पुस्तक समीक्षा: विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ की पुस्तक ‘जी साहेब जोहार’

पुस्तक समीक्षा: विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ की पुस्तक ‘जी साहेब जोहार’

विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ की पुस्तक जी साहेब जोहार रश्मि प्रकाशन लखनऊ से प्रकाशित हुई है। यह पुस्तक आते ही खूब सुर्खियां बटोर रही है। ऐसे तो कइयों ने इस पुस्तक की समीक्षा की है। किंतु हम यहां झारखंड के जाने-माने कवि, लेखक विजय कुमार संदेश, शंभु बादल और भारत यायावर की समीक्षा प्रकाशित कर रहे हैं।


अपने समय का जीवंत क्रांतिकारी दस्तावेज है: विजय कुमार ‘संदेश’

विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ लंबे समय से साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखते रहें हैं। उन विधाओं में कविता भी है कहानी भी, रेखाचित्र भी है और कार्टून भी। बड़ी बात यह है कि उनमें सामाजिक विषमताओं और विद्रूपताओं के प्रति खुले प्रतिरोध की प्रतीति है। कहना न होगा कि उनके समस्त साहित्य अपने समय का जीवंत क्रांतिकारी दस्तावेज है।

‘जी साहिब, जोहार’ कवि की बहुचर्चित कविता है और इसी नाम से इस काव्य-संकलन का नामकरण भी हुआ है। इनकी एक और चर्चित कविता है ‘एक डुभा भात’, इसका अनुवाद मराठी-गुजराती जैसी भाषाओं में हुआ है। इसका कारण कविता अपनी संवेदना से पाठक को अन्तर्मन तक हिला देती है। यह कविता आधुनिक समाज के लिए चेतावनी भी है, सदियों से बैठी मनोवृति से ऊपर उठने के निमित्त संकेत भी। जहां देश के भावी पीढ़ी को एक डुभा भात के लिए संघर्ष करना पड़े, कवि उस व्यवस्था पर कड़ी टिप्पणी और व्यंग्य करता है। कवि का कथन है कि गरीबी, भूख और अभाव का संबंध सनातन है। कई पीढ़ियां इसे झेल चुकी है। अगर सच कहूं, तो इस सनातन पीड़ा के शिकार नब्बे फ़ीसदी इस देश में दलित रहे हैं। एक डुभा भात के लिए बेचैन इस देश की भावी पीढ़ी की संवेदना में कवि की युक्ति है – जब भी लिखेगा कोई/ भूख का इतिहास /तुम खड़ी हो जाना बेटी/ सामने चश्मदीद गवाह बनकर /दिखाना उन्हें अपना /सटा हुआ पेट/ निकली हुई हड्डियां /खाली डुभा-धारी /और यह भी बतलाना /कि कैसे तीन दिनों से/ एक डुभा छूछे भात के लिए /तरस रही हो तुम

यह एक तथ्य है कि देश की आजादी और संविधान के लागू होने से पूर्व इस देश का इतिहास शोषण और उत्पीड़न का इतिहास रहा है। यह शोषण प्रायः भारत के मूल निवासियों, जिनमें पिछड़े, दलित और आदिवासी मुख्य हैं, अधिकतर उन्हीं के साथ हुआ है। वर्णाश्रम-संस्कृति ने सदैव इनके साथ धोखा किया है, जिससे सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक भ्रष्टाचार फलता-फूलता रहा है। कवि दीर्घकाल से चली आ रही जीवन जीने की इस कला को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। ‘हल्ला बोल’ कविता में वे लिखते हैं- बोल मजदूरों हल्ला बोल /बोल किसानों हल्ला बोल

विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ की कविताओं की विशेषता यह है कि उसमें विषय की गंभीरता और भाव-वैविध्य साथ साथ है। इसमें क्रांति की कविताएं हैं, शोषण के विरुद्ध की कविताएं हैं, तो दलितों-वंचितों में नवजागरण की भी कविताएं हैं। यहां तक कि इसमें गांधी जी के विचारों-सिद्धांतों और आदर्शों से सवाल करती हुई कविताएं भी है। संग्रह में झारखंड और उसकी संस्कृति को केंद्र में रखकर भी कई कविताएं शामिल की गई हैं। इसमें संदेह नहीं कि झारखंड के पिछड़े, दलित और आदिवासी सदैव बाहरी लोगों के शोषण के शिकार रहें हैं। अधिकांश मूल निवासियों की दुनिया बाहरी दुनिया से अलग-थलग और वनोपज पर आश्रित रही है। तीर-धनुष और नुकीले औजार उनके हथियार रहे हैं। आज स्थिति बदल तो गई है, पर शोषण बदस्तूर जारी है। परिवेश में परिवर्तन ने मूल निवासियों में नई चेतना का आगाज किया है। शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति में बदलाव आया है, पर अभी भी कई समुदाय शिक्षा और स्वास्थ्य से दूर है। कवि को इसकी चिंता है और वह निजी तौर पर सुधार के लिए प्रयत्नशील है। ‘नहीं होंगे विस्थापित’ कविता में वे इस बात पर जोर देते हैं – हम जान गए हैं अपना हक /अपना अधिकार /अब जाओ/ शोषकों वापस जाओ/ लुटेरों झारखंड छोड़ो/

‘जी साहिब, जोहार’ संग्रह में आजादी के बाद के भारत का और उसमें भी विशेषतया झारखंड के ग्रामीण और कोलियरी क्षेत्र की समस्याओं का विशेष अंकन उनकी कविताओं में है। उल्लेख्य है कि अविभाजित हजारीबाग कोयला खदानों के लिए देश और दुनिया में प्रसिद्ध है। कभी रामगढ़, कोडरमा और चतरा जिला हजारीबाग के अंग हुआ करते थे। ये क्षेत्र आज भी कोयला खदानों के लिए जाने जाते हैं। कवि की दृष्टि स्थानीय और बाहरी शोषकों के द्वारा इस क्षेत्र में रहने वाले गरीब मजदूरों और कामगारों के शोषण की ओर भी गई है। कई कविताएं इसका प्रमाण है। इन कविताओं में अपने युग के समाज और समुदाय के आक्रोश और उसकी बेचैनियों को बड़ी अधीरता से उठाया गया है। कवि ने शब्दों को इस तरह पिरोया है, जैसे सीपी में मोती समाहित रहता है। उसका मानना है कि यदि समाज और समुदाय के भावों-अनुभावों की व्यंजना नहीं हुई, तो सीपी से मोती का निर्माण नहीं हो पाएगा और हर स्वप्न अधूरा रह जाएगा। कवि की अनुभूति है कि विस्थापन ने ‘सीपी और मोती’ दोनों का भविष्य पूरी तरह बर्बाद कर दिया है। भविष्य की आशंकाओं को ध्यान में रखकर वे कहते हैं – आज भी पूर्वजों के पसीने की गंध /फैली हुई है हर घर में/ आंगन में, खेतों में, खलिहानों में /यहां की मिट्टी की सोंधी महक में/

विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ एक ऊर्जावान कवि-लेखक-चित्रकार हैं और सतत रचनाकर्म में संलग्न है। कवि का रचना कर्म निरंतर अपने व्यापकता की ओर अग्रसर है और वे नित नए रूप में साहित्य के नए सोपान गढ़ रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि वे झारखंड के नवोदित कवियों में विशिष्ट हैं। इसका कारण यह है कि वे स्वभाव में जितने मृदु, नरम विनम्र हैं, विचारों में भी उतने ही शीलवान हैं। परिस्थितियों से लड़ते हुए आम आदमी या कहें हाशिए पर पड़े हुए आदमी की बेहतरी का स्वप्न देखते हैं। जिनके जीवन में कोई उल्लास नहीं, कोई सपना नहीं, उनके लिए वे सपना बुनते हैं और स्थितियों से उबरने के लिए मार्ग की तलाश करते हैं। अक्सर यह देखा जाता है कि आर्थिक रूप से जो संपन्न हैं और जो समाज के तथाकथित ठेकेदार हैं, राजनेता हैं, वे आर्थिक रूप से विपन्न लोगों का शोषण करते हैं। ऐसे लोगों के प्रति कवि का प्रतिरोध देखा जा सकता है। संग्रह की एक कविता में वे लिखते हैं – राज-धरम छोड़ा/ मुल्क को बेचा/ मदारी की माफिक/ जनता को नचाया /अब सुधर जा, चेत जा/ उठी जनता की ललकार

प्रतिरोध की यह कविता अपने स्वरूप में छोटी अवश्य है पर इसके गंभीर निहितार्थ हैं। भारतीय समाज में हाशिए के लोगों की दयनीय स्थिति के प्रति कवि गंभीर है और दृष्टि संवेदनशील है। कवि का यह भी मानना है कि अब उनके उबरने का समय आ गया है। कवि का उद्देश्य केवल यथार्थ का वर्णन करना ही नहीं है, प्रत्युत उसका उद्देश्य सदियों की जकड़बंदियों से निकल कर उनमें नई चेतना एवं ऊर्जा का संचार करना है। ‘नहीं होंगे विस्थापित’ कविता में उस चेतना और ऊर्जा का संचार करते हुए वे लिखते हैं – जाओ सब जाओ/ हमें बचाना आता है / जर-जोरू-जमीन/ खेत खलिहान , जंगल-झरना-तालाब /मान्यता-परंपरा-संस्कृति /अपना ईमान – अपने अस्मिता /अब हम जान गए हैं/ अपना हक, अपना अधिकार/

गूंगे समाज के लिए कवि शब्द करता है। उन्होंने प्रतिरोध की कविता में एक नई शैली विकसित की है, समाज को एक नया संदेश दिया है, जिसमें प्रतिरोध, साहस और शौर्य की त्रिवेणी है। उनकी कविता में जीवन सत्य तो है ही, नई राह तलाशने की ललक भी है।


‘जी साहेब, जोहार’ पुस्तक से ‘विद्रोही’ का एक नया सर्जनात्मक द्वार खुलता है: शंभु बादल

विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ झारखंड के एक ऐसे युवा कवि हैं, जिनकी रचनात्मक ऊर्जा की परिधि के अंतर्गत कविता के साथ-साथ कहानी, चित्र, कार्टून और यहां के लोक-नृत्य, प्रकृति, पर्यटन, पर्व-त्योहार आदि अपनी-अपनी पहचान के साथ गहरे रंगों में आते हैं। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक विकृतियों, विसंगतियों के चुभनभरे माहौल में कवि के मन का, उसकी सर्जनात्मक दृष्टि का निर्माण हुआ है। फलत: इनकी कविताओं में रुग्णताओं के विरुद्ध विक्षोभ, आक्रोश, संघर्ष, व्यंग्य तीव्रता से प्रकट हुए हैं; उलट-पुलट कर देने की, बदलने की, बेहतर जीवन बनाने की निश्चयात्मक प्रवृत्ति मुखर हुई है। गरीबी, दुर्दशा, दुष्प्रवृत्तियों का अंकल रूपात्मक सज्जा में उलझे बिना सहजता से सीधे पाठकों तक पहुंचता है। इस क्रम में ‘बुल्का सोरेन’, ‘मतलब’, ‘नहीं होंगे विस्थापित’, ‘गांव की गलियों में’ – जैसी कविताएं देखी जा सकती हैं। ‘जी साहेब,जोहार’, ‘बिरहोर टोला’, ‘शनिचरा भुइयां का बेटा’ आदि भी अपनी बातों को लेकर ध्यान आकृष्ट करती हैं। कविताओं में प्राय: अन्तर्धारा के रूप में कहानियां स्थित हैं। यहां कविता और चित्र साथ-साथ मिलते हैं।ये एक-दूसरे के पूरक, सहयोगी हैं। इनसे एक-दूसरे की स्पष्टता, सम्प्रेषणीयता बढ़ती है। ‘जी साहेब, जोहार’ काव्य-पुस्तक से चित्रकार-कवि विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ का एक नया सर्जनात्मक द्वार खुलता है।


