Opinion ∣ बिहार की चुनावी राजनीति में वामपंथी दल

Opinion ∣ बिहार की चुनावी राजनीति में वामपंथी दल

बिहार के पिछले तीन दशकों के चुनावी इतिहास में तीनों प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियां, भाकपा, माकपा और भाकपा-माले (लिबरेशन) राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही थी। नब्बे के दशक के प्रारंभिक वर्षों में भी तीनों दल साथ थे लेकिन भाकपा-माले के जब सात में से पांच विधायक लालू प्रसाद ने तोड़ लिए उसके बाद राजद व भाकपा-माले-लिबरेशन (तब आई.पी.एफ) के आपसी संबंध बेहद तल्ख हो गए थे। लेकिन सी.पी.आई और सी.पी.एम का संबंध अगले एक दशक तक लालू प्रसाद की पार्टी के साथ बना रही। 1992 में तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा भूमि संघर्ष शुरू किए गए। प्रारंभ में लालू प्रसाद ने वादा किया था कि जब भी संघर्ष होगा पुलिस हस्तक्षेप नहीं करेगी लेकिन व्यवहार में ऐसा न हुआ। बल्कि भूमि संघर्षों में वामदलों के नेताओं व कार्यकर्ताओं की हत्या होती रही। माकपा के पूर्णिया विधायक अजीत सरकार, खेत मजदूरों के प्रमुख नेता रामनाथ महतो, जे.एन.यू छात्र संघ के नेता रहे चंद्रशेखर सहित कई लोगों की हत्या हुई। बिहार में जितने भी बड़े अपराधियों का इस दौरान अभ्युदय हुआ उसमें अधिकांश के हाथ कम्युनिस्टों की हत्या से रंगे हुए थे। अंततः दोनों के रास्ते अलग होने थे।

जब तक सी.पी.आई और सी.पी.एम लालू प्रसाद की पार्टी के साथ गठबधन में रही लालू प्रसाद की पार्टी सत्ता में बनी रही लेकिन ज्योंही इन दोनों वामपंथी दलों- सी.पी.आई, सी.पीएम ने लालू प्रसाद से अलग हटकर चुनाव लड़ा लालू प्रसाद को सरकार बनाने में सफलता हाथ न लगी। लालू प्रसाद और सी.पी.आई , सी.पी.एम के मध्य रिश्ते यू.पी.ए-1 में न्यूक्लियर डील के दौरान और भी तल्ख हो गए थे।

2016 आते-आते कन्हैया कुमार वामपंथ के सितारा बन चुके थे। सी.पी.आई से जुड़े कन्हैया पूरे बिहार में वामपंथ की नई उम्मीद बनकर उभरे। 2019 के लोकसभा चुनावों में कन्हैया से खतरा महसूस कर तेजस्वी यादव ने उसे बेगूसराय सीट पर समर्थन नहीं दिया लेकिन भाकपा-माले-लिबरेशन को आरा सीट दी गई। उसके बदले में माले ने पाटलिपुत्र लोकसभा पर लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती को समर्थन दिया।

पाटलिपुत्र लोकसीट पर वामपंथियों का खासा प्रभाव रहा है। इस सीट पर कम्युनिस्टों के सहयोग के बगैर राजद कभी भी जीत हासिल न कर सका था। वामपंथियों का सहयोग न मिलने पर लालू प्रसाद को भी यहां पराजय का सामना करना पड़ा था। दरअसल, इस लोकसभा सीट पर लंबे अर्से तक यादव जाति के सी.पी.आई नेता रामावतार शास्त्री सांसद चुने जाते रहे थे। लालू प्रसाद ने सी.पी.आई से यह सीट 1991 में इंद्र कुमार गुजराल के लिए छोड़ देने का आग्रह किया था। सी.पी.आई ने भलमनसाहत में यह सीट छोड दिया। उसके बाद राजद ने यह सीट अपने कब्जे में कर लिया। वामपंथी दलों के सहयोग से राजद के रामकृपाल यादव यहां से विजयी होते रहे। राजद वाम दलों के प्रभाव से वाकिफ था इन्हीं वजहों से मीसा भारती के लिए इस सीट पर समर्थन भाकपा-माले से मांगा और बदले आरा में समर्थन दिया था। लेकिन चुंकि सी.पी.आई, सी.पी.एम से समझौता न हो सका यह सीट राजद जीत न सकी। इस तथ्य के बावजूद कि इस क्षेत्र में भाकपा-माले का प्रभाव अब अधिक हो गया है।

