शव हाद के धुएं और बदबू से लोगों का इलाके में रहना मुहाल, घर-बार छोड़ने की तैयारी

शव हाद के धुएं और बदबू से लोगों का इलाके में रहना मुहाल, घर-बार छोड़ने की तैयारी

पश्चिम दिल्ली के शहीद भगत सिंह कैंप में हर दिन सैकड़ों शवों का अंतिम संस्कार किया जा रहा है जिसके चलते इसके के लोग इलाका छोड़ने की तैयारी कर रहे हैं। लोगों का कहना है कि श्मशान घाट पर बड़े स्तर पर शवों का अंतिम संस्कार हो रहा है जिसके चलते धुआं छा जाता है और लाशों की बदबू आने लगा है। इसलिए वहां के लोग अपने घर-बार छोड़कर गांव वापस जाने की तैयारी कर रहे हैं।

झुग्गी कॉलोनी के निवासियों को इससे कोरोना संक्रमण फैलने का भी खतरा सता रहा है। स्थानीय लोगों का कहना है कि कभी भी श्मशान घाट के इतने करीब रहना आसान नहीं था। पहले जहां श्मशान में प्रतिदिन तीन-चार शवों का दाह संस्कार किया जाता था, वहीं अब करीब 200-250 शवों का अंतिम संस्कार किया जा रहा है।

शव हाद के धुएं और बदबू से लोगों का इलाके में रहना मुहाल, घर-बार छोड़ने की तैयारी

सरोज इसी इलाके में रहती हैं और कूड़ा उठाने का काम करती हैं। सरोज कहती हैं कि उनकी आंखें शवों के जलने की गंध से खुलती है और वे रात में इसी स्थिति में सोती हैं। करीब 900 झुग्गियां इस झुग्गी कॉलोनी में हैं, जिनमें 1500 लोग रहते हैं। यह पश्चिम पुरी श्मशान घाट से चंद मीटर की दूरी पर स्थित है।

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38 वर्षीय सरोज ने आगे कहा, “यह बहुत डरावनी स्थिति है। हम एंबुलेंसों को आते-जाते देखते रहते हैं और रात हो या दिन हो, गंध और धुआं लगातार बना रहता है।” उनका कहना है कि यहां रहने वाले लोगों को कोरोना संक्रमण होने का खतरा भी बना रहता है। श्मशान घाट पर 24 घंटे और सातों दिन चिताओं के जलने से न दिमागी सुकून मिलता है और न नींद आती है।

इस स्लम कॉलोनी में 14 अप्रैल की रात को आग लग गई थी। हालांकि, उसमें कोई हताहत तो नहीं हुआ था पर 30 झुग्गियां जल गई थीं। इससे सरोज और उनके पड़ोसी उबरने की कोशिश कर रहे हैं। इस आग में सरोज का आधा घर भी जल गया था। वह और उनका परिवार इस दर्द से उबरने की कोशिश कर ही रहा था कि कोरोना की दूसरी लहर को नियंत्रित करने के लिए लॉकडाउन लगा दिया गया।

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वहीं, सरोज की पड़ोसी ककोली देवी कहती हैं कि करीब 300 शवों का 22 अप्रैल को दाह संस्कार किया गया है। बीते दो दिनों में 200-250 शवों का अंतिम संस्कार किया जा रहा है। हालांकि, इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है।

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ककोली देवी ने बताया, “हमने एक ट्रक किया है और हम यह स्थान छोड़कर (उत्तर प्रदेश के) महराजगंज जिले में स्थित अपने गांव लौट जाएंगे। कम-से-कम हम मौत के हर वक्त के एहसास से तो बच जाएंगे।” उन्होंने आगे कहा, “हर कोई घर में बंद है। हम पंखे भी नहीं चला सकते हैं, क्योंकि हमें डर है कि कहीं हवा से कोरोना वायरस न लग जाए। माहौल खासकर बच्चों के लिए भयावह है।”

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उत्तर प्रदेश और बिहार के कई लोग भी इसके में रहते हैं। ये लोग भी अपने गांव वापस जाने की तैयारी कर रहे हैं। कुछ लोग पहले ही जा चुके हैं। कई निवासियों ने बताया कि पहले इतनी बुरी हालत नहीं थी, क्योंकि पहले अंतिम संस्कार श्मशान घाट के अंतिम छोर पर होता था। लेकिन दिल्ली में कोरोना वायरस के कारण मृतकों की संख्या बढ़ने के पूरे परिसर का इस्तेमाल किया जा रहा है।