प्रहारक क्षमता का खुला दिग्दर्शन है: भारत यायावर

विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ सच मायने में विद्रोही कवि हैं। इनके मन में दलितों, वंचितों और शोषितों के प्रति बेहद लगाव है। यह लगाव बनावटी नहीं है। उनकी पीड़ा का मुखर प्रकटीकरण उनकी कविताओं में हुआ है। झारखण्ड की धरती के सताये हुए लोगों की संवेदना उनकी वाणी में बार-बार मुखरित होती है। यह पीड़ा और संवेदना ही उनके विद्रोही स्वरूप के मूल में है। उनके मन में सत्ताधारियों के प्रति वितृष्णा का भाव है। इनके विरूद्ध हल्लाबोल, इंकलाब और तख्तापलट का नारा बुलंद करते हुए वे गरीब जन के पक्ष में खड़े दिखाई पड़ते हैं। वे झारखण्ड के वीर सपूतों को भी अपनी कविताओं में जगह देते हैं, जिन्होंने अंग्रेजी राज के ख़िलाफ़ संघर्ष किया था। वे आज के फटेहाल मनुष्यों का चित्रण भी करते हैं, जो अपने अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद कर रहे हैं। आज़ादी के इतने वर्षों के बाद भी यह भूख, यह गरीबी क्यों है? हमारी राजनीतिक व्यवस्था इतनी भ्रष्ट क्यों है? सामाजिक असमानता के कारण क्या हैं? समाज में जातिगत और धर्म के आधार पर नफरत की दीवार क्यों खड़ी है? इन प्रश्नों से ये कविताएं बार-बार जूझती हैं और इन हालात को बदलने की बेचैनी से भरी हैं। देश और समाज में जब तक पतनशील स्थितियाँ बनी रहेंगी, विद्रोही भाव का संचरण भी होता रहेगा और इनका महत्व भी बना रहेगा। स्वभाविक है कि विद्रोही भाव भी रोमांटिक मन:स्थितियों से उत्पन्न होकर कविता के कलात्मक विन्यास को खंडित करते हैं। ‘विद्रोही’ की कविताओं के साथ भी ऐसा ही है। किन्तु उनकी कुछ कविताएं मानवीय राग की अप्रतिम प्रस्तुति हैं और वे वैश्विकता के परिदृश्य पर विस्तार पाना चाहती हैं। यह उनकी उपलब्धि है।

विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ का व्यक्तित्व तरल है। वे विनम्र और मितभाषी हैं। लेकिन उनकी कविताएं बहुत उग्र और ध्वंसकारी हैं। बहुत अधिक बोलने वाली या दूसरे शब्दों में कहें, चीख-चिल्लाकर आह्वान करने वाली हैं। यहाँ कविता के अलंकरण या साज-सज्जा नहीं है, वरन् सीधा-सादा कथन और उसमें प्रहारक क्षमता का खुला दिग्दर्शन है। वे अपने भावों और विचारों को प्रकट रूप में प्रस्तुत कर रूढ़िभंजन करते हैं और एक क्रांतिकारी वातावरण का निर्माण करते हैं। यह संग्रह उनकी रचनाशीलता का एक प्रभावशाली का पक्ष रखती है।

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कृति- जी साहेब जोहर
लेखक- विनोद कुमार राज ‘विद्रोही
प्रकाशन- रश्मि प्रकाशन, लखनऊ
मूल्य- 175 रुपये


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