मगध में सी.पी.आई का पुराना प्रभाव

पूरे मगध क्षेत्र में सी.पी.आई का खासा प्रभाव रहा। पटना से सटे बिक्रम में सी.पी.आई के रामनाथ यादव भूमिहार बहुल इलाके के चार दफे यानी बीस सालों (1980-2000) तक विधायक चुने जाते रहे। रामनाथ यादव के बाद पिछड़ी जाति का कोई उम्मीदवार वहां से जीत न हासिल कर सका। गोह से सी.पी.आई के रामशरण यादव भी चार-पांच बार विधायक बनते रहे। उसके बाद राजद अपनी बदौलत कभी गोह से यादव या पिछड़ी जाति का उम्मीदवार अपनी बदौलत जितवा पाने में न सफल हो सका। रामशरण यादव के बाद राजद, वर्तमान चुनाव में सी.पी.आई, के आधार वाले इस इलाके से, उनके सहयोग से ही, जीत हासिल कर सकी।

ठीक इसी प्रकार जहानाबाद से सी.पी.आई नेता रामाश्रय यादव पांच बार सांसद बने। उनके बाद राजद कभी भी यादव जाति का उम्मीदवार यहां से पांच वर्षों जिए जिता पाने में सफल न हो सका। बाद के दिनों में भाकपा-माले-लिबरेशन इस इलाके में काफी सक्रिय रहा परन्तु कभी भी इस जिले से एक भी सदस्य बिहार विधानसभा में नहीं भेज सका। इस चुनाव में पहली बार यहां से भाकपा-माले का विधायक घोसी से सी.पी.आई-सी.पी.एम-राजद-कांग्रेस के गठबंधन में जीत पाने में सफल हुए।

लेकिन सीटों के बंटवारे में पूरे मगध के इलाके में सी.पी.आई और सी.पीएम को एक भी सीट समझौते के तहत नहीं दी गई। सीट समझौते उन्हें ये सीटें हासिल न हुई। मगध इलाके में पहले चरण में चुनाव हुआ था। महागठबंधन ने पहले चरण में ही सबसे अच्छा प्रदर्शन किया। भाकपा-माले की अधिकांश सीटें भी इस चरण में थी। भाकपा-माले ने पहले चरण में सात सीटें जीतने में सफल रहा। इस बात की ओर कई विश्लेषकों का ध्यान गया है कि यदि राजद ने कुछ सीटें और वामपंथी दलों- खासकर- सी.पी.आई, सी.पी.एम को दी होतीं तो बिहार में महागठबंधन की सरकार बन गई होती।

