पुस्तक समीक्षा ❙ बर्नियर की भारत यात्रा : सत्रहवीं सदी का भारत

पुस्तक समीक्षा ❙ बर्नियर की भारत यात्रा : सत्रहवीं सदी का भारत

प्रसिद्ध यात्री फ्रांस्वा बर्नियर फ्रांस का निवासी था। पेशे से चिकित्सक बर्नियर 1656 से 1668 तक भारत में रहा। इस समय वृहत्तर भारत के अधिकांश क्षेत्रों में मुगलों का शासन था जिसमें अत्यधिक उथल-पुथल मचा था। शाहजहाँ के अस्वस्थ होने से उसके पुत्रों के बीच सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष शुरू हो गया था। शाहजहाँ के चारो पुत्रों दारा शिकोह, औरंगजेब, शाह शुजा, मुरादबख्श के बीच सत्ता संघर्ष इतिहास प्रसिद्ध है, जिसमें औरंगजेब अपने भाइयों और उनके परिवार को ख़त्म कर विजयी हुआ था। शाहजहाँ इस खूनी संघर्ष को टालने का प्रयास करता रहा, मगर इतिहास की विडम्बना कि इसकी शुरुआत ख़ुद उसने ही की थी। बर्नियर ने इस राजनीतिक संघर्ष का विस्तृत विवरण दिया है। राजनीति जो न कराए सो कम! यहां भी झूठ-फरेब, धोखा, खरीद-फरोख्त, स्वार्थ का बोलबाला है।यहां कुटिलता ही ‘योग्यता’ है, और ‘सफलता’ ही अंतिम मापदंड। औरंगजेब सफल हुआ इसलिए वह ‘योग्य’ था।

एक जगह औरंगजेब शाहजादा मुअज्जम से कहता भी है- “याद रखो कि सल्तनत एक ऐसा नाज़ुक मुआमिला है कि बादशाहों को अपने साए से भी हसद और बदगुमानी हो जाती है।” इतिहासकार दारा शिकोह से सहानुभूति रखते हैं क्योंकि एक तो वह शाहजहाँ का ज्येष्ठ पुत्र था (हालांकि, मुगलों में ऐसी कोई परंपरा नहीं थी कि ज्येष्ठ पुत्र ही शासक बनेगा), दूसरा धार्मिक रूप से उदार था। वह दूसरे धर्मों का सम्मान करता था और उनके विद्वानों से चर्चा किया करता था। उसने उपनिषद और कई अन्य धार्मिक पुस्तकों का फ़ारसी में अनुवाद करवाया। औरंगजेब ने उसकी उदारता का दुष्प्रचार कर अपने पक्ष में उपयोग किया और उसे एक तरह से ‘काफ़िर’ घोषित कर जनमानस का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया।

बर्नियर दाराशिकोह के त्रासदियों से सहानुभूति दिखाता है, और जनता की ‘सुस्ती’ और ‘निष्क्रियता’ की आलोचना भी करता है, जो दारा के ‘समर्थक’ होकर भी उसकी मदद नहीं करती। मगर वह दारा के चूकों और कमजोरियों को रेखांकित कर उसकी आलोचना भी करता है, जिसकी तरफ इतिहासकार कम ध्यान देते हैं। मसलन- “वह (दारा) यह भी समझता था कि जगत में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जो उसको किसी बात की शिक्षा दे सके। जो लोग डरते-डरते उसे कुछ सलाह देने का साहस कर बैठते, उनके साथ वह बुरा बर्ताव करता। इस कारण उसके सच्चे शुभचिंतक भी उसके भाइयों के यत्नों और चालों से उसे सूचित न कर सके।” इस तरह दारा के त्रासद अंत से इतिहास में ‘दूसरे अकबर’ की संभावना खत्म हो जाती है।

पुस्तक का अधिकांश हिस्सा इस ‘सत्ता संघर्ष’ पर ही केंद्रित है; मगर किताब के दूसरे हिस्से में बर्नियर के कुछ पत्र हैं, जो उसने फ्रांस के वजीर मान्शियर कोल्बर्ट, माथेलिवेयर, मि. चैप्लेन को लिखे हैं। इन पत्रों में मुगल दरबार के सामंती वैभव, सामरिक शक्ति, स्थापत्य, दिल्ली-आगरा के चित्र, आम-जनजीवन, व्यापार, धार्मिक मान्यताओं आदि बहुत सी बातों का जिक्र किया है, जिससे उस दौर के भारत के इतिहास और संस्कृति को समझने में मदद मिलती है। बर्नियर के ज़ेहन में यूरोप (खासकर फ्रांस) था, इसलिए वह अक्सर भारत(अधिकतर संपूर्ण पूर्वी देश) की व्यवस्था, कला, संस्कृति को यूरोप के साथ तुलनात्मक ढंग से देखता है।अवश्य उसके अपने पूर्वग्रह भी रहे होंगे, और अपने देश के प्रति लगाव भी, फिर भी वह बहुत जगह यहां की तारीफ भी करता है। वह यहां की जनता को ‘सुस्त’ और ‘निष्क्रिय’ घोषित करता है और इसका एक कारण यहां की गर्म जलवायु को भी मानता है।इसी तरह मुगलों की सैन्य व्यवस्था के दोष बताता है जो संख्या में विशाल होकर भी ‘तकनीक’ और ‘अनुशासन’ की कमी के कारण अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पाती। हालांकि, राजपूतों की वीरता का उसने प्रशंसा भी किया है।

