सात दिसंबर 1920 को महात्मा गाँधी हाजीपुर आने वाले थे। जहाँ उनकी सभा होनी थी, स्टेशन से वहाँ तक जाने का रास्ता ठीक नहीं था। उस रास्ते को ठीक करने के लिए छात्रों का एक समूह अपने शिक्षक के नेतृत्व में लगभग तीस किलोमीटर दूर से सभा के एक दिन पहले यानी छह दिसंबर को ही पहुँच चुका था। रास्ते को ठीक किया गया। अगली सुबह आठ बजे महात्मा गाँधी हाजीपुर आए। उनकी सभा हुई। सभा में छात्र-नौजवान भी थे। अपने संबोधन में महात्मा गाँधी ने कहा- “बच्चों हमसब गरीब है। हमारा देश गरीब इसलिए है क्योंकि वह गुलाम है। इस गुलामी से मुक्ति पा लो फिर तुमलोग पढ़ लेना।” महात्मा गाँधी की इस बात का असर वहाँ मौजूद कई छात्रों पर हुआ। उन्हीं में से एक थे दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले किशोरी प्रसन्न सिंह। जिन्होंने गाँधी जी के आह्वान पर स्कूल छोड़ दिया और आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। जयप्रकाश नारायण के साथ बहुत ही नजदीकी रिश्ता रहा। किसान सभा में स्वामी सहजानंद सरस्वती के साथ काम किया। सुभाष चंद्र बोस के लिए ‛फॉरवर्ड’ में काम किया। भगत सिंह और क्रांतिकारी साथियो के साथ भी आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहे। कितने ही साल जेल में बिताए। आजाद भारत में भी समाज के लिए उनकी लड़ाई जारी रही। हमसब उन्हें एक कॉम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रूप में जानते हैं।
किशोरी प्रसन्न सिंह का जन्म वैशाली जिले के लालगंज इलाके के एक गांव जोगिडीह में 12 फरवरी 1903 ई० को हुआ था। उनका परिवार एक गरीब परिवार था। पिता खेती-बारी करते थे। ये सिर्फ दो साल के थे तब इनकी माताजी का देहांत हो गया। इनकी बड़ी बहन ही इनका देखभाल करती थी। किशोरी प्रसन्न सिंह पढ़ने में तेज थे। छात्रवृति के जरिए ही इन्होंने दसवीं तक अपनी पढ़ाई की।
कलकत्ता में चौरी-चौरा की घटना के बाद जब गाँधी जी ने आंदोलन वापस ले लिया तो छात्रों-नौजवानों को बड़ी निराशा हुई। स्कूल-कॉलेज छोड़कर आए लोगों की समझ में नहीं आ रहा था कि अब आगे क्या। किशोरी प्रसन्न सिंह भी इसी उधेड़बुन में थे। इसी बीच गया में कांग्रेस अधिवेशन होना तय हुआ। किशोरी प्रसन्न भी गया पहुँच गए। गया कांग्रेस में ही चितरंजन दास ने असेम्बली के बहिष्कार के सवाल पर अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। बाद में उन्होंने अलग पार्टी बना ली। किशोरी प्रसन्न सिंह गया से सीधे कलकत्ता चले गए। कलकत्ता में न रहने का ठिकाना न खाने। हाजीपुर के ही किसी परिचित की वजह से रहने की जगह मिली। जीवनयापन के लिए कभी कलम-पैड बेचा, कभी चाय बेची, कभी बर्फ का गोला तो कभी ट्यूशन पढ़ाया। काफी दिनों तक किताब बेचने का भी काम किया। इन सब कठिनाइयों के बावजूद अखबार ज़रूर खरीदते। नेशनल लाइब्रेरी में जाकर किताब पढ़ते। बड़ा बाजार में कुमार सभा नाम की संस्था से भी उनका जुड़ाव हो गया था। यह संस्था एक सांस्कृतिक संस्था था। यह सभा एक अच्छी पुस्तकालय भी चलाता था। शाम का वक्त किशोरी प्रसन्न सिंह इसी पुस्तकालय में बिताते। पुस्तकालय से किताबें लाकर पढ़ते। कई बार तो काम न रहने पर पुस्तकालय में किताब पढ़ते हुए समय गुजारते। पुस्तकालय