वाम दलों द्वारा अलग-अलग सीट समझौता करना

वामपंथी दलों को अधिक सीटें न मिल पाने में वामपंथी दलों का आपसी अंर्तविरोध तो था ही राजद द्वारा कन्हैया और उसकी पार्टी सी.पी.आई के प्रति नापसंदगी भी एक बड़ी वजह थी। सी.पीआई, सी.पी.एम ने एक साथ मिलकर तो भाकपा-माले-लिबरेशन ने राजद के साथ अलग-अलग समझौतावार्ता किया। यदि तीनों वाम दल एक साथ बात करते तो संभव है कि 29 के बदले वामदल 50 सीट तक प्राप्त कर सकते थे। लेकिन भाकपा-माले-लिबरेशन द्वारा अन्य वामदलों के साथ एकजुट होकर बात करने के बजाए स्वतंत्र होकर राजद द्वारा बात करने के कारण यह बात आकार न ले सकी। कई विश्लेषकों का यह भी मानना है कि कन्हैया की पार्टी से अपनी चिढ़ के कारण भाकपा-माले-लिबरेशन को एक सोची-समझी रणनीति के तहत अधिक सीटें दीं। मसलन, दीघा क्षेत्र में 2015 के पिछले विधानसभा चुनाव में सी.पी.आई को सी.पी.आई.एम.एल-लिबरेशन के मुकाबले अधिक वोट आए थे पर सीट हासिल हुई सी.पी.आई.एम.एल-लिबरेशन को।
सी.पी.आई को इसी बीच, एक गहरा धक्का उसके लोकप्रिय राज्यसचिव सत्यनारायण सिंह की कोरोना से मौत के रूप में लगा। सी.पी.आई का नया नेतृत्व जब तक बातों को समझता तब तक राजद के अंदर, सी.पी.आई- सी.पी.एम केा लेकर, एक समझ बन चुकी थी कि इन्हें ज्यादा सीटें नहीं देनी है। कन्हैया के रूप में अपने संभावित खतरे को ध्यान में रखकर तेजस्वी यादव ने सी.पी.आई को मात्र छह सीटें तथा सी.पी.एम को चार सीटें दी, वो भी काफी हील-हूज्जत के बाद दी। भाकपा-माले-लिबरेशन जो अलग से वार्ता कर रहा था उसने 19 सीटें प्राप्त मिली। पूरे बिहार में सबसे बड़ी उपस्थिति वाली पार्टी सी.पी.आई को मात्र तीन जिले में सीटें दी गई। लोकसभा चुनाव के वक्त तेजस्वी यादव ने सी.पी.आई को‘एक जिले व एक जाति की पार्टी’ कहा था। ऐसा प्रतीत होता है इसी समझ के तहत सी.पी.आई को आधी सीटें यानी तीन बेगूसराय में ही दी गई।

सी.पी.आई को यदि उसके आधार वाले इलाके खगड़िया, मोतीहारी, गोह, गया में और सी.पी.एम को पूर्णिया, उजियारपुर तथा समस्तीपुर की अन्य सीटें मिलती तो बड़े आराम से इसे महागठबंधन की झेाली में लाया जा सकता था। लेकिन सी.पी.आई , सी.पी.एम को उसके आधार इलाकों में सीटें न देने की परिणति राजद को सरकार बनाने से महरूम रह जाने के रूप में हुई। भाजपा विरोधी सबसे प्रमुख चेहरा कन्हैया को भाजपा के खिलाफ चल रही लड़ाई में ठीक से इस्तेमाल न कर पाने की बहुत बड़ी कीमत महागठबंधन को चुकानी पड़ी।

कन्हैया की लोकप्रियता का लाभ न ले पाना

कन्हैया को ओवैसी के नैरेटिव के बरक्स खड़ा किया जा सकता था। फरवरी माह में एक माह तक चले सी.ए.ए विरोधी लंबे अभियान में कन्हैया ने जिस प्रकार पूरे प्रांत की यात्रा की उसका परिणाम यह हुआ कि उसे राज्य भर के मुस्लिम जनता के मध्य खासा लोकप्रिय बना डाला। 27 फरवरी को पटना के गॉंधी मैदान में हुई रैली में बड़े पैमाने पर मुस्लिम महिलाओं की भागीदारी इस बात का संकेत था। महागंठबंधन कन्हैया की इस लोकप्रियता का सीमांचल के इलाकों में इस्तेमाल कर सकता था। लेकिन महागठबंधन के नेताओं की संकीर्णता के कारण यह संभव न हो पाया। चुनावों के दौरान राजद, कांग्रेस और माले की अधिकांश सीटों पर कन्हैया को चुनाव प्रचार के लिए आमंत्रित ही नहीं किया गया। जबकि कई राजद के उम्मीदवार राजद कार्यालय में लगभग तीन दर्जन से अधिक पत्र कन्हैया के कार्यक्रम के लिए दे चुके थे। लेकिन राजद कार्यालय ने उन्हें स्वीकृति ही न दी। कांग्रेस भी इस मामले में विशेष पहलकदमी न ले सकी। लिहाजा भाजपा विरोधी एक बड़े चेहरे की संभावनाओं का उपयोग न कर बदलाव की दहलीज पर खड़े ऐतिहासिक मौके को गंवा दिया गया।

