भारतीय रेल: बिंब प्रतिबिंब

भारतीय रेल: बिंब प्रतिबिंब

अंग्रेजी की इस किताब का नाम है ‘द बॉय हू लव्ड ट्रेन’। दीपक सपरा ने रेलवे की मैकनिकल डिपार्टमेंट में एक अधिकारी के रूप में नौकरी शुरू की स्पेशल क्लास रेलवे अप्रेंटिस परीक्षा के तहत। आपको बता दें प्रतिवर्ष इस परीक्षा में मुश्किल से 20 बच्चे 12वीं के बाद संघ लोक सेवा आयोग द्वारा चुने जाते हैं। आईआईटी परीक्षा से भी 100 गुना मुश्किल। 4 साल में इन्हें जमालपुर इंस्टिट्यूट में ट्रेनिंग और ग्रेजुएशन इंजीनियर की डिग्री मिलती है और फिर रेल की नौकरी शुरू 21-22 साल की उम्र में। दीपक सपरा ने देश की सबसे व्यस्त पूर्वी रेलवे में काम किया। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट बंगलुरु से मैनेजमेंट की पढ़ाई भी की और लगभग 10 साल की नौकरी के बाद रेलवे को छोड़ भी दिया। लेकिन इस किताब से जाहिर है की रेलवे उन्होंने जितना महसूस किया, उसे जाना उसकी समस्याओं को समझा वैसा बहुत बड़ी-बड़ी किताबों में भी नहीं मिलता। रेल के अपने जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों को उन्होंने जिस संवेदनशीलता और भाषाई करिश्मा से व्यक्त किया है वह बेमिसाल है। इसी किताब से कुछ शब्द उदाहरण लूं तो उन्होंने रेलवे को जरूर छोड़ दिया है लेकिन क्या उनके दिल-दिमाग से रेलवे बाहर जा सकती है! यह किताब तो इसका बहुत साक्षात प्रमाण है।

रेलवे को भारतीय जीवन की जीवन रेखा भी कहा जाता है। 1853 में शुरू हुई रेल की पटरिया लगभग 70000 किलोमीटर तक फैली हुई है। प्रतिदिन 11000 रेल चलती हैं और 7000 स्टेशन। अक्सर हमारे जीवन में रेलवे के यात्रियों से भरे डिब्बे ,उसके ऊपर बैठे यात्री जैसे चित्र उभरते हैं। यह भी कि जब भी जाओ टिकट मुश्किल से ही उपलब्ध होता है। महीनों का इंतजार। उदारीकरण के बाद रेलवे लगातार अपनी कार्यप्रणाली से विवादों में रही है। पिछले दिनों उसके बहुत सारे काम निजी करण की तरफ धकेल रहे हैं। बार-बार कहा जाता है कि घाटे में रेल कैसे चल सकती है?

इसलिए इसी किताब से सबसे पहले रेल टिकट और घाटे की बात। ज्यादातर अनुभव पूर्वी भारत के समाज और जीवन के आसपास हैं लेकिन रेल विभाग की पूरी झांकी देने में समर्थ। मई 1998 कोलकाता शहर का सियालदह डिवीजन। सियालदह डिवीजन से सैकड़ों रेलगाड़ियां पश्चिम बंगाल के आस- पास के शहरों बर्धमान लक्ष्मीकांत पुर आदि के लिए चलती है। किसी भी रेलगाड़ी में 1000-2000 से कम यात्री नहीं होते। लेकिन बजबज स्टेशन से पूरे दिन में औसतन सिर्फ 530 टिकट बिके और लक्ष्मीकांत पुर से उससे भी कम। चकित करने वाली बात ही है कि लाखों यात्री लेकिन टिकट की बिक्री इतनी कम! आखिर घपला क्या है ? बिना टिकट चलने वालों के साथ क्या सलूक किया जाए? लेखक और उसकी टीम को यह काम सौंपा गया है।

