डॉ. नंदकिशोर नवल कविता की एक जीवंत पाठशाला

डॉ. नंदकिशोर नवल कविता की एक जीवंत पाठशाला

वल जी के देहावसान की खबर स्वाभाविक रूप से दु:खद है, क्योंकि भौतिक रूप से उन्हें देखना अब संभव नहीं होगा। पिछले कुछ वर्षों से उनका स्वास्थ्य लगातार ख़राब चल रहा था और खबरों के अनुसार इस लॉकडाउन में वह घर में ही फिसल कर गिर भी पड़े थे, इसलिए कुछ अनहोनी की आशंका तो बनी हुई थी। 12 मई की रात दस बजे उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कर दिया।

अपनी मिहनत और साधना से अपने व्यक्ति रूप को उन ने एक संस्था के रूप में विकसित कर लिया था। इसलिए उनका अवसान एक संस्था का भी अवसान है। हिंदी की साहित्यिक-सांस्कृतिक दुनिया उन्हें याद करती रहेगी, क्योंकि वह कुल मिला कर साहित्य के ही आदमी थे। शिक्षक थे, आलोचक थे, संपादक थे और बहुत कुछ थे। इन सभी रूपों में वह रेखांकित करने योग्य थे। जो भी उनके साथ रहा है, उनके लिए उन्हें भूलना मुश्किल होगा। वह मित्र भी अच्छे थे, और शायद शत्रु भी। मन से कोमल थे, इसलिए तुनक-मिजाज भी थे। रंज बहुत जल्दी होते थे, और शायद प्रसन्न भी।

एक खूबसूरत अंदाज़ का बचपना उनमें मैंने हमेशा चिह्नित किया, हो सकता है कि मेरा आकलन सही नहीं हो, लेकिन मैं अपने सुख के लिए उनके इस चरित्र को बनाए रखना चाहूँगा। मैंने उनके बारे में पहले भी एक बार लिखा है और आज भी कह रहा हूँ कि शत्रुता मोल लेने में उन्हें शायद मन लगता था। वह शायद गंभीर बनने की भी कोशिश करते थे। लेकिन उनका मन इतना निर्मल और शिशुवत था कि वह बन ही नहीं सकते थे। हाँ, यह गंभीरता उनके लेखन में जरूर दिखती थी। अपने लेखन में वह समझौतावादी नहीं हुए। जो उन्हें सही लगा उसे कहा या लिखा। जीवन के खिलंदड़पन के बारे में चाहे उनकी जो भी राय हो; साहित्य में किसी तरह के खिलंदड़पन को उन्होंने प्रोत्साहन नहीं दिया। साहित्य में भी कविता उनका प्रिय क्षेत्र था। इस इलाके से वह इधर-उधर बहुत नहीं गए।

साहित्य की गंभीरता उन्होंने अपने व्यक्तित्व पर हावी नहीं होने दी। शिक्षक रूप में उनकी छवि जो हो, और यदि वहां गंभीर थी, तो यही अपेक्षित भी था, लेकिन साहित्यिक दुनिया में वह अलग थे। जिन लोगों से उनकी अंतरंगता रही, उनसे खूब बात करते थे और जिन लोगों से शत्रुता रही उनसे लड़ते भी खूब थे। उनकी शिशुता ही थी कि दिल्ली रेलवे स्टेशन से जेएनयू तक रिक्शे से जाने का उन्होंने साहस किया। इस वाकये को यदि कोई दूसरा कहता तो शायद मैं विश्वास नहीं करता। दरअसल, बस या मोटर कार पर बैठने से उन्हें उबकाई आती थी, जैसा कि उन्होंने एक दफा बताया था। पटना में भी वह हमेशा रिक्शे पर ही दीखते थे।