यदि पूरे हिंदी क्षेत्र में बिहार में भाजपा को सत्ता अपनी बदौलत न मिल सकी तो इसका बड़ा कारण जमीनी स्तर पर वामपंथ की सशक्त मौजूदगी रही है। वामपंथ ने लगातार जनता के मुद्दों पर आंदोलन करना, धरना-प्रदर्शन कर, सेमिनार-विचार गोष्ठियों का आयोजन कर सांप्रदायिक शक्तियों के विरूद्ध माहौल तैयार किया जिसका फायदा राजद-कांग्रेस सरीखे अन्य दलों को मिलता रहा है।

स्वामी सहजानंद के आंदोलन में समाजवादी व वामपंथी

राजद और वामपंथ जब भी साथ रहा है उसने हमेशा चुनावों में सफल प्रदर्शन किया है। 2020 का विधानसभा चुनाव भी उसका अपवाद नहीं है। राजद और कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच एकता दरअसल आजादी के पूर्व समाजवादियों-कम्युनिस्टों के बीच साथ काम करने की निरंतरता है जिसके नेता क्रांतिकारी किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती थे। स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व वाली किसान सभा में समाजवादी व वामपंथी साथ रहे। समाजवादियों व कम्युनिस्टों द्वारा संयुक्त रूप से चलाए गए सामंतवाद विरोधी संघर्ष का परिणाम था कि बिहार जमींदारी उन्मूलन करने वाला देश का पहला राज्य बना। लेकिन समाजवादियों व वामपंथियों की एकता में दरार उस वक्त पड़ गई जब स्वामी सहजानंद सरस्वती ने 1942 के आंदोलन में कम्युनिस्टों के ‘पीपुल्सवार’ की लाइन का समर्थन कर दिया जबकि समाजवादी इसके खिलाफ थे।

त्रिवेणी संघ व किसान सभा

तीस के दशक में जब किसान आंदोलन जोरों पर था इसे कमजोर करने की नीयत से जमींदारों के नेता और अॅंग्रेजों के समर्थक सर गणेश दत्त तीन पिछड़ी जातियों- यादव, कुर्मी और कोईरी के अगुआ हिस्सों को लेकर बनी ‘त्रिवेणी संघ’ का पीछे से समर्थन किया। त्रिवेणी संघ उसी त्रिवेणी संघ का वैचारिक उत्तराधिकारी बनकर उभरा। जब 1990 में लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने तब‘त्रिवेणी संघ’ के एक पुराने जीवित नेता ने टिप्पणी की थी- “हमने जिस जीप को स्टार्ट किया था लालू प्रसाद उसका चौथा ड्राइवर है।”

समाजवादी व वामपंथी आंदोलन में दो धाराओं का अभ्युदय

1950 के बाद समाजवादी आंदोलन दो धाराओं में बंट गया। प्रसोपा और संसोपा। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, जयप्रकाश नारायण से प्रेरणा पाती रही थी तो संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ) जो खुद को लोहिया के करीब पाती थी। संसोपा और प्रसोपा में वैसे तो कोई बुनियादी अंतर न था परन्तु संसोपा व प्रसोपा में सवर्ण जातियों के प्रति रूख को लेकर हल्का फर्क देखा जा सकता है। जैसे प्रसोपा उच्च जातियों के खिलाफ उतनी मुखर न थी। वह किसानों-मजूदरों की बात अधिक किया करती थी जबकि लोहिया ने पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व को प्रधान मुद्दा बनाया। ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ’। लोहिया का यह नारा दरअसल तीस के दशक यादव-कुर्मी-कोईरी जातियों से बनी ‘त्रिवेणी संघ’ से प्रेरणा पाती थी।

पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व की बातें दरअसल इन जातियों के धनी तबकों की मांगे थी। समाजवादी आंदोलन में इन दोनों धाराओं का आगे विकास नब्बे के दशक में राजद व जदयू के रूप में, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के मध्य हुई।