नौजवान लेखक पूरी तैयारी के साथ सियालदह से निकलने वाली रेल में शाम को सवार होता है। इतनी भीड़ की मुश्किल से उसे ट्रेन में घुस पाता है। सामना होता है लोखी नाम की महिला से। टिकट कहां आपका? वह अनसुना कर देती है। फिर से पूछने पर उसके जवाब से लेखक हतप्रभ हो जाता है। कैसा टिकट! कहीं पागल हो गया है ? आसपास के यात्री भी उसकी हंसी उड़ाते हैं। लेखक ने धमकी दी जेल भिजवा देंगे तो लौखी तुरंत कहती है, “भिजवा दो वहां दो वक्त का खाना तो मिलता है।” बंगाली में उसे सुनने को मिलता है यह पागल कहां से आ गया है! वह संभल ही पाता है कि पीछे से दो रुपए के 3 पेन बेचने वाला उसे धमका आता है कि आप बीच में क्यों खड़े हैं ? उससे टिकट पूछने पर फिर उसकी मजाक उड़ती है। रेल के अफसर का ऐसा अपमान! ट्रेन रफ्तार पकड़ते ही तरह-तरह के सामानों की बिक्री शुरू हो जाती है। बिंदी, चने, आम, पापड़ से लेकर घुटनों के दर्द की दवा तक।

आइए लौखी के जीवन की तरफ नजर डालते हैं लगभग 40 वर्ष की इस महिला के तीन बच्चे हैं। पति को कोई काम नहीं मिलता। स्टेशन से 3 किलोमीटर रात के 9-10 बजे घर पहुंचती है। जाकर खाना बनाएगी बच्चों को खिलाएगी और अगले दिन फिर सुबह 4:00 बजे की ट्रेन पकड़कर कोलकाता किसी घर में सफाई किसी में खाना बनाना, किसी में बर्तन। जब से होश संभाला है यही कर रही है और यह लाखों यात्रियों की दिनचर्या है। इन्हीं के बूते कोलकाता जैसे महानगरों में ताजा सब्जी मिलती है, सस्ते मजदूर मिलते हैं। शहर का जीवन इन्हीं की मेहनत से चल रहा है। ऐसी कठोर दिनचर्या के बावजूद भी उनके चेहरे पर शिकन नहीं है। आखिर इन गरीबों में इतनी ऊर्जा जिजीविषा कहां से आती है? लेखक अपने बॉस को बस यही सिफारिश करता है कि हम और ज्यादा रेलगाड़ी क्यों नहीं चला सकते जिससे यह लाखों यात्री सीधे खड़े होकर यात्रा तो कर सकें? और यह उनके लिए पांच सितारा सुविधाओं से कम नहीं होगा।

एक रेलकर्मी होने के नाते हम सभी इन प्रश्नों से रूबरू होते रहे हैं लेकिन लेखक के इस ऐसे रिपोर्ताज को पढ़ने के बाद यह यकीन हो जाता है कि क्यों रेल को और कई गुना बेहतर बनाने की जरूरत है। आखिर इतने बड़े देश के लोकतंत्र में उनका भी तो कुछ हक है। पूर्वी भारत विशेषकर पश्चिम बंगाल के आसपास की दुनिया, समाज, रेलवे स्टेशन पर एएच व्हीलर से लेकर गनशक्ति और दूसरे अखबारों की गूंज पूरी किताब में गूंजती है। उसकी एक-एक सांस और हरकत। लेकिन ऑक्सफोर्ड और ऑस्ट्रेलिया में पढ़े हुए प्रबंधकों को हर चीज केवल मुनाफे की चश्मे से ही देखने की आदत हो चुकी है। बहुत बड़ा प्रश्न है सत्ता और व्यक्ति की नैतिकता का। हावड़ा से दिल्ली की एक और यात्रा में कानपुर का अनुभव कुछ और होता है। दो नौजवान आकर वातानुकूल डिब्बे में बैठे गए हैं। टिकट निरीक्षक आता है। एक नौजवान कहता है, “शुक्ला जी मेरे मामा हैं उन्होंने कहा था जो भी हो मेर नाम ले देना।” टिकट निरीक्षक रोज ऐसे यात्रियों से गुजरते हैं। जब दूसरे नौजवान से टिकट माँगते हैं तो उसका भी यही कहना है कि मैं इनके साथ हूं। हमने खुद अनुभव किया है कि एक बार रेल के कर्मचारी होने के बाद वे कभी टिकट नहीं लेते। यहां तक कि उनके परिवार और रिश्तेदार तक भी रेल विभाग को अपना मान कर चलते हैं, सिर्फ इस्तेमाल के लिए। उस पर हक जमाने के लिए…उस को बेहतर बनाने के लिए नहीं। यही कारण है कि सबसे ज्यादा बिना टिकट यात्री इसी क्षेत्र में है जबकि केरल में और दक्षिण के दूसरे राज्यों में सबसे कम। प्रश्न और उत्तर बहुत उलझे हुए हैं।