बर्नियर लिखता है कि यहां भूमि के निजी स्वामित्व का अभाव है; सारी भूमि राजा की होती है।किसान एक तरह से ‘किराये’ की तरह भूमि का उपभोग करते हैं। निर्धारित लगान अदा करते रहने तक ही भूमि उनकी होती थी। लगान अदा न करने पर वह छीन ली जाती थी। वे भूमि को बेच नहीं सकते थे। फिर सामंती स्तरीकरण में उनके ऊपर अन्य वर्ग भी थे; जैसे- मनसबदार, अमीर, सूबेदार,इजारेदार। इन सारे वर्गों के अय्याशी का बोझ किसानों को उठाना पड़ता था इस कारण उनकी स्थिति दयनीय थी। बर्नियर लिखता है- “संक्षेप यह कि इन उपद्रवों और अत्याचारों के कारण कृषक अपनी जन्मभूमि छोड़कर कुछ सुख मिलने की आशा से किसी पड़ोसी राज्य में चले जाते हैं या सेना में जाकर किसी सवार के पास नौकरी कर लेते हैं।” भूमि पर राजा के एकाधिकार का अन्य यात्रियों ने भी जिक्र किया है जिससे पश्चिमी चिंतकों ने ‘पूर्वीय निरंकुशतावाद’ के सिद्धांत को गढ़ा।

मार्क्स का ‘एशियाई उत्पादन पद्धति’ भी इससे प्रभावित था।लेकिन मुगलकाल के कोई दस्तावेज प्राप्त नहीं होते जिससे यह सिद्ध हो कि सम्पूर्ण भूमि सम्राट के स्वामित्व में होती थी। शायद लगान की अधिकता और अनिवार्यता के दबाव ने यात्रियों में ये विचार पैदा किए। फिर बर्नियर के अनुसार बाजार में मुद्रा का व्यापक चलन था। बहुत से कर्मचारियों को नगद वेतन भी दिया जाता था। विदेशी व्यापार व्यापक पैमाने पर होता था; आगरा, सूरत, दिल्ली जैसे शहर व्यापार के केंद्र थे। दुनिया का सोना भारत में इकट्ठा हो रहा था, मगर इसका एक कारण यहां के लोगों का स्वर्ण प्रेम भी था। कुल मिलाकर व्यापारिक पूंजीवाद के पर्याप्त लक्षण थे।

बर्नियर ने उस समय ज्योतिषी के नाम पर की जा रही धोखाधड़ी का चित्रण किया है, जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई सभी धर्म के लोग शामिल थे। इससे आम जनता से लेकर बादशाह, अमीर सब प्रभावित थे। इस विवरण को देखें तो आज चार सौ साल बाद भी कुछ खास बदलाव नहीं दिखता। इसी तरह उसने जगन्नाथ मंदिर की रथ यात्रा में लोगों का जानबूझ कर रथ के पहिये के नीचे आ जाना, पुरोहितवाद का नकारात्मक रूप, सतीप्रथा की विभीषिका, के साथ-साथ ग्रहण के समय के सांस्कृतिक विवरण, मेला, मीनाबाजार, कर्मकांड का चित्रण भी किया है। इसमें उसके अपने पूर्वग्रह और सुनी-सुनाई बातें भी होंगी मगर कुछ जगह वह पादरियों की भी आलोचना करता है इससे उसकी विश्वसनीयता अपेक्षाकृत बढ़ जाती है।

बर्नियर के समय विदेशी व्यापार भारत के पक्ष में प्रतीत होता है। अभी अंग्रेज, पुर्तगीज, डच, फ्रेंच, सम्राट और अमीरों की सेना में नौकरी किया करते थे। क्या पता था सौ साल बाद स्थिति बदल जाने वाली थी।

बर्नियर ने उस समय के महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रमों का उल्लेख किया है, जो इतिहास प्रसिद्ध है। शिवाजी की वीरता, सूरत लूट, आगरा दरबार में उपस्थिति का जिक्र; राजा जयसिंह, मीर जुमला, शाहजहाँ के पुत्र-पुत्रियों, उनके व्यवहार, राजनीतिक हित, षड्यंत्र आदि का चित्रण है। इसके अलावा तख्ते ताउस, कोहिनूर हीरा, दिल्ली और आगरा के इमारतों की जानकारी, अमीरों के मकान, सामान्य जन-जीवन के गरीबी, सैन्य व्यवस्था, मुगलों की सामरिक शक्ति, बादशाहों के शिकार आदि बहुत से चीजों का पता चलता है जो इतिहास के शोधकर्ता के अलावा सामान्य पाठक के लिए भी रोचक है।


पुस्तक – बर्नियर की भारत यात्रा
अनुवाद – गंगा प्रसाद गुप्त
प्रकाशन – नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया


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