नक्सल आंदोलन में दो धारा- एम.के.एस.एस और आई.पी.एफ

समाजवादी आंदोलन की इन दोनों धाराओं ने कम्युनिस्ट आंदोलन पर भी प्रभाव डाला। इसे सी. पी. आई और सी.पी.एम एक ओर तो दूसरी ओर नक्सल आंदोलन की कई धाराओं में देखा जा सकता है। बिहार में नक्सल आंदोलन इतनी महत्वपूर्ण रही है कि पहली बार यहीं से चारू मजूमदार की क्लास एनीहिलेशन की लाइन के विरूद्ध एस.एन.सिंह ने आवाज बुलंद की। अस्सी के दशक में नक्सल आंदोलन एक गुट भाकपा-माले-लिबरेशन की मौजूदगी बढ़ने लगी। अस्सी के दशक में नक्सल आंदोलन के दो गुट काफी सक्रिय थे। एक ओर‘मजदूर-किसान संग्राम समिति’(एम.के.एस.एस) जिसके नेता डॉ. विनयन थे तो दूसरी धारा के ‘इंडियन पीपुल्स फ्रंट’ (आई.पी.एफ) थी। एम.के.एस.एस प्रतिबंधित सी.पी.आई-एमएल पार्टी यूनिटी का खुला मोर्चा था तो आई.पी.एफ दूसरा सी.पी.आई-एमएल- लिबरेशन, जिसके नेता थे विनोद मिश्र। 1986 अरवल नंरसहार जिसमें जालियांवाला बाग की तरह आंदोलनकारी एम.के.एस.एस द्वारा आहूत रैली पर अंधाधुंध गोली चलाकर दर्जनों लोगों को मार डाला गया था। इस वक्त इन दानों धाराओं ने मिलकर सशक्त आंदोलन चलाया था। पूरे बिहार में सामंतविरोधी संघर्षों का उबाल-सा आ गया था। लालू प्रसाद इन्हीं सामंतवादविरोधी संघर्षों की लहर पर सवार हो बिहार के मुख्यमंत्री बने। उनकी सरकार ही कम्युनिस्टों के समर्थन पर टिकी थी। 1990 के विधानसभा चुनावों में भाकपा-माले-लिबरेशन के 7 विधायक जीते लेकिन कुछ ही दिनों पश्चात पांच विधायक लालू प्रसाद की पार्टी में चले गए।

बिहार विधानसभा में कम्युनिस्ट पार्टियों का प्रदर्शन

भाकपा
(CPI)
भाकपा
(CPI)
माकपा
[CPI (M)]
भाकपा (माले- लिबरेशन)
CPI (ML-Liberation)
195770 
1962120 
1967244 
1969252 
197235  
1977213 
1980236 
19851210
19902367
19952626
2000526
2005 (Feb)317
2005 (Oct)315
2010100
2015003
20202212

अब भी बिहार में नक्सल आंदोलन की कई धाराएं मॉजूद है लेकिन अब लिबरेशन गुट सबसे बड़ा बन चुका हैं। यदि एक ओर सी.पी.आई -सी.पी.एम और दूसरी ओर सी.पी.आई-एमएल-लिबरेशन प्रसोपा व संसोपा प्रवृत्तियों की वाम अभिव्यक्ति है। प्रचलित समझ (परसेप्शन) के स्तर पर देखें तो सी.पी.आई-सी.पी.एम सवर्णों को साथ लेकर जबकि लिबरेशन थोड़ा सवर्णविरोधी रूख के लिए जाना जाता है। वर्तमान विधानसभा चुनाव के जीते विधायकों को देखें तो सी.पी.आई-सी.पी.एम के विधायकों की अधिक समावेशी है यानी सवर्ण, दलित, पिछड़ा सभी है जबकि माले की सीटों में एक भी सवर्ण नहीं है। सी.पी.आई.-सी.पी.एम ने जमीन, मजदूरी जैसे संघर्ष अधिक जबकि माले ने मान-सम्मान की अधिक लड़ाई लड़ी। यानी नक्सल आंदोलन ने जहां सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई लड़ी वहीं सी.पी.आई-सी.पी.एम ने आर्थिक शोषण के खिलाफ संघर्ष पर अधिक जोर दिया।

