मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने में वामपंथियों की रही आत्मघाती भूमिका

मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने में वामपंथियों की रही आत्मघाती भूमिका

ब भारत में वामपंथी राजनीति का पूरी तरह पराभव हो गया है। वामपंथी राजनीति पतन के जिस गर्त में डूब चुकी है, उससे अब उसका निकल पाना फिलहाल संभव नहीं लग रहा है। आज वामपंथी राजनीति जिस हालत में पहुंच गई है, उसके पीछे ऐतिहासिक कारण रहे हैं। भारत में जब वामपंथ का उदय हुआ और कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई, तब यह पूरी तरह से सोवियत संघ के प्रभाव और वहां के नेतृत्व के नियंत्रण में थी। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी वह कब हिस्सेदारी करे और कब उससे दूर हो जाए, यह सोवियत नेतृत्व ही तय करता था। यहां के कम्युनिस्टों को यह आजादी नहीं थी कि वे स्वयं कोई निर्णय ले सकें। वे कभी भी वैचारिक रूप से स्वतंत्रता नहीं हुए और हमेशा परमुखापेक्षी बने रहे।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इन्होंने कई बड़ी ग़लतियां की, जिसके लिए बाद में माफ़ी भी मांगी। पर राजनीति में गलतियां करने के बाद माफ़ी मांगने का कोई औचित्य नहीं होता। इनकी सबसे बड़ी ग़लती ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से खुद को अलग-थलग रखना था। इसके बाद इन्होंने धर्म के आधार पर देश के विभाजन का समर्थन किया और राष्ट्रीयता के सवाल को समझ पाने में पूरी तरह असमर्थ रहे। इन्होंने धर्म के आधार पर उर्दू को भी मुसलमानों की भाषा मानने की ग़लती की। यही नहीं, जब ये अतिवादी हो गए तो देश को मिली आज़ादी को ही झूठा करार दिया और गांधी को पूंजीपतियों का एजेंट करार दिया। यह भी इनकी गलत समझदारी का ही नमूना था। तेलंगाना और तेभागा जैसे कृषक आंदोलनों में इन्होंने अतिवादी हिंसक तरीका अपनाया, जिसका ख़ामियाजा इन्हें भुगतना पड़ा।

बावजूद देश के मज़दूरों, गरीब किसानों और शिक्षित मध्यम वर्ग के बीच इन्हें मान्यता और लोकप्रियता हासिल हुई और अपनी तमाम कमियों के बावजूद ये अपनी राजनीतिक पहचान बनाने में सफल रहे। लाल झंडा अन्याय, शोषण और दमन के विरोध का प्रतीक बन गया। हर शहर, पंचायत व गांवों में कम्युनिस्ट पार्टियों की शाखाएं खुलीं। इनके छात्र, युवा, महिला और लेखक संगठन भी सामने आए। रंगकर्मियों का इप्टा जैसा महत्त्वपूर्ण संगठन भी कम्युनिस्ट पार्टी के संरक्षण में शुरू हुआ। बाद में नेतृत्व और नीतियों के सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ, पर देश के कई राज्यों में इनकी सरकारें भी बनीं। पश्चिम बंगाल में इनका शासन 35 वर्षों तक रहा। केरल में ये अभी भी सत्ता में हैं। पर भारतीय राजनीति में ये अब एक तरह से अप्रासंगिक होते जा रहे हैं।

भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन की दोबारा जीत और देश-विदेश में बदनाम नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने में वामपंथियों की बहुत ही ग़लत और आत्मघाती भूमिका रही है। नरेंद्र मोदी गुजरात में गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के प्रमुख अपराधी हैं और उनके सहयोगी अमित शाह की पृष्ठभूमि सभी जानते हैं। ये दोबारा सत्ता में नहीं आ सकें, इसके लिए ज़रूरी था कि तमाम भाजपा-विरोधी दलों का एक गठबंधन बने, लेकिन क्षेत्रीय दलों के क्षुद्र स्वार्थ में डूबे भ्रष्ट नेताओं के कारण ऐसा नहीं हो सका और विपक्ष पूरी तरह बिखरा रहा। इधर, भाजपा ने जम कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया और चुनाव-प्रचार में अरबों रुपए पानी की तरह बहाए। भाजपा ने पहले से ही देश के प्रमुख मीडिया समूहों को खरीद लिया था, जो इसके पक्ष में दिन-रात प्रचार कर रहे थे। बावजूद, बिखरा विपक्ष भाजपा की जीत का प्रमुख कारण रहा।

बिहार में वामपंथी दलों ने अपनी सारी ताकत कन्हैया को जिताने में लगा दी जो सीपीआई का उम्मीदवार था। वामपंथियों ने उसे महानायक के तौर पर पेश करने की कोशिश की और उसके प्रचार में देश भर के वाम बुद्धिजीवी, लेखक, संस्कृतिकर्मी यहां तक कि फिल्मी अभिनेता भी आए। पर कन्हैया को मुंह की खानी पड़ी। ये बात अलग है कि चुनाव की आड़ में उसने करीब एक करोड़ चंदा जुटा लिया।

जहां तक पश्चिम बंगाल का सवाल है, भाजपा ने वहां गहरी पैठ बना ली है। ममता बनर्जी के लाख विरोध के बावजूद अमित शाह वहां रैली और रोड शो करने में कामयाब रहे। वहां उसने जम कर सांप्रदायिक विष-वमन किया। भाजपाइयों के आगे ममता की एक न चली। पश्चिम बंगाल में वामपंथी अपना जनाधार बहुत पहले ही खो चुके थे और इनके ज्यादातर कार्यकर्ता ममता के साथ चले गए थे। अब ममता के कार्यकर्ताओं का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ चला गया है, क्योंकि उन्हें दाम चाहिए। जो ज्यादा कीमत देगा, कथित कार्यकर्ता उनके साथ रहेंगे। जो भी हो, ममता और वामपंथियों के बीच सांप-नेवले का संबंध रहा है।

वामपंथी यह कभी नहीं भूल सकते कि ममता ने उनसे सत्ता छीन ली। यही वजह रही कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने अपने कैडर को भाजपा उम्मीदवारों को वोट देने का निर्देश जारी कर दिया था। प्रकाश करात कांग्रेस से गठबंधन का शुरू से ही विरोधी रहे। माकपा के दूसरे नेताओं की उन्होंने एक न सुनी। उनका कहना था कि भाजपा के फासीवाद से वे अकेले लड़ेंगे। वे भाजपा से लड़ते क्या, उनके कैडर ने ममता को हराने के लिए भाजपा उम्मीदवारों का समर्थन किया और उन्हें वोट दिया। इस बात को सीताराम येचुरी ने स्वीकार किया था। इस संबंध में इंडियन एक्सप्रेस में एक समाचार छपा था, जिसमें सीताराम येचुरी को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि माकपा कैडर ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया। यही नहीं, माकपा के एक पुराने कार्यकर्ता ने प्रकाश करात पर भाजपा नेतृत्व से 100 करोड़ रुपए की रिश्वत लेने का आरोप भी लगाया। इसमें कितनी सच्चाई है, यह कह पाना तो मुश्किल है, पर इसमें कोई दो राय नहीं कि कम्युनिस्ट पार्टियों की नीतियों ने देश में भाजपा की जड़ें मजबूत करने में अच्छी-खासी भूमिका निभाई है। जबकि शुरू से ही कम्युनिस्ट कांग्रेस की सरकारों को प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन देते रहे, पर जब देश भीषण संकट के दौर से गुज़र रहा है, इन्होंने अपनी डफली अलग बजानी शुरू कर दी।

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