युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की आठ कविताएँ

युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की आठ कविताएँ

युवा कवि गोलेन्द्र पटेल कविता के साथ-साथ नवगीत, कहानी, निबंध और नाटक जैसी विधाओं से भी जुड़े रहे हैं। लंबे समय से इनकी रचनाएँ ‘प्राची’, ‘बहुमत’, ‘आजकल’, ‘साखी’, ‘वागर्थ’, ‘काव्य प्रहर’, ‘जन-आकांक्षा’, ‘समकालीन त्रिवेणी’, ‘पाखी’, ‘सबलोग’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होती रही हैं। इन्हें अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक विश्वविद्यालय की ओर से ‘प्रथम सुब्रह्मण्यम भारती युवा कविता सम्मान-2021’, ‘रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार-2022’ तथा दूसरे साहित्यिक संस्थाओं से प्रेरणा प्रशस्तिपत्र प्राप्त हुए हैं।


जोंक

रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान;
तब रक्त चूसती हैं जोंक!
चूहे फसल नहीं चरते
फसल चरते हैं
साँड और नीलगाय…..
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!
टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!
प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!
अंत में अक्सर ही
कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!
इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!

थ्रेसर

थ्रेसर में कटा मजदूर का दायाँ हाथ
देखकर
ट्रैक्टर का मालिक मौन है
और अन्यात्मा दुखी
उसके साथियों की संवेदना समझा रही है
किसान को
कि रक्त तो भूसा सोख गया है
किंतु गेहूँ में हड्डियों के बुरादे और माँस के लोथड़े
साफ दिखाई दे रहे हैं

कराहता हुआ मन कुछ कहे
तो बुरा मत मानना
बातों के बोझ से दबा दिमाग
बोलता है और बोल रहा है
न तर्क, न तत्थ
सिर्फ भावना है
दो के संवादों के बीच का सेतु
सत्य के सागर में
नौकाविहार करना कठिन है
किंतु हम कर रहे हैं
थ्रेसर पर पुनः चढ़कर

बुजुर्ग कहते हैं
कि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है
तो फिर कुछ लोग रोटी से खेलते क्यों हैं
क्या उनके नाम भी रोटी पर लिखे होते हैं
जो हलक में उतरने से पहले ही छिन लेते हैं
खेलने के लिए

बताओ न दिल्ली के दादा
गेहूँ की कटाई कब दोगे?

उम्मीद की उपज

उठो वत्स!
भोर से ही
जिंदगी का बोझ ढोना
किसान होने की पहली शर्त है
धान उगा
प्राण उगा
मुस्कान उगी
पहचान उगी
और उग रही
उम्मीद की किरण
सुबह सुबह
हमारे छोटे हो रहे
खेत से….!

बारिश के मौसम में ओस नहीं आंसू गिरता है

एक किसान
बारिश में
बाएं हाथ में छाता थामे
दाएं में लाठी लिए
मौन जा रहा था मेंड़ पर
मेंड़ बिछलहर थी
लड़खड़ाते-संभलते
अंततः गिरते ही देखा एक शब्द
घास पर पड़ा है
उसने उठाया
और पीछे खड़े कवि को दे दिया
कवि ने शब्द लेकर कविता दी
और उस कविता को
एक आलोचक को थमा दिया

आलोचक ने उसे कहानी कहकर
पुनः किसान के पास पहुँचा दिया
उसने कहानी एक आचार्य को दी
आचार्य ने निबंध कहकर वापस लौटा दिया

अंत में उसने वह निबंध एक नेता को दिया
नेता ने भाषण समझ कर जनता के बीच दिया

जनता रो रही है
किसान समझ गया
यह आकाश से गिरा
पूर्वजों का आँसू है
जो कभी इसी मेंड़ पर
भूख से तड़प कर मरे हैं
बारिश के मौसम में ओस नहीं
आंसू गिरता है!

गड़ेरिया

(1)
एक गड़ेरिये के
इशारे पर
खेत की फ़सलें
चर रही हैं
भेड़ें
भेड़ों के साथ

मेंड़ पर
वह भयभीत है
पर उसकी आँखें खुली ताक रही हैं
दूर
बहुत दूर
दिल्ली की ओर

(2)
घर पर बैठे
खेतिहर के मन में
एक ही प्रश्न है
इस बार क्या होगा?