संविद सरकार के रूप में कम्युनिस्ट मंत्री

बिहार के किसी भी वाम आधार के इलाके में जाने पर कई ऐसे गांव, व इलाके हैं जहां मार्क्स नगर, लेनिन नगर, प्रमोद दास गुप्ता नगर, ए.के. गोपलन नगर मिल जा सकते हैं। सी.पी.आई.-सी.पी.एम के हिस्से गरीबों को अधिक जमीन पर बसाया गया गया है। 1967 में जब गैर-कांग्रेसी संविद सरकार बनी और उसमें सी.पीआई के दो मंत्री चंद्रशेखर सिंह और इंद्रदीप सिन्हा बने उस सरकार ने भूमिहीनों को बासगीत का पर्चा दिलाने, टाटा की जमींदारी हटाने जैसे, सिंचाई की बड़ी योजनाएं चलाने जैसे बड़े कदम उठाए। 1970 से भूमि मुक्ति आंदोलन ने भी बड़ा प्रभाव छोड़ा।

जातीय ध्रुवीकरण और वामपंथी दल

भाकपा-माले लिबरेशन ‘जाति’ का इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति रही है। इन्हीं वजहों से पुराने मध्य बिहार तथा वर्तमान दक्षिण बिहार में सामंतों की निजी सेनाओं को सर्वणों के गरीब हिस्सों को भी जाति के नाम पर ध्रुवीकरण कर पाने में सफलता मिली। 1990 के बाद जब कृषि में सब्सिडी वापस खींचे जाने के कारण कृषि महंगी होती जा रही थी तब किसानों ने जब अपना बोझ खेतमजूदरों पर डालना चाहा। उस वक्त लिबरेशन तथा अन्य नक्सल समूहों के आंदोलन के कारण प्रतिक्रियावादी शक्तियों को‘जाति’ की नाम पर गोलबंदी कर पाने में सहायता मिली। जातीय ध्रुवीकरण इतना तेज हुआ कि इस पूरे दौर में माले के आंदोलनों के केंद्र रहे जहानाबाद से एक भी सीट न निकाल पाई थी। कई दशकों के बाद घोसी से इस चुनाव में भाकपा-माले-लिबरेशन को सफलता हासिल मिली है। सी.पीआई के सांसद रहे रामाश्रय यादव के बाद रामबलिसिंह यादव घोसी से कम्युनिस्ट विधायक बने हैं।

जब जहानाबाद में सी.पी.आई का प्रभाव था प्रतिक्रियावादी ताकतें गोलबंदी कर पाने में सफल नहीं हो पाई थी। इसके बरक्स सी.पीआई-सी.पीएम के आधार वाले में इलाके में जातीय उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष तो हुआ लेकिन ‘जाति’ का इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति न थी इस कारण बेगूसराय, मधुबनी, मोतीहारी, समस्तीपुर, खगड़िया में चले आंदोलनों ने कभी भी उग्र जातीय स्वरूप न ग्रहण किया। खगड़िया में सी.पी.आई के सत्यनारायण सिंह जिस विधानसभा से जीतते थे उनकी जाति के मात्र 2-3 हजार वोट थे। लेकिन कम्युनिस्ट अधिकांश जातियों के गरीबों का समर्थन हासिल किया करते थे। सी.पी.आई ने इस दौर में पिछड़े-दलितों के बीच कई नायक पैदा किए। उपर गिनाए गए नामों के अलावा सी.पी.आई नेता व लोकाख्यान बन चुकी शख्सीयत नक्षत्र मालाकार प्रमुख हैं। उनका जीवन भी हमेशा सामाजिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण के विरूद्ध संघर्ष का प्रतीक है। फणीश्वरनाथ रेणु के चर्चित उपन्यास ‘मैला आंचल’ का ‘चलित्तर कर्मकार’ नक्षत्र मालाकार ही है। ठीक उसी प्रकार जमुई से सांसद रहे चर्चित दलित नेता भोला मांझी हैं।

बेगूसराय: वर्गसंघर्ष का मॉडल

ऐसा माना जाता है कि भारत में वर्गसंघर्ष दो पैरों पर चलता है सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष वहीं तो दूसरी तरफ आर्थिक शोषण के विरूद्ध। इन दोनों लिहाज से देखें तो हिंदी क्षेत्र में बेगूसराय इकलौता ऐसा जिला है जो इन दोनों मानकों-सामाजिक उत्पीड़न तथा आर्थिक शोषण पर खरा उतरता है।