मेरा उनसे 1976 से परिचय रहा। लेकिन मित्रता कभी नहीं हुई। उम्र के हिसाब से वह मुझ से सोलह साल बड़े थे। यदि हिन्दी का छात्र रहा होता तो मेरे शिक्षक भी हो सकते थे। 1984-85 या कुछ और बाद तक वह मार्क्सवादी और कम्युनिस्ट रहे, लेकिन बाद में इन दोनों से नफरत भी करने लगे। न वह अपना प्रेम छुपाते थे, न नफरत। जब वह कम्युनिस्ट थे तो कट्टर और जब उसके विरोधी हुए तो भी कट्टर। लेकिन कम्युनिस्ट विरोधी होना उनका संघी होना नहीं था। बिलकुल नहीं। वह लोकतांत्रिक मूल्यों में अधिक विश्वास करने लगे थे। राजनैतिक तौर पर नेहरू के प्रसंशक अधिक हो गए थे।

मैं यह नहीं बता सकता कि उनका कम्युनिस्ट विरोध कैसे विकसित हुआ। लेकिन उनके कम्युनिस्ट आवेगों की भी अपनी कहानी है, जिसकी बानगियाँ मेरे जेहन में सुरक्षित हैं। एकबार बात-बात में मार्क्स की कुछ चर्चा हुई। उनके व्यक्तिगत जीवन की। परिवार, उनके जीने के तरीकों आदि की। प्रसंगवश मैंने कह दिया कि वह सिगरेट बहुत पीते थे और कि शायद नौकरानी से उनके दैहिक संबंध थे। नवल जी उखड़ गए। “तो आप कहना चाहते हैं कि मार्क्स चरित्रहीन थे?” उन्होंने ब्रह्मास्त्र की तरह सवाल दागा। बिना विराम के कहा कि आपको मालूम है रवीन्द्रनाथ टैगोर का कितनी औरतों से संबंध था? मैंने कहा बात टैगोर की नहीं, मार्क्स की हो रही है। वह जैसे पहलवानी पर उतर आए- “आपको टैगोर की बात भी सुननी पड़ेगी।” मैं तंग आ गया। आखिर में कहा- “टैगोर मेरे चाचा-दादा नहीं हैं। उनके बारे में कोई तथ्य है तो सुनने में मुझे कोई परेशानी नहीं है। वह प्रवाह में थे। उसी में बोले- “मार्क्स मेरे लिए सब कुछ हैं। मैं जो बोल रहा हूँ, वह मार्क्स बोल रहे हैं। मैं उनके विरुद्ध कुछ भी नहीं सुनूंगा…।

तो ऐसे थे नवल जी। प्रसंगवश एक और घटना। 1977 की बात है। लोकसभा के चुनाव हो चुके थे। बिहार में कांग्रेस के साथ कम्युनिस्ट पार्टी का भी सूपड़ा साफ हो चुका था। एक रोज शाम को हम दोनों, यानी नवल जी और मैं रिक्शे पर साथ कहीं जा रहे थे। उन्होंने रिक्शावान से पूछा- “चुनाव में किसे वोट दिया है?” रिक्शावान बोला- “गाय-बछड़े को।” गाय-बछड़ा तब कांग्रेस का चुनाव चिह्न था। लेकिन हमलोग पटना में थे और पटना में ख्यात कम्युनिस्ट नेता रामावतार शास्त्री भी चुनाव लड़ रहे थे। नवल जी का दिल बैठ गया। वह बोले- “कम्युनिस्ट पार्टी को वोट क्यों नहीं दिया?” रिक्शावान ने उतनी ही सरलता से कहा- “एकबार उसको भी दिया था।” रिक्शेवाले की सरलता पर मुझे हंसी आ गई, लेकिन नवलजी ने लगभग शाप देने की मुद्रा में कहा- “तुम लोगों का कभी उद्धार नहीं होगा।” खैर! रिक्शावान को अपने उद्धार की बहुत चिंता भी नहीं थी। लेकिन नवल जी के रंज होने का यह भी एक रूप था।

वह अनेक वर्षों तक पटना प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे। उन्होंने अनेक जानदार और शानदार आयोजन किए और पटना की साहित्यिक-सांस्कृतिक दुनिया को समृद्ध किया। उन्होंने 1971 में पटना में युवा लेखकों का एक अखिल भारतीय सम्मेलन भी आयोजित किया था, जिसके बारे में हमने केवल सुना था। उस सम्मेलन की गूंज लम्बे समय तक बनी रही। हिंदी साहित्य में सम्मेलनों के इतिहास का वह एक यादगार अध्याय है। आयोजनों को अमली जामा देने और पत्रिका निकालने में उन्हें मन लगता था। कहा न! कुल मिला कर साहित्य ही उनकी दुनिया थी।

