जातीय नहीं वर्गीय मुद्दों के कारण उमड़ रही है तेजस्वी यादव की सभा में भीड़

जातीय नहीं वर्गीय मुद्दों के कारण उमड़ रही है तेजस्वी यादव की सभा में भीड़

तेजस्वी यादव की सभाओं में उमड़ती भीड़ देशभर के चुना व विश्लेषकों के लिए पहेली बना हुआ है। आखिर जिस पार्टी की जाति आधारित राजनीति से बिहार तबाह हुआ बताया जाता रहा है, उसी पार्टी की सभाओं में जनता इतने उत्साह से क्यों चली जा रही है ? ‘बिहार में तो वोट जाति पर होता है।’ इस मिथक को पिछले कई दशकों से दुहराने वाले राजनीतिक विश्लेषकों को समझ ही नहीं आ रहा है कि ‘जाति’ के बदले ‘विकास’ की बात करने वाले नीतीश कुमार और सुशील कुमार मोदी की जोड़ी के माथे पर पसीना क्यों बह रहा है?

दरअसल, बिहार अब ‘जाति’ की राजनीति से ‘वर्ग’ की राजनीति की ओर, कास्ट से क्लास की ओर मुड़ चुका है जबकि राजनीतिक विश्लेषक अभी भी 1990 के फ्रेम से ही बिहार को देखने का प्रयास कर रहा हैं। जाहिर है नए बदले यथार्थ के साथ वे तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं। वर्ग का सवाल, पॉलिटिकल इकॉनॉमी का सवाल अब बिहार में केंद्रीय सवाल बनता जा रहा है। कोरोना संकट तथा वामपंथ के जुड़ाव ने इस परिघटना को जन्म देने में निर्णायक भूमिका निभाई है।

बिहार विधानसभा चुनाव का अब दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गया है। नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एन.डी.ए गठबंधन को जब महागठबंधन से खतरा महसूस होने लगा तब उन्होंने, अपने 15 वर्षों के कार्यकाल को छोड़कर, लालू-राबड़ी सरकार के 15 वर्षों का भय दिखाना शुरू कर दिया है। तेजस्वी यादव, कन्हैया कुमार और दीपंकर भट्टाचार्य की सभाओं में उमड़ती भीड़ ने भाजपा-जद (यू) गठबंधन के होश फाख्ता कर दिए हैं। प्रधानमंत्री ने तेजस्वी यादव को लक्ष्य कर‘जंगल राज के युवराज’ की संज्ञा दी। वहीं नड्डा सहित अन्य भाजपा नेतागण वामपंथी दलों पर हमले कर रहे हैं। सबसे विचित्र बात तो यह है कि जो नीतीश कुमार बिहार में निरंतर विकास का ढिंढोरा पीटने में मशगूल रहा करते थे आज वही अब विकास की उपलब्धियों से अधिक दुहाई 1990 से 2005 के जंगलराज की देने लगे हैं। मंचों से ये बात बार-बार दुहराई जा रही है कि महागंठबधन को वोट देने का मतलब है बिहार में फिर से ‘अशांति’ व ‘अराजकता’ के माहौल की पुनर्ववापसी।

आज बिहार में बरोजगार सर्वत्र मुद्दा छा गया हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के अन्य नेताओं द्वारा राममंदिर, धारा 370, तीन तलाक के मुद्दों को लगातार उठाए जाने के बाद भी जनता रोजगार छोड़ दूसरी बात कोई नहीं सुनना चाहती? यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि महागठबंधन के नेताओं की सभाओं में विशाल भीड़ और राजग गठबंधन के नेताओं को भीड़ जुटाने के लिए काफी मशक्कत करना, आखिर किस बात का संकेत है?

चुनाव आयोग प्रारंभ में , कोरोना के खतरे को देखते हुए, चुनाव प्रचार के लिए सभाएं आयोजित करने के पक्ष में नहीं था लेकिन विपक्षी दलों के दबाववश चुनावी सभा की इजाजत , कुछ शर्तों के साथ देनी पड़ी। चुनावी सभाओं की इजाजत मिलना महागठबंधन के पक्ष में हवा बनाने का प्रधान माध्यम बन गया। भारतीय जनता पार्टी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ये सभाएं उसका खेल बिगाड़ कर रख देगी। इन सभाओं में उत्साह के साथ आती जनता को ध्यान में रखकर महागठबंधन ने समयानुकूल वादों किये। 10 लाख सरकारी नौकरी, विधवा पेंशन 800 से 1000 किया जाना, नियोजित शिक्षकों को स्थाईकरण, समान काम का समान वेतन, कृषि ऋण की माफी का वादा किया ऐसे ही कदम थे। इसके साथ ही पढ़ाई, दवाई, सिंचाई और महंगाई के नारे को उछाला। आम लोगों ने इन नारों को, जिस ढ़ंग से, हाथो-हाथ लिया है उसका , एन.डी.ए नेताओं को छोड़ दें, किसी को भी यह अनुमान न था कि मात्र 20-25 दिनों के अंदर माहौल इस कदर महागठबंधन के पक्ष में बदलने लगेगा।

एक प्रमुख प्रश्न उभर कर यह आ रहा है कि नीतीश कुमार और भाजपा के नेतागण बिहार में निरंतर विकास की बात किया करते थे उसने 15 सालों के विकास के बावजूद रोजगार क्यों नहीं पैदा किया?

