क्या चीन का हश्र भी सोवियत संघ जैसा हो जाएगा?

क्या चीन का हश्र भी सोवियत संघ जैसा हो जाएगा?

चीन और अमेरिका को लेकर दुनिया भर में घमासान मचा हुआ है। अमेरिका लगातार चीन को घेरने की रणनीति में जुटा है। पिछले दो तीन दशकों की चीन अभूतपूर्व प्रगति अमेरिका की आंखों में अब खटकने लगी है। ये बात अब जगजाहिर है कि चीन अब अमेरिका से तकनीक के मामले में काफी आगे निकल चुका है। हुवेई कंपनी ने 5 जी तकनीक जो हासिल कर ली वो उसे लगभग एक जेनरेशन के अंतर से चीन को अमेरिका के मुकाबले आगे कर दिया है। इन्हीं वजहों से अमेरिका हर कीमत पर चीन को घेरने, बदनाम करने तथा उसकी बढ़त का किसी भी प्रकार से रोकने का प्रयास कर रहा है। खिसियाहट में वह हुवेई के एक प्रमुख अधिकारी को इन्हीं वजहों से गिरफ्तार भी कर लिया था।

अमेरिका के एक बड़े अधिकारी बेलिंसकी ने चीन को धमकी देते हुए हाल ही में कहा है कि जिस तरह हमने सोवियत संघ को नाभिकीय युद्ध में फंसा कर मिटा दिया था। अब वही हश्र चीन का कर दिया जाएगा। हम सब जानते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात चले दशकों तक चले शीत युद्ध का समापन 1991 में सोवियत संघ के बिखरने सं संपन्न हुआ था। पूरी दुनिया दो शिविरों में बंटी हुई थी। अमेरिका के नेतृत्व में पूंजीवादी शिविर तो सोवियत संघ की नुमाइंदगी में समाजवादी खेमा। सोवियत संघ को पूरी दुनिया में जो सम्मान हासिल था उसके बावजूद अमेरिका से भौतिक और तकनीकि मामले में सोवियत संघ पीछे ही रहा। सोवियत संघ को हमेशा विपरीत परिस्थितियों में काम करना पड़ा। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सबसे अधिक नुकसान भी सोवियत संघ को उठाना पड़ा था। फासीवादी हिटलर की हराने की कीमत सबसे ज्यादा सोवियत संघ को ही चुकानी पड़ी थी। उसके दो करोड़ सत्तर लाख लोग इस युद्ध में मारे गए, एक हजार शहर, सत्तर हजार गाँव नष्ट हो गए तथा उद्योगों का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो चुका था।

लेकिन प्रश्न ये है कि क्या चीन का भी वही नियति होगी जो सोवियत संघ की हुई थी। सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक एजाज अहमद के अनुसार- ‘‘सोवियत संघ, अमेरिका के मुकाबले वो गरीब देश ही रहा। दूसरी बात ये है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जैसा नुकसान वैसा किसी अन्य देश का नहीं हुआ। सोवियत संघ की एक तिहाई आबादी मारी गई। उसका पूरा औद्यौगिक आधार नष्ट हो गया था। सोवियत संघ के पास उतना पैसा नहीं था। लेकिन चीन आज जिस हालात में है वो खर्च करने के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। तकनीकी रूप से भी चीन अमेरिका से काफी आगे जा चुका है।’’

चीन सोवियत संघ से सबक लेते हुए चुपचाप अपना विकास करता रहा। चीन अपने एक प्रमुख नेता देंग श्याओ पिंग के एक कथन से इसे समझा जा सकता है- ‘‘अपनी ताकत को छुपाओ और सही समय का इंतजार करो।’’

