नरेन सहाय का बचपन टीकमगढ़, मध्यप्रदेश के खेतों, बगीचों और जंगलों में गुजरा। जामिया मिलिया इस्लामिया से मास कम्युनिकेशन में स्नातकोत्तर की उपाधि अर्जित करने वाले सहाय राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की योजनाओं में फोटोग्राफी, वीडियो आर्ट, सिनेमा और प्रोडक्शन्स से जुड़े रहे हैं। विजुअल मीडियम के बतौर अतिथि शिक्षक जामिया में कार्यरत रहे हैं। वीर दी वेडिंग की फिल्म मेकिंग एवं टाइम लैप्स के फोटोग्राफर रहे।
बारिश और नानी का गाँव
माँ का गुलाबी बक्सा
और उस पर लगा आसमानी ताला
दोनों चले जा रहे थे आगे सरपट
पीछे छूटता जा रहा था आसमान और मैं
आसमान जादुई था
और मैं जादू के पीछे भागने वाला विस्मय बच्चा
इसका अंदेशा माँ को हमेशा रहता था सफर में
माँ और मेरी दूरी नाल की तरह जुड़ी थी एक-दूसरे से
तो उसे पता लग जाता रुक जाने का
फिर वह आवाज़ देके टेर लेती
ऐसा पूरे सफर में 8 से 10 बार रहा होगा
फिर मैं, दादा और माँ के बीच में चलने लग जाता।
40 कोस की यात्रा में
बक्सा आधे रास्ते माँ के सर पर
आधे रास्ते दादा के
हरा डोलचु आगे-पीछे चलने के बाद
एक दो बार मेरे हाथ में भी आ जाता

पूरे रास्ते माँ दादा के पीछे ही चल रही होती
दादा रास्तों के ऐसे जानकर जान पड़ते
जैसे उनके ही पुरखों ने इन्हें काड़ा हो
हर रास्ता हर पहाड़ हर झरना और हर नदी की
अपनी ही कहानी वे सुना रहे होते
मैं कान लगाकर सुन रहा होता शायद माँ भी कुछ-कुछ सुन रही होती उन सुंदर कहानियों को।
इस बीच कलेवा और छुटपुट सिंगार की चीजें (माहुर, तकता, कंघा और पाउडर) से भरा
हरा डोलचु, कभी मेरे हाथ में रहता तो माँ के हाथ में इस तरह हाथों-हाथ घूमता रहा डोलचु,
हरे रास्ता की तरह
नानी गाँव
40 कोस दूर था सड़क वाले रास्ते से
लेकिन हर बार बारिश में नदी पर बना पुल डूब जाता
आने-जाने वाली दोनों बसें बंद हो जाती
दादा के साथ नानी के गाँव के लिए सफर रोमांचकारी था
जो आज भी स्मृतियों में जीवित आकाशगंगा-सा तैर रहा है
जंगल पहाड़ तालाब पार करते हुए
काले स्लेटी भूरे नीले और गुलाबी बादल
इस तरह साथ रहे जैसे समूची पृथ्वी ने उन्हें बुलाया हो बरसने के लिए
काले बादलों के दर से चिड़ियों, मधुमखियों और चीटियों का झुंड
अपने-अपने घरों की तरफ लौट रहा था
जैसे माँ लौट रही थी नानी गाँव
(पिछली जुलाई के महीने में नानी ने अपनी अंतिम सांस ली, पानी खूब बरस रहा था- फोन पर माँ ने रोते हुए बताया।)
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