में उस समय के सभी महत्वपूर्ण अखबार भी आते थे जिससे उन्हें देश-दुनिया की खबर मिल जाती थी। यहीं पर उनका लगाव साहित्य से हुआ। प्रेमचंद के साहित्य से वो बहुत प्रभावित हुए। कलकत्ता में रहते हुए वो राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। कहीं भी सभा की सूचना मिलती वो पहुँच जाते। उन दिनों पूरे कलकत्ता में इसी बात पर बहस हो रही थी कि गाँधी जी ने आंदोलन वापस लेकर ठीक किया या गलत। इस बात को लेकर नौजवानों में बहुत नाराजगी थी। हर जगह बैठकों का दौर जारी था। ऐसी ही किसी बैठक में उनकी मुलाकात अमूल्य बोस नामक युवक से हुई जो फॉरवर्ड में काम करता था। अमूल्य ही इनको फॉरवर्ड में ले गया। फॉरवर्ड में इनको काम मिला संपादकीय विभाग में कॉपी होल्डर का। लेकिन एक समस्या खड़ी हो गई। किसी ने सवाल उठा दिया कि इनके पास ग्रैजुएट डिग्री नहीं है और ये बंगाली भी नहीं है। उस समय सुभाषचंद्र बोस फॉरवर्ड के मैनेजर थे मामला उन तक पहुंचा तो सुभाष बाबू ने सबके सामने कहा “ यदि इन्हीं दो कारणों से कि इसके पास कोई डिग्री नहीं है और ये बिहार प्रान्त वाला है, योग्य होते है हुए भी न ले फिर हम नेशनलिस्ट किस बात के, तब तो यह ऑफिस बंद कर देना चाहिए।”
फॉरवर्ड में काम मिलने से रहने खाने की समस्या तो हल हो ही गई, राजनीतिक रूप से भी सक्रिय रहने का मौका मिल जाता। तारकेश्वर मंदिर के महंथ के खिलाफ उसे गद्दी से हटाने के लिए सत्याग्रह चल रहा था। सत्याग्रह काफी लम्बा चला। उन दिनों मृणाल कांति बसु फॉरवर्ड के संपादक थे। किसी प्रश्न पर मतभेद बढ़ जाने के कारण मृणाल बसु ने फॉरवर्ड से इस्तीफा दे दिया और आनंद बाजार पत्रिका में काम करने लगे।
फॉरवर्ड की नीति सत्याग्रह के समर्थन में थी और पत्रिका की नीति विरोध में। जो मृणाल बसु कल तक सत्याग्रह का समर्थन करते थे उन्हीं की कलम से अब सत्याग्रह का विरोध होने लगा। किशोरी प्रसन्न सिंह को यह बात बड़ी अजीब लगी। “यह तो अपने को बेचने जैसा है। अगर यह पत्रकारिता है तब तो मुश्किल है। ईंट ढोकर पेट भरना अच्छा है बनिस्पत इसके कि जो चाहे वही हमारे दिमाग, हमारी बुद्धि, हमारे हुनर का दुरुपयोग करे।” उन्होंने कलकत्ता छोड़ने का निर्णय कर लिया। उन्होंने गाँधी जी चिट्ठी लिखी के वो साबरमती आना चाहते हैं। गाँधी जी ने कहा कि राजेंद्र प्रसाद से मिल लें। किशोरी प्रसन्न सिंह बिहार वापस आ गए।
टैक्सबंदी आंदोलन
कलकत्ता से लौटने पर राजेन्द्र प्रसाद से मुलाकात हुई। राजेन्द्र प्रसाद ने उन्हें बताया कि गाँधी जी ने आपके बारे में मुझे चिट्ठी लिखी है। राजेन्द्र प्रसाद के कहने पर किशोरी प्रसन्न सिंह चरखा संघ में शामिल हो गए। चरखा संघ ने उनको रुई खरीदने का काम दिया। उन दिनों चरखा संघ मिल से रुई खरीदता था। ज्यादातर कानपुर के मिल से। चरखा संघ के सामने एक सुझाव आया कि क्यों न सीधे किसानों से रुई की खरीद की जाए। किशोरी प्रसन्न सिंह ने बिहार के रुई उपजाने वाले कई इलाकों में घूमने के बाद दलसिंह सराय के सिसईगढ़ नामक गाँव में रुई खरीद केंद्र बनाना निश्चित किया। किशोरी प्रसन्न चरखा संघ का भी काम करते और कांग्रेस में भी सक्रिय रहते। इसी बीच इन्होंने शादी कर ली। इनकी पत्नी सुनीति भी इनके साथ सक्रिय हो गईं।
