझने की एक महान दंतकथा है- लेकिन यहाँ उसके विशद में जाने से विषयांतर होगा।

बांग्लादेश के विख्यात विद्वान अहमद शरीफ कहते हैं- “दर असल हिन्दु कॉलेज में शिक्षाप्राप्त यंग बेंगॉल [युवा बंगाल] ने ही अशिक्षा, बालविवाह, बहुविवाह, एवं विधवाविवाह के मुद्दों पर मौखिक तथा लिखित चर्चा के माध्यम से आन्दोलन का प्रारंभ किया। लेकिन उनके लिए ये बातें सुरुचि व संस्कृति से सम्बन्धित समस्याओं की तरह राष्ट्रीय शर्म जैसी थीं। यंग बेंगॉल के ये शौकीन द्रोही हिन्दू व हिन्दू चालचलन के सभी बातों की निन्दा करते थे और उपरोक्त मुद्दे भी उन्हीं के अन्तर्गत थे। ये लोग चालीस की उम्र पार कर जाने के बाद खुद कट्टर हिन्दू बन गए या निष्ठावान ब्राह्म बन गए और उसी में तुष्ट रहे। बल्कि शायद पहली जवानी के उद्धत आचरणों के लिए लज्जित एवं अनुताप ग्रस्त भी हुये थे। फलस्वरूप, जो विद्यासागर के लिए उनके खुद के अस्तित्व जैसा ही सत्य था, डिरोजिओ की दीक्षा से गुजरे यंग बेंगॉल के लिए वह उम्र के तकाजे से जन्मा शौकीन सांस्कृतिक तेवर था। वे विद्वान थे, बुद्धिमान थे; उनमें से कई विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखक भी थे, लेकिन विद्रोही नहीं रहे। मानवतावादी विद्यासागर मानव के कल्याण में, ‘जरूरत पड़ने पर प्राण त्यागने भी पीछे हटने वाले नहीं’ थे। इसी लिए विद्यासागर श्रेष्ठ, महान एवं अनन्य थे।”

यह उद्धरण इसलिए दिया गया क्योंकि एक सीख भी मिलती है- अंधविश्वासों, कुरीतियों एवं निरर्थक रिवाजों का विरोध तो उच्छृंखल बन कर भी किया जा सकता है, पर उन्हें समाज से समाप्त करने के लिए वैज्ञानिक सोच के आधार पर अनुशासित सामाजिक आन्दोलन की आवश्यकता होती है, जबकि व्यक्तिजीवन में आचरण में (उस सामाजिक आन्दोलन के सहारे ही सही) चारित्रिक दृढ़ता की जरूरत होती है, बड़बोलापन की नहीं।

सन् 1853 में बैलेन्टाइन साहब के एक पत्र के जवाब में विद्यासागर ने लिखा, “जनता में शिक्षा का प्रसार– यह हमारी मुख्य आवश्यकता है। हमें कुछ बंगला विद्यालय स्थापित करने होंगे। इन सब विद्यालयों के लिए आवश्यक एवं शिक्षाप्रद विषयों पर कुछ पाठ्यपुस्तकों की रचना करनी होगी, शिक्षकों का दायित्वपूर्ण कर्तव्य का भार ले सके ऐसे कार्यकर्ताओं का एक दल का सृजन करना होगा– तभी हमारा उद्येश्य सफल होगा। मातृभाषा का पूरी जानकारी, तथ्यों का यथेष्ट ज्ञान, देश में व्याप्त अंधविश्वासों के कब्जे से मुक्ति– शिक्षकों में ये गुण रहने चाहिये। इस तरह के आवश्यक आदमियों का निर्माण ही मेरा उद्येश्य एवं संकल्प है।”

उनकी वैज्ञानिक व तर्कपूर्ण सोच विधवाविवाह जैसे समाजसुधार के कामों को आगे बढ़ाने के तरीके में भी दिखाई पड़ती है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि खुद जातिगत भेदभाव की भावना से ग्रसित न होकर भी उन्होंने यह कह कर शुरुआत नहीं की कि जब 74% को विधवाविवाह से कोई समस्या नहीं तो 26% को क्यों? जातिप्रथा के अन्तर्गत पूरे समाज पर ब्राह्मणवाद के सांस्कृतिक वर्चस्व को वह जानते थे। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है विधवाओं का विवाह नहीं होने देने की प्रथा उस समय वे परिवार भी शुरू करने लगे थे जिनमें पारम्परिक तौर पर यह प्रथा थी नहीं, लेकिन वर्ग के तौर पर वे सम्पत्तिवान हो रहे थे। बल्कि, सम्पत्तिवान मुसलमान भी इस प्रथा को ग्रहण करने लगे थे। वस्तुत: यह सामाजिक कुलीनता का प्रतीक बन रहा था।

विद्यासागर ने सबसे पहले उस सांस्कृतिक वर्चस्व का प्रमुख हथियार, शास्त्रों का ही गहन अध्ययन किया, तर्क के सुत्र ढूढ़ निकाले एवं उन्हीं का इस्तेमाल भी किया गिद्ध बने बैठे ढोंगी शास्त्रज्ञों के खिलाफ। फिर उन्होंने समर्थन में खास कर वैसे लोगों को जुटाया जो नामचीन और पैसे वाले होने के कारण सरकार को प्रभावित करने की क्षमता रखते थे। फिर उन्होने सरकार को आवेदन किया। आवेदन की भाषा भी पूरी तरह कार्यनीतिक है, भावनात्मक नहीं। उसके आगे उन्होंने एक तरफ वो मुहिम चलाया जिसे आज की भाषा में हम हस्ताक्षर अभियान कहते हैं। दूसरी तरफ अपनी कलम से वह लगातार उन कुतर्कों और व्यक्तिगत लांछनाओं का जबाब देते रहे जो उन्हें रोकने के लिए बरसाये जा रहे थे। आज भी एक व्यक्ति नागरिक, खासकर बुद्धिजीवी के लिए किसी सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे पर लड़ने, आवाज को आगे बढ़ाने का यह तरीका उतना ही प्रासंगिक और शिक्षणीय है, जितना कल था। आज तो कई संगठन हैं, मंच हैं, उन्नीसवीं सदी के मध्य में तो कुछ भी नहीं था। जो पाठ्यपुस्तक उन्होंने लिखे वे सारे पाठ्यपुस्तक, बच्चों का ध्यान एक तरफ पारिपार्श्विक भौतिकता की ओर, युक्तिपरक सोच की पद्धति की ओर तथा नए समाज के निर्माण के लिए आवश्यक मानव-मूल्यों की ओर आकर्षित करते है।

-विद्युत पाल (लेखक बिहार की सबसे पुरानी साप्ताहिक अंग्रेजी पत्रिका ‘बिहार हेराल्ड’ के सम्पादक होने के साथ-साथ बंगला कवि व ट्रेड यूनियन नेता रहे हैं। विचार उनके निजी हैं।)

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