बेगूसराय में चले‘मांग-मनसेरी’ जहां आर्थिक मुद्दा तो ‘चिरागदानी’ के खिलाफ सामाजिक मान सम्मान संघर्ष इसका प्रतीक है। इसी कारण पूरे हिंदी क्षेत्र में बेगूसराय एकमात्र लोकसभा क्षेत्र है जहां वामपंथ अपनी बदौलत चुनाव जीतने में कामयाबी मिलती है। बेगूसराय मुख्यतः सी.पी.आई का प्रभाव वाला इलाका माना जाता रहा है। तमाम कमियों के बावजूद जिस ढंग से रचनात्मक संस्थाओं का निर्माण किया गया मसलन चांद-सूरज हॉस्पीटल, रंगमंच, साहित्य व गांवों में पुस्तकालयों का निर्माण। संघर्ष व सृजन का अनूठा संगम है बेगूसराय।

घातक टूट बनी सी.पी.एम के विकास में बाधा

ठीक इसी प्रकार सी.पी.एम द्वारा समस्तीपुर जिले और खासकर विभूतिपुर के दर्जनों गांवों में समाजिक मान सम्मान के खिलाफ संघर्ष चलाए गए। कई दफे इन संघर्षो ने रक्तरंजित रूप ग्रहण कर लिया। बिहार में सी.पी.एम के एक बड़ी पार्टी बनने की संभावना को इन टूटों ने बाधित कर दिया। 1964 में सी.पी.एम के गठन के बाद। रामनरेश राम व एस.एन. सिंह जैसे नेता सी.पी.एम से निकलकर नक्सल आंदोलन में चले गए। 1973 में धनबाद के कोयला क्षेत्र के बड़े जननेता ए.के. राय ने सी.पी.एम से निकल एम.सी.सी ( मार्क्सिस्ट को-ऑर्डिनेशन कमिटि) बनाई। पुनः 1980 में सी.पी.एम के राज्य सचिव सियावरशरण श्रीवास्तव ने ‘पी सुंदरैय्या की लाइन लागू करो’ का नारा देकर एम.सी.पी.आई ( मार्क्सिस्ट कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ) का गठन किया। इसके बाद भी सी.पी.एम के कई बड़े नेता भी पार्टी छोड़कर जाते रहे जैसे चर्चित कर्मचारी नेता योगशवर गोप, केंद्रीय समिति सदस्य व भागलपुर के सांसद सुबोध राय, बक्सर की विधायक मंजू प्रकाश, राजकुमार यादव, दिनेश यादव । इस कड़ी में चंद दिनों पूर्व विभूतिपुर से छह बार विधायक रहे रामदेव वर्मा का पार्टी से हटने को दखा जा सकता है।

वर्तमान चुनावों में राजद और माले में अधिक एकता की जो बातें दिखाई पड़ती है उसके पीछे‘जाति’को केंदीय तत्व मानने की यह समझ है जो माले को सी.पी.आई-सी.पीएम की तुलना में राजद के अधिक नजदीक लाती प्रतीत होती है।

वैसे राजद भी अब खुद को बदलती नजर आ रही है। चुनावों में पहली दफे सामाजिक न्याय के बदले आर्थिक न्याय की बात हो या खुद को मुस्लिम यादव के बदले‘ए टू जेड’ की पार्टी बनाने की चाहत हो। पुराना सवर्णविरोधी रूख बदलता प्रतीत हो रही है। नरेंद्र मोदी के आने के बाद वामपंथ ने जिस ढ़ंग से जमीनी स्तर पर संघर्ष कर माहौल बनाया उससे उसे नई धार मिली। इन तीनों प्रमुख वामदलों के अलावा छोटे-छोट कई टुकड़ों में बंटे वामदलों व जमातों को देखा जाए तो हिंदी क्षेत्र के किसी दूसरे राज्य के मुकाबल बिहार वामपंथी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए, अभी, सबसे उर्वर भूमि है।

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