नमक आंदोलन शुरू हुआ तो किशोरी प्रसन्न सिंह वैशाली जिले में काफी सक्रिय थे। कई इलाकों में इन्होंने नौजवानों का दल भी खड़ा कर दिया था। इसी बीच कांग्रेस नेतृत्व का यह आम आदेश हुआ कि जहाँ-जहाँ सम्भव हो टैक्स देना भी बंद किया जाए। मुजफ्फरपुर जिला कमिटी ने इलाका चुनने की जिम्मेदारी किशोरी प्रसन्न सिंह को दी। इन्होंने वैशाली जिला का बिदुपुर इलाका चुना। इस आंदोलन का नेतृत्व किशोरी प्रसन्न सिंह और उनकी पत्नी सुनीति ने किया। चौकीदारी टैक्स के खिलाफ यह आंदोलन पूरे इलाके में फैल गया। गाँव-गाँव पंचायते बनाई गईं। स्वयंसेवक भर्ती किये गए। चौकीदारी न देने पर सम्पति जब्त करने का कानून था। लोगों ने लगान देने से इनकार कर दिया। किशोरी प्रसन्न सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी गिरफ्तारी के बाद उनकी पत्नी सुनीति ने मोर्चा संभाला। गाँव मे फौज उतार दी गयी। लोगों के घर तोड़ दिये गए। चौखट दरवाजे उखाड़ गए। तम्बाकू और केले की खेती को बर्बाद कर दिया गया। सब हुआ पर चौकीदारी नहीं मिला। सुनीति भी गिरफ्तार कर ली गईं। फौज से टकराकर गिरफ्तार होने वाली सुनीति पहली महिला थी। इस आंदोलन ने जनता में एक नई साहस और ऊर्जा का संचार किया। इस आंदोलन ने महिला पुरुष के भेद को तो कम किया ही इसने जातीय दीवार भी तोड़ी। गाँधी-इरविन समझौते के बाद सभी सत्याग्रही जेल से बाहर आये। गाँधी जी ने राजेन्द्र प्रसाद को लिखा कि सुनीति को उनके पास भेज दे। लेकिन टी.बी की बीमारी की वजह से वह जा न सकी।
रुपया चोरी, भगत सिंह और बैकुंठ शुक्ल
कलकत्ता से लौटने के बाद किशोरी प्रसन्न चरखा संघ में शामिल हो गए थे। दलसिंहसराय के सिसईगढ़ गाँव में रुई खरीद का केंद्र बनाया और वहीं रहकर संघ का काम करने लगे। रुई खरीदना, कतवाना सारा हिसाब किताब किशोरी प्रसन्न ही रखते थे। इनका योगेंद्र शुक्ल से संपर्क हो चुका था। सरदार भगत सिंह जब कलकत्ता जा रहे थे तो योगेंद्र शुक्ल के साथ सिसईगढ़ गाँव भी गए थे। इनलोगों ने किशोरी प्रसन्न सिंह से कुछ रुपये मांगे। किशोरी प्रसन्न सिंह ने रुपये दे दिए लेकिन जब हिसाब मिलाया तो साढ़े तेरह रुपये कम पड़ गए। इस रुपये को उन्होंने जहाँ-तहाँ खर्च में दिखा दिया पर उनके मन में ये बात चलने लगी कि उन्होंने रुपये की चोरी की है। उन दिनों हरिजन में गाँधी जी का लेख छपता था। गाँधी जी ने लिखा कि “अगर स्वयं से कोई गलती हो जाये तो उसको अपने दोस्तों से शेयर करो। शेयर कर दोगे तो तुमसे गलती नहीं हुई।”
बैकुंठ शुक्ल लालगंज के मथुरापुर गाँव में प्राइमरी स्कूल के मास्टर थे। नमक सत्याग्रह की तैयारी के दरम्यान किशोरी प्रसन्न सिंह से उनकी मुलाकात हुई थी। किशोरी प्रसन्न और सुनीति जी से प्रभावित हो कर वह भी आंदोलन में सक्रिय हो गए।
असेम्बली बम कांड के बाद भगत सिंह जेल में थे, लेकिन बाहर उनकी ख्याति बढ़ रही थी। जिसका असर लाहौर कांग्रेस पर भी था। किशोरी प्रसन्न सिंह जब लाहौर कांग्रेस में थे वहाँ एक पंजाबी गीत गाया जाता था “ भगत सिंह तुम हँस-हँस फांसी चढ़ना, इज्जत रहने देना।” 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दे दी गई। देश भर में दुःख और गुस्से का माहौल था।