दरअसल, बिहार में विकास के जिस मॉडल का लागू किया गया या दूसरे शब्दों में कहें नवउदारवादी दौर में नीतीश कुमार के पास विकास के जिस स्वरूप को आगे ले चलने का विकल्प मौजूद था, उसमें एक ऐसा विकास हुआ जिसमें रोजगार पैदा ही नहीं होता था। वामंपथी अर्थशास्त्रियों ने काफी पहले से ही आगाह देना शुरू कर दिया था कि अब ऐसा विकास हो रहा है जिसमें रोजगार तो नहीं ही पैदा होता बल्कि जो भी रहा-सहा रोजगार बचा रहता है उसका भी नुकसान होने लगता है। ‘जॉबलेस ग्रोथ’ के बदले ‘जॉब लॉस ग्रोथ’ की ओर बढ़ चुका है विकास का वर्तमान मॉडल। बिहार में सड़कें, पुल-पुलिया सहित आधारभूत संरचना के विकास संबंधी जो प्रगति हुई उससे समाज के बहुत छोटे से हिस्सों को ही फायदा हुआ। कोई ऐसा कदम जिससे समाज के बहुमत हिस्सों को फायदा पहुंचता, उनकी रोजी-रोटी की व्यवस्था होती ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया। भूमि सुधार हेतु ,चाहे खुद द्वारा कायम किए गए, डी. बंद्योपाध्याय की सिफारिशें हो, या अनिल सदगोपाल और मुचकुंद दुबे के नेतृत्व में गठित कॉमन स्कूल सिस्टम को लागू करने का सवाल हो या स्कूलों-कॉलेजों में रिक्त पदों की बहाली का मामला। नीतीश कुमार ने ऐसे कोई कदम नहीं उठाया क्योंकि इससे एक ओर ग्रामीण स्तर पर सामंती ताकतों के बिगड़ जाने का खतरा था तो दूसरी ओर वित्तीय अनुशासन का पालन करने वाली नवउदारवादी दौर के पूंजीवादी आर्थिक दर्शन के पैरोकारों के नाराज हो जाने का खतरा था। नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला एन.डी.ए गठबंधन इन दोनों शक्तियों के खिलाफ जाने का खतरा नहीं मोल लेना चाहते थे। लिहाजा आम जनता को राहत पहुंचाने की उनके विकल्प तथा इच्छाशक्ति, दोनों लगभग समाप्त होती चली गई। नीतीश कुमार दरअसल उन्हीं नीतियों को लागू करने पर मजबूर हुए जिसकी हिंदुस्तान में सबसे अधिक पैरोकारी भाजपा के नेतागण किया करते थे। ये लोग बिना रोजगार पैदा किए विकास के मॉडल को आगे बढ़ाने की बात किया करते थे। नीतीश कुमार लगभग 15 सालों तक उन रास्तों पर चलते रहे जिसे कोराना संकट ने एक अंधी गली में पहुंचा दिया।

बिहार का चुनाव नीतीश कुमार के खिलाफ तो है ही यह सबसे बढ़कर विकास के उस मॉडल के भी खिलाफ है जो रोजी-रोटी का इंतजाम नहीं करता। यह मॉडल पचास के दशक के पूजीवादी अर्थशास्त्रियों के उसी ‘ट्रिकल डाउन पॉलिसी’का नया रूप है जो कहा करती थी कि ऊपरी तबकों का जब विकास होगा तो रिस-रिसकर उसका हिस्सा गरीबों तक भी पहुंचेगा।