शी जिन पिंग के राष्ट्रपति बनने के पश्चात चीन अब अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने लगा है। लेकिन इसे लेकर अमेरिकन मीडिया उसे ‘विस्तारवादी’ कहने लगी है। लेकिन ये बात भी एक तथ्य है कि साउथ चाइना को छोड़ चीन का कोई खास सैन्य अड्डा और कहीं नहीं है। जबकि अमेरिका के पूरी दुनिया में आठ सौ सैन्य अड्डे हैं। और भारत भी उसके सैन्य अड्डे की ओर बढ़ता जा रहा है। अमेरिका ने लगभग 51 देशों पर आर्थिक व राजनयिक प्रतिबंध लगा रखा है। दुनिया के कितने देशों में उसने सत्ता परिवर्तन कराए, नेताओं की हत्या कराई, षड्यंत्र किए, तख्तापलट में शामिल रहा इसकी कोई गिनती नहीं है। लेकिन भारत में सक्रिय अमेरिकन लॉबी के लोग इन काले कारनामों बातों को भूलकर भारत को अमेरिका के साथ जाने की वकालत करते नजर आ रहे हैं।

चीन के खिलाफ अमेरिका दुनिया भर में माहौल बनाकर एक व्यापक गठबंधन बनाना चाहता है। भले इसमें अभी सफल होता नहीं दिख रहा। वहीं चीन में किसी खेमा या ब्लॉक बनाने की मानसिकता अभी नजर नहीं आ रही जैसी कि सोवियत संघ की थी। विश्व राजनैतिक संबंधों में अमेरिका कितना बेईमान रहा है इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है। शीत युद्ध के दौरान दोनों पक्षों के अपने-अपने सैन्य गठबंधन से अमेरिका के नेतृत्व वाला नार्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (नाटो) और समाजवादी खेमे का ‘वार्सा पैक्ट’। हथियारों की होड़ खत्म करने के लिए दोनों ने अपने-अपने सैन्य गठबंधनों को समाप्त करने का फैसला लिया। फैसले के अनुसार, सोवियत संघ ने वार्सा पैक्ट को खत्म कर दिया था लेकिन अमेरिका मुकर गया। जब अमेरिका ने देखा कि वार्सा पैक्ट समाप्त हो चुका है तो उसने कुटिल चाल चलकर ‘नाटो’ को बरकरार रखा।

कई लोग चीन पर ये आरोप लगाते हैं कि उसने तकनीक की चोरी कर अपना विकास किया है। ये बात बिल्कुल तथ्यों पर आधारित नहीं है और थोड़ी हास्यास्पद भी। दरअसल, 5 जी तकनीक में पिछड़ने के कारण इस कदर बौखला चुका है कि अनर्गल आरोप तक लगाने लगा है। चीन ने अपना बाजार खोला और विदेशी कंपनियां उसके यहां आने लगीं। उसी वक्त चीनी सरकार ने उनके सामने ये शर्त रखी थी कि आप चीन में निवेश और उत्पादन तभी कर सकते हैं जब आप उसकी तकनीक हमें हस्तांरित करेंगे। ये उनके बीच का लिखित समझौता था। जबकि भारत जैसे देशों में जो कंपनियां आई उन पर यहां की सरकार ने ऐसी कोई शर्त नहीं रखी। दरअसल, इसकी इच्छाशक्ति भारत की किसी सरकार में नहीं था। अतः ये कहना कि चीन तकनीक की चोरी कर अपना विकास किया है सही नहीं है। इसे अधिक से अधिक अमेरिकी दुष्प्रचार ही कहा जा सकता है।

चीन ने पिछले कई दशकों से जो विकास किया है उसने पूरी दुनिया को चकित कर दिया है। अब तक उसकी निर्भरता यूरोप व अमेरिका के सप्लाई चेन पर रही है। यदि कल को अमेरिका उसके सामनों की आवाजाही पर रोक लगाता है उस स्थिति से निपटने के लिए उसने अपना वैकल्पिक सप्लाई चेन तैयार करना शुरू कर दिया है। वन बेल्ट रोड इनीशिएटिव (ओ..बी.आर.आई) इसी दिशा में उठाया गया महत्वाकांक्षी कदम है जिसका फायदा तीसरी दुनिया के बाकी देश भी उठा सकते हैं। भारत ने अमेरिका के प्रभाव में खुद को इस मुहिम से अलग रखकर कहें एक सुअवसर खो दिया है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आधुनिक इतिहास ये पहली बार होगा कि एशिया का कोई देश अपना स्वतंत्र सप्लाई लाइन बनाने का प्रयास कर रहा है।