किशोरी प्रसन्न सिंह पहले ही कई क्रांतिकारियों के संपर्क में आ चुके थे। जिस फणीन्द्र नाथ घोष ने भगत सिंह और उनके साथियो के खिलाफ गवाही दी थी वह बिहार बेतिया का रहने वाला था। पंजाब के साथियो ने बिहार के साथियो को संदेश देकर पूछा कि बिहार पर जो कलंक है उसे धोओगे या ढोओगे। हाजीपुर स्टेशन के समीप ही आश्रम (गाँधी आश्रम) में मीटिंग हुई। फणीन्द्र घोष को मारना तय हुआ। सुनीति जी ने इस काम को अंजाम देने की इच्छा जाहिर की। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी अक्षयवट राय इस पर तैयार नहीं हुए। अक्षयवट राय का कहना था कि सुनीति बहन हमारे बीच अकेली महिला हैं। संगठन के लिए उनका रहना जरूरी है। अब नाम की गोटी फेंकी गई। उसमें बैकुंठ शुक्ल का नाम आया। बैकुंठ शुक्ल ने चन्द्रमा सिंह के साथ मिलकर बिहार के कलंक को धो दिया। किसी परिचित की मुखबिरी के कारण बैकुंठ शुक्ल पकड़े गए। उनको फांसी की सजा हुई। किशोरी प्रसन्न सिंह और सुनीति जी जब गया जेल में उनसे मिलने गए तो किसी बात पर किशोरी प्रसन्न सिंह थोड़े भावुक हो गए तो बैकुंठ शुक्ल ने कहा- “ऐसे मत करिए, आपको तो ख़ुश होना चाहिये कि आपका भाई अपना कर्तव्य पूरा कर वहाँ जाने की तैयारी कर रहा है जहाँ एक दिन सबको जाना है।” बैकुंठ शुक्ल ने दो पंक्ति कही जो कभी काकोरी के शहीदों ने कहा था:
“सूख न जाये पौधा आजादी का,
इसलिए अपने खून से इसे तर करते हैं।”
नारायण से रिश्ते और कॉम्युनिस्ट पार्टी
किशोरी प्रसन्न सिंह का जयप्रकाश नारायण से बहुत ही नजदीकी रिश्ता रहा। जयप्रकाश नारायण के साथ लम्बे समय तक काम किया। हालाँकि बाद में दोनों के रास्ते अलग हो गए फिर भी रिश्ता बना रहा। जयप्रकाश नारायण से उनकी प्रत्यक्ष मुलाकात 1931 में हुई। लेकिन इससे पहले ही उनकी पत्नी सुनीति का संपर्क प्रभावती जी से हो चुका था। 1936 में सुनीति जी का देहांत टी. बी के कारण हो गया। जयप्रकाश जी मीनू मसानी के साथ हाजीपुर आये और किशोरी प्रसन्न सिंह को राजगीर ले गए ताकि उनका मन कुछ हल्का हो। राजगीर प्रवास के दौरान मीनू मसानी लकड़ी तथा गोइठा का इंतजाम करते, गंगाशरण सिंह आटे की लोइया करते और जयप्रकाश नारायण लिट्टी सेंकते।
1931 के अप्रैल महीने में उग्र विचार वालों ने जयप्रकाश जी के नेतृत्व में बिहार सोशलिस्ट पार्टी बनाई तो उस मीटिंग में किशोरों प्रसन्न सिंह भी मौजूद थे। इसकी पहली बैठक पटना के बाकरगंज मुहल्ले में हुई थी। इस बैठक में जयप्रकाश नारायण, रामवृक्ष बेनीपुरी, अब्दुल बारी, अम्बिका कांत सिंह, श्यामनंदन सिंह, फूलन प्रसाद वर्मा, गंगाशरण सिंह, अवधेश्वर प्रसाद सिंह सहित कई लोग मौजूद थे। इसके बाद किशोरी प्रसन्न सिंह जयप्रकाश नारायण के साथ सक्रिय हो गए। 1934 में जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनी तो यह पार्टी ही बिहार शाखा में परिणत हो गई। 1935 में किशोरी प्रसन्न सिंह बिहार सोशलिस्ट पार्टी के महामंत्री बने। जयप्रकाश नारायण ने उन्हें दो किताबें पढ़ने को दी थी। ‛हैंडबुक ऑफ मर्क्सिज्म’ और ‛थियोरेटिकल सिस्टम ऑफ कार्लमार्क्स।’ इन दोनों किताबों को पढ़कर किशोरी जी बहुत प्रभावित हुए। जयप्रकाश जी यह भी चाहते थे कि किशोरी प्रसन्न बम्बई में पी.सी.जोशी के साथ रहकर पार्टी-संगठन का काम सिख ले। पर किशोरी जी बम्बई नहीं जा सके।