1978 में पटना प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में किसी बात को लेकर उनसे मेरा कुछ अप्रिय संवाद हो गया, जिसे झड़प भी कहा जा सकता है। कुछ महीनों तक बोलचाल बंद। हम लोग कई बार आमने-सामने हुए। कोई बात नहीं। एक दिन अचानक डाकबंगला चौराहे पर मिले। वह रिक्शे पर थे और मैं नीचे। वह रुके। कहा- “मणि जी, दस रुपये देने हैं आपको। अमुक तारीख को अमुक विषय पर अमुक जगह गोष्ठी है। आइएगा। मैं उनसे स्थाई असंवाद रखना चाहता था। लेकिन वह अवसर दें तब न।”

फिर भी मैं उनके निकट का आदमी कभी नहीं हुआ। जबकि इस पटना में कुछ लोग उनके प्रिय थे। मेरे मन में उन्हें लेकर यह गलतफ़हमी भी बनी रही कि वह जमींदार परिवार से हैं। उनकी देहयष्टि राजकुमारों जैसी थी और शुभ्र-साफ-कलफदार वस्त्र पहनने के शौक़ीन थे। संभवतः इसी को देख कर मेरी धारणा बनी हो। उनकी तुनकमिजाजी मेरी धारणा और पुख्ता करती थी। लेकिन कोई दो साल पूर्व जब उनके संस्मरणों की किताब पढ़ी और उनके मामूली किसान परिवार से होने और कई तरह के आर्थिक जद्दोजहद के बारे में जाना, तो मैंने अपने को बहुत कोसा। संस्मरणों की उस किताब पर मैंने एक टिप्पणी अपने फेसबुक पर पोस्ट की। मैं दो युवा मित्रों अरविन्द पासवान और अरुण नारायण को लेकर उनसे मिलने उनके डेरे पर गया। वह बीमार थे। बिछौने पर लेटे हुए। उसी बिछौने पर मैं भी बैठा। वह खुश हुए। इतना खुश मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था। वह उठ कर बैठ गए। देर तक हम लोग एक दूसरे का हाल लेते रहे। बगल के बिछौने पर भाभीजी (उनकी पत्नी) थीं। घुटनों के नाकाम होने से चलने फिरने में असमर्थ। यह दृश्य देखना मेरे लिए अजीब था। भावुक कर देने वाला। उन्होंने अरविंद जी को कुछ तस्वीरें लेने को कहा। वह मेरे नजदीक आए। निकटता प्रदर्शित करने के लिए मेरे कंधे पर हाथ रखा। तस्वीरें रखने में मैं बिल्कुल उदासीन हूँ। अरविंद जी के पास वह तस्वीर होगी। पता नहीं क्यों मेरा मन आज उस दृश्य को बार-बार याद करना चाहता है।

आज सुबह उठा तो अख़बार से उनके अवसान की दु:खद खबर मिली। अरुण नारायण को फोन मिलाया। वह उन के आवास तक पहुँच चुके थे। अरविन्द पासवान और अरुण नारायण वर्षों से उनसे निरंतर जुड़े रहे। उन्ही दोनों से मैं उनके हाल-समाचार लेता रहता था। उनसे ही पता हुआ पटना के गुलबी घाट पर उनकी अंत्येष्टि होनी है। वे दोनों वहीं बने हुए हैं। लॉकडाउन की इस बन्दी में तमाम आवागमन बन्द हैं। घाट पर जाने में असमर्थ रहा। लेकिन मन वहीं है। नवल जी अग्नि को समर्पित हो चुके होंगे। लेकिन वह स्मृतियों में बने रहेंगे। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!

प्रेम कुमार मणि (लेखक हिन्दी के सुपरिचित गद्यकार हैं व पूर्व विधान परिषद् के सदस्य रहे हैं। विचार उनके निजी हैं।)

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