हर वर्ष
मेरी मचान उड़ जाती है
आँधियों में
बिजूकों का पता नहीं चलता
और
मेरे हिस्से का हर्ष
नहीं रहता
मेरे हृदय में
क्या
इसलिए कि मैं हलधर हूँ

(3)
भेड़ हाँकना आसान नहीं है
हलधर
हीरे हिर्य होरना
बाँ..बाँ..बायें…दायें
चिल्लाते क्यों हो
तुम्हारे नाधे
बैलें
समझदार हैं

(4)
मेरी भेड़ें भूल जाती हैं
अपनी राह
मैं हाँक रहा हूँ
सही दिशा में
मुझे चलने दो
गुरु
मैं गड़ेरिया हूँ
भारत का!

रोपनहारिन माँ

(1)
जब आकाश से गिरते हैं
पूर्वजों के संचित आँसू
तब खेतिहर करते हैं मजबूत
अपनी मेंड़

मेंड़ तो मजबूत नहीं हुई
पर फरसी-फरसा लाठी-लाठा झोटी-झोटा मारी-मारा उठा-पटक….
अंत में थाने!

(2)
रोपनी के समय
रोटी के लिए
संडा जब कबारते हैं मजदूर
तब रक्त चूसती हैं – जोंक

दोहरे दोहित दलित दुबली पतली देह थककर
विश्राम जब करती हैं बिस्तरे पर
तब शेष शोणित – खटमल

(3)
मेंड़ पर सोए शिशु को च्यूँटे काट रहे हैं
चीख सुन रहे हैं मालिक मौन
उन्हें क्या फर्क पड़ता है कि वह कौन है?
मजदूरनी माँ कहती है शांत रह लल्ला
अभी एक पैड़ा और बचा है
रोप लेने दे

बच्चे के पास पहुंचा तो देखा
एक दोडहा, दो तीन बिच्छुएँ और एक केकड़ा थोड़ी दूरी पर हैं

पैर में काट लिया है बर्र
मैं शिशु को घिंनाते-घिंनाते उठाया
क्योंकि वह अपने मल-मूत्र से तरबतर था

तुरंत बर्रों के मंत्रों का पाठ किया
फिर अपनी चाची को बुलाया-
बिच्छू झाड़ी-फूँकी
चमरौटी से बुलाया बुढ़ऊ दादा को
जो दोडहा झाड़े-फूँके
वे हर तरह के किरा झारते हैं
जैसे-साँप, करइत, गूँगी व दोडहा इत्यादि

बिच्छू-दोडहा तो तसल्ली के लिए झाड़ा गया
गाँव में सभी को पता है कि मैं कुछ मंत्र जानता हूँ
जैसे-बर्र, भभतुआ, थनइल, नज़र व रेघनी इत्यादि
सीखा तो बिच्छू-साँप का भी था
पर उसे तभी भूल गया जब विज्ञान का विद्यार्थी था
जो स्मृतियों में जीवित हैं उसे भी भूल गया हूँ
ऐसा कहता हूँ सभी से

मंत्रों से आँखें कचकचाई हैं
होठों की हँसी हृदय में हर्ष से हहराई है
फूँकने पर केश लहराएँ हैं
कर्षित कली की मेंड़ पर

आज मुझे लग रहा है मंत्र सीखना सार्थक रहा
हे समय!
इस महामारी में मंत्र से मेडिकल तक की यात्रा जारी है
पर यह यात्रा कब रुकेगी?

लकड़हारिन (बचपन से बुढ़ापे तक बाँस)

तवा तटस्थ है चूल्हा उदास
पटरियों पर बिखर गया है भात
कूड़ादान में रोती है रोटी
भूख नोचती है आँत
पेट ताक रहा है गैर का पैर

खैर जनतंत्र के जंगल में
एक लड़की बिन रही है लकड़ी
जहाँ अक्सर भूखे होते हैं
हिंसक और खूँखार जानवर
यहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी

हवा तेज चलती है
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
जिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजर
जरा सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूह
हाथ से जब जब उठाती है वह लड़की लकड़ी
मैं डर जाता हूँ…!

मूर्तिकारिन

राजमंदिरों के महात्माओं
मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ

समय की छेनी-हथौड़ी से
स्वयं को गढ़ रही हूँ

चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!

सूरज को लगा है गरहन
लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं

चारो ओर अंधेरा है
कहर रहे हैं हर शहर

समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव
दीये बुझ रहे हैं तेजी से
मणि निगल रहे हैं साँप

और आम चीख चली-
दिल्ली!

-गोलेन्द्र पटेल


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