किशोरी प्रसन्न सिंह मार्क्सवाद से परिचित हो चुके थे। कम्युनिस्टों से भी उनका संपर्क पहले से था। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनने के बाद यह संपर्क-संबंध और मजबूत हुआ। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और किसान सभा ने मिलकर काम करना शुरू किया तो इनका संपर्क स्वामी सहजानंद सरस्वती से भी हुआ। 1938 में सोनपुर में एक राजनीतिक ग्रीष्म विद्यालय (समर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स) का आयोजन किया गया। इसकी अवधि एक महीने से ज्यादा की थी। कुल 224 समाजवादी कार्यकर्ता विद्यार्थी थे। विद्यालय का उद्देश्य कार्यकर्ताओं को मार्क्सवादी पद्धति से लैस करना था। जयप्रकाश जी इसके प्राचार्य थे और संचालन तथा खर्च जुटाने की जिम्मेदारी किशोरी प्रसन्न सिंह की थी। कॉम्युनिस्ट नेता शिवबचन सिंह इसके आयोजकों में थे। अध्यापक के रूप में इसमें आचार्य नरेन्द्रदेव, राममनोहर लोहिया, जेड.ए.अहमद, स्वामी सहजानंद सरस्वती, सज्जाद जहीर, दिनकर मेहता, मुकुटबिहारी लाल आदि शामिल थे। विशेष रूप से भाग लेनेवालों में मीनू मसानी, नंबूदरीपाद, अशोक मेहता, विश्वनाथ मुखर्जी, कमला देवी चट्टोपाध्याय, फरीद अंसारी आदि थे। विद्यार्थियों में पूर्णिया के नक्षत्र मालाकार और सरदार बलवंत सिंह, चम्पारण के केदारमणि शुक्ल और उमाशंकर शुक्ल, गया के सहदेव शर्मा, राधामोहन, मलयकृष्ण ब्रह्मचारी और बिगेश्वर मिश्र, मुंगेर के योगेन्द्र शर्मा और दयानंद झा, सारण के पशुपति सिंह, मंजर रिजवी, रामदुलारी देवी और कल्याणी देवी, मुजफ्फरपुर के विसुनदेव यादव तथा प्रसिद्ध कवि बाबा नागार्जुन, कर्पूरी ठाकुर आदि का नाम उलेखनीय है। ग्रीष्मकालीन विद्यालय में हाजरा बेगम की भी सभा हुई थी।
किशोरी प्रसन्न सिंह जब गिरफ्तार होकर हजारीबाग जेल पहुँचे तो उन्हें जिस वार्ड में रखा गया उसमें पहले से ही कॉ. सुनील मुखर्जी, रतन राय, विश्वनाथ माथुर, अली अशरफ, कार्यानंद शर्मा, विनोद मुखर्जी, योगेंद्र शुक्ल, चंद्रमा सिंह, चंद्रशेखर सिंह, राहुल सांकृत्यायन आदि मौजूद थे। पटना में रहते हुए सुनील मुखर्जी से उनका विशेष लगाव हो गया था। सुनील मुखर्जी अक्सर उन्हें कॉम्युनिस्ट पार्टी की पत्र-पत्रिकाएं पहुँचा दिया करते थे। जेल में रहते हुए पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ। सुनील मुखर्जी ने उन्हें कई सारी किताबें पढ़ने को दी। उन्हीं में एक किताब थी ‘लेनिनवाद की समस्याएं’ जिसे स्तालिन ने लिखा था। इस किताब से वो बहुत प्रभावित हुए। आंदोलन की सफलता के लिए सैद्धांतिक रूप से मजबूत होना जरूरी है। किशोरी प्रसन्न सिंह लगातार संघर्षों में शामिल तो रहे लेकिन सिद्धान्त पर उनकी पकड़ न थी। इस किताब को पढ़ने के बाद उन्हें लगा ‘व्यवहार के बगैर सिद्धान्त व्यर्थ है और सिद्धान्त के बगैर व्यवहार’ अंधेरे में टटोलना है। कुछ दिनों बाद इन सबों को देवली कैंप जेल भेज दिया गया। यहीं पर किशोरी प्रसन्न सिंह कॉम्युनिस्ट पार्टी में दाखिल हुए और आजीवन कॉम्युनिस्ट बने रहे।
-जयप्रकाश (लेखक युवा संस्कृतिकर्मी हैं और विचार उनके निजी हैं)
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