आइए अब प्रबंधन की नैतिकता का नमूना देखते हैं। लेखक अफसर है इसलिए उसको बड़ा चेंबर मिला हुआ है। दर्जनों नौकर-चाकर की सुविधाएं। उसके माँ-बाप पहली बार उसके पास आ रहे हैं। स्टेशन पर छह अधीनस्थ रेलकर्मी इंतजार कर रहे हैं। लेखक के अंदर बार-बार यह घुमड़ रहा है कि उनके माता-पिता स्लीपर क्लास में क्यों आ रहे हैं? लोग क्या कहेंगे? बार-बार वातानुकूल डिब्बे में आने की बजाए। उन्हें कितना भी समझाओ वे कहते हैं कि हमें कोई असुविधा नहीं होती। क्यों पैसा बर्बाद किया जाए। लेकिन लेखक को अपनी तो हीन लगती है। करे भी तो क्या.! कुल मिलाकर 4 नग हैं दोनों के पास। कर्मचारियों ने एक-एक संभाल लिया है पांचवें को कुछ नहीं मिला तो माँ के हाथ से उसने पानी की बोतल ले ली। छटा खाली हाथ रह गया एक हीनता बोध में, अगले आदेश का इंतजार करता हुआ। माँ बाप वहां रहते हुए अफसर बेटे के ठाठ देखते हैं। घंटी बजते ही एक चपरासी, कुछ चपरासी घर पर। यह केवल रेलवे में ही नहीं भारत सरकार कि ज्यादातर अफसरशाही में है। पुलिस के अफसर के घर पर कई सिपाही काम कर रहे होते हैं भले ही सड़क पर लूटमार को रोकने के लिए सिपाही हो या न हो। माँ-बाप के जाने का वक्त आ गया है और बेटा माँ के गोद में वैसे ही शांति तलाशता है जैसा बचपन से लेकर अब तक जब माँ उसके बालों में हाथ फेर आती हुई उसे कुछ करती थी। माँ आखिर कह ही देती है, “बेटा इतनी आदमी नौकर-चाकर क्यों रखे हुए हैं? तुम तो अपने काम खुद करते थे और तुम्हें याद है कि तुमने अपने स्कूल में महात्मा गांधी और उनकी सादगी पर भाषण दिया था ! हफ्तों तक रटते रहे थे। तो क्या सब कुछ भूल गए हो? क्या यह सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग नहीं है? “यह भी कह देती हैं कि अब तुम वह नहीं रहे जैसा स्कूल के दिनों में थे। गौर कीजिए यदि हर माँ अपने अफसर बच्चों ऐसी सीख दे तो इस देश का कायाकल्प हो सकता है। यदि रेल घाटे में उन बिना टिकट यात्रियों के चल रही है तो ब्रिटिश कालीन मानसिकता के इन अफसरों के कारण भी। हर रेल अफसर के घर पर एक सरकारी मुलाजिम घर के कामों के लिए मिलता है। अंग्रेजी में उसे टीएडी के कहते हैं यानी टेलीफोन अटेंडेंट कम डॉग कुरियर उर्फ खलासी। किसी वक्त पर यह सुविधा अंग्रेजों के समय शुरू हुई थी जब दूरदराज के सुदूर क्षेत्रों में रेल बिछाई जा रही थी। अफसर रात-दिन घर से दूर रहते थे तो ऐसे में उनके बाल बच्चों और दूसरे सरकारी कामों के लिए खलासी मिलता था। अब आप महानगर में रहते हो या फील्ड में रेल मंत्री ने जुलाई 2020 में जैसे ही इस खलासी की तैनाती को गलत माना रेल अधिकारियों के बीच बवंडर शुरू हो गया मानो उनकी सल्तनत छीनी जा रही हो। तरह-तरह के तर्क रोना-धोना। खैर अभी तो कागजों पर से समाप्त कर ही दिया गया है। लेखक की तारीफ की जानी चाहिए कि उसने बहुत बेबाक और एक माँ की सीख जैसे शैली में रेल के सुधार के लिए सुझाव दिए हैं।

लेकिन रेल की नौकरी भी आसान नहीं है चाहे आप किसी भी पद पर हो। रात के 3 बजे पश्चिम बंगाल के वधर्मान स्टेशन पर तैनात कंट्रोल रूम का फोन घन बनाता है। डिरेलमेंट हुआ है। नींद में ही बड़बड़ाते हुए सबसे पहला प