उन्होंने कहा कि इसका विरोध जब लोगों ने किया तो अधिकारियों ने बताया कि ऐसा करने का सरकार का आदेश है। सरोज ने बताया कि उनके तीन बच्चों समेत परिवार में सात लो रहते हैं। सभी उत्तर प्रदेश के अपने गांव वापस जाने का मन बना रहे हैं। संक्रमण बढ़ने से उनका कूड़ा उठाने का काम भी छूट गया है। उन्होंने कहा, “कुछ दिन तो हम सिर्फ पानी पीते हैं तो कुछ दिन एनजीओ के जरिए खाना मिल जाता है। स्थिति बहुत डरावनी है।”

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कुछ लोगों का श्मशान घाट के नजदीक रहने के चलते घरेलू सहायिका का काम भी छूट गया है। पश्चिम विहार कॉलोनी में घरेलू सहायिका के तौर पर काम करने वाली 16 वर्षीय एक लड़की ने बताया कि उनके नियोक्ता ने उनसे काम पर नहीं आने को कहा है, क्योंकि वह श्मशान घाट के पास रहती हैं। उन्होंने कहा, “उन्हें डर है कि हम कोरोना वायरस ला सकते हैं। इसलिए हम गांव लौटना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए हमें पैसे खर्च करने पड़ेंगे। हमें गांव जाने के लिए 2,000-2,500 रुपये की आवश्यकता होगी। हम इसे कैसे वहन कर सकते हैं?”

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एक दूसरी 12 वर्षीय लड़की ने बताया कि कुछ के पास अपने गांव लौटने का विकल्प है, लेकिन उसके पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है। उनका परिवार यहां पर दशकों से रह रहा है। पश्चिम विहार में अंशकालिक घरेलू काम करने वाले एक युवक ने कहा, “हम कहां जाएंगे? अगर हम यह छोड़ देते हैं, तो हम क्या कमाएंगे? पहले से ही हमारी कमाई इस कोरोना महामारी में बहुत कम हो गई है।”

सामाजिक कार्यकर्ता विजय कुमार बाल अधिकारों के लिए काम करते हैं। गैर-सरकारी संगठन चाइल्डहुड एनहांसमेंट थ्रू ट्रेनिंग एंड एक्शन (सीएचईएनए) से जुड़े विजय ने कहा कि कई बच्चे मादक पदार्थों के सेवन करते हैं और ये शवों को ले जाने में मदद करने के लिए श्मशान के श्रमिकों द्वारा घसीटे जा रहे हैं। उन्होंने कहा, “उन्हें कोई सुरक्षात्मक उपकरण नहीं दिया जाता और उन्हें पैसे का प्रलोभन दिया जा रहा है- जितने अधिक शवों को वे ले जा रहे हैं, उतना ही अधिक पैसा दिया जाता है। यह उनके लिए बहुत जोखिम भरा है।”

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सीएचईएनए के निदेशक संजय गुप्ता ने इसके दीर्घकालिक प्रभाव को लेकर चिंता जाहिर की है। गुप्ता ने कहा, “पहले से ही कठिन जीवन जी रहे बच्चे, कोविड-19 रोगियों की लाशों को दिन-रात जलाते हुए देख रहे हैं। यह उनकी मानसिक स्वास्थ्य और सोच पर गहरी छाप छोड़ेगा।”

उन्होंने आगे कहा, “इस डर के साथ बच्चों समेत अपने पूरे परिवार के साथ प्रवास के लिए तैयार हैं। क्योंकि समुदाय के लोग भी इस दाह संस्कार प्रक्रिया में शामिल हैं, जो कोरोना फैलाने का एक सक्रिय स्रोत हो सकता है। उन्होंने कहा कि यह लोगों के आगे आने और बच्चों की मदद करने का समय है। सीएचईएनए के निदेशक कहा कि सरकार को शहरों के अंदर लाशों का अंतिम संस्कार करने के बजाय कहीं बाहर सीमावर्ती क्षेत्रों में व्यवस्था करनी चाहिए।


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