जब तक चीन में एक मैन्यूफक्चरिंग देश था जहां सस्ते श्रम से सामान बनते थे तब तक अमेरिका को चीन से कोई दिक्कत या परेशानी नहीं थी लेकिन 5 जी के माध्यम से चीन ने यूरोप और अमेरिका की तकनीकी श्रेष्ठता को चुनौती देनी शुरू कर दी पुराने साम्राज्यवादी देशों को परेशानी होने लगी है। चीन जब तक सस्ते जूते, कपड़े और खिलौने बनाता था तब तक वो स्वीकार्य था लेकिन जैसे ही चीन साइबर पावर की ओर बढ़ने लगा अमेरिका की पेरशानी बढ़ने लगी। पहली बार कोई कम्युनिस्ट शासित देश विकसित देशों को तकनीक के मामले में पछाड़ रहा है। इन्हीं वजहों से अमेरिका की हरसंभव यही कोशिश है कि वो चीन की बढ़त को हर हाल में रोके।

अमेरिका, कनाडा सहित यूरोपीय देश अब चीन के सॉफ्टवेयर आदि पर ये आरोप लगा रहे हैं कि वो चीनी सरकार के सर्वेलांस का काम कर रहा है, उनकी जासूसी कर रहा है। इस मामले में अमेरिका का रिकॉर्ड कितना खराब है इसे एडवर्ड स्नोडेन के रहस्योद्घाटनों से समझा जा सकता है। एडवर्ड स्नोडेन जो खुद अमेरिका के रक्षा विभाग का एक कर्मचारी था। उसने देखा कि अमेरिकी कंपनियों का अमेरिकी स्टेट से करार है कि वे सूचनाओं को साझा करेंगे। इस रहस्योद्घाटन से अमेरिका इतना खफा हुआ कि स्नोडेन को भागना पड़ा। उसे कई सालों से रूस में रहना पड़ रह है। अमेरिका की काली कारगुजारियों का कच्चा चिट्ठा जूलियन असांजे ने खोला था इससे हम सभी वाकिफ है। जब अमेरिका को अपने साथी देशों की जासूसी करने के कारण जर्मनी सरीखे देशों ने कड़ी आलोचना भी की थी।

लेकिन इन सब तथ्यों को दरकिनार करते हुए भारत की मीडिया, यहां के अखबारों में अमेरिकी लॉबी के स्तंभकार लगातार उसी बात का प्रचार कर रही है जो अमेरिका का ट्रंप प्रशासन करता है। अमेरिका को लगता है कि दूसरों की जासूसी और निगरानी रखने का काम यूरोप व अमेरिका के गोरी चमड़ी वालों का विशेषाधिकार है एशिया का कोई देश ऐसी हिमाकत कैसे कर सकता है? डोनाल्ड ट्रम्प का इस अमेरिकी चुनाव में नारा भी है कि वो ‘व्हाइट डॉमिनेशन’ बरकरार करना चाहता है। भारत जैसे देश जिन्होंने लंबे वक्त का अँग्रेजों की गुलामी के अंदर रहे हैं उनको इस अवसर पर एक एशियाई देश के साथ खड़ा होना चाहिए था। अमेरिका चीन मुकाबला करने की जो भी कोशिश है और छटपटाहट है वो इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि चीन, सोवियत संघ नहीं है। ये बात भारत के नीतिनिर्माताओं को भी जितनी जल्दी समझ आ जाए उतना ही बेहतर है।

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