लेकिन बिहार की जनता विकास के इस मॉडल को अब स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखती। आखिर नीतीश कुमार जिन रास्तों पर चल रहे थे उस पर भारत में कई राज्यों की सरकारें चल रही थी लेकिन वो बहुत जल्द अलोकप्रिय होकर सत्ता से बाहर हो गई थी। नीतीश कुमार ने विकास के रोजगारविरोधी मॉडल को वैधता दिलाई खुद के द्वारा इजाद किए गए अपने अनूठे सामाजिक समीकरण से। नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ों को 20 प्रतिशत, महिलाओं को पांचायत में 50 प्रतिशत आरक्षण, दलितों में महादलितों तथा मुसलमानों में पसमांदा की श्रेणी बनाकर अपना एक अलहदा सामाजिक आधार तैयार किया। आरक्षण को आधार बनाकर तैयार किया गया यह सामाजिक समीकरण विकास के रोजगारविरोधी मॉडल को लगभग डेढ़ दशक तक थामकर एक संतुलन बनाए रखा। लेकिन कोरोना संकट ने इस संतुलन को भंग कर दिया। नीतीश कुमार दरअसल लालू प्रसाद के बनाए हुए तौर-तरीकों को ही आगे बढ़ा रहे थे। लालू प्रसाद ने पिछड़े-दलितों की एकता तो बनाई थी लेकिन उसका कोई ठोस भौतिक आधार न तैयार किया लिहाजा वो एक सीमा के बाद यानी 15 सालों के बाद ठहर गया था। लालू प्रसाद को संपत्ति के पारंपरिक ढांचे से न टकराने की कीमत चुकानी पड़ी थी।

नीतीश कुमार ने विकास के उसी राजनीतिक अर्थशास्त्र पर चलते रहे जो लालू प्रसाद के वक्त व्यवहार में लाया जा रहा था। उन्होंने आरक्षण के ढ़ांचे का विस्तार कर अपने लिए सामाजिक समर्थन जुटाया। लेकिन अर्थव्यवस्था में वही तौर-तरीका चलता रहा। हाँ लालू प्रसाद यादव के जमाने में जो तरीका अधिक क्रूर व प्रकट ढंग से होता था उसका स्थान थोड़े परिष्कृत लेकिन व्यापक पैमाने पर होने लगा। अर्थशास्त्र की भाषा में जिसे ‘पूंजी का आदिम संचय’ कहा जाता है वही चलता रहा। भ्र्ष्टाचार इसका स्वाभाविक परिणाम था। पूंजीवाद के विकास के अपने प्रारंभिक चरणों से ही ‘पूंजी का आदिम संचय’अविभाज्य रूप से चलता रहा है। कार्ल मार्क्स ने अपनी विश्वविख्यात कृति ‘पूंजी’ के पहले खंड में इस रक्तरंजित प्रक्रिया पर विस्तार से रौशनी डाली है।

लेकिन अंततः अर्थशास्त्र के कटु सवालों को अपने नंगे स्वरूप में प्रकट होना ही पड़ता। क्या विडंबना है कि भारत में नवउदारवादी आर्थिक दर्शन और आरक्षण दोनों लगभग साथ-साथ यह कहें कि आरक्षण समर्थक पार्टियों ने उन जनता पर कहर बनकर टूटने वाली नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को वैधता प्रदान करने का जो काम नब्बे के दशक में केंद्रीय स्तर पर किया गया राज्य पर स्तर पर नीतीश कुमार ने वही कार्य किया। लेकिन जैसा कि हम सभी जानते हैं कि राजनीति के सवाल अंततः अर्थनीति के सवाल होते हैं। जनविरोधी आर्थिक प्रश्नों को कब तक जातीय समीकरणों के सहारे टेक लगाकार रोका जाता।

यह अकारण नहीं है कि तेजस्वी यादव की पार्टी राजद ने अपने इतिहास में पहली दफा रोजगार, वेतन बढ़ोतरी, ठेका प्रथा के बदले स्थाई नौकरी सरीखे आर्थिक सवालों को केंद्र में रखा। उसी वक्त उसने खुद अपने दल के जातिवादी रूझान वाले तत्वों तथा जातवादी पार्टियों से भी छुटकारा प्राप्त कर लिया। बिहार के चर्चित शिक्षाविद् अनिल कुमार राय ने अपने फेसबुक पोस्ट में यूं नहीं लिखा है- ‘‘जिस राजद पर जातिवादी दल होने का आरोप लगाया जाता रहा है, उसने अपने गठबंधन में ‘हम’, वी.आई.पी, रालोसपा आदि जातीय दलों से किनारा कर लिया। लेकिन एन.डी.ए ने उन्हें अपने यहां जगह दी। इस तरह राजद ने तो जातीयता का दाग धो दिया लेकिन एन.डी.ए ने अपनी सांप्रदायिकता के ऊपर जातीयता का कचरा डाल दिया। सांप्रदायिकता व जातीयता से उबे हुए लोगों के बीच यह एक संदेश की तरह गया।’’

राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने ‘जाति’ के बदले वर्गीय सवालों को प्रमुखता दी। यही राजद के पक्ष में लोगों की उमड़ती भीड़ का मुख्यकारण वर्तमान व्यवस्था से वंचित, सभी जातियों-समुदायों के लोगों, का वर्ग है जो एक उम्मीद से उसकी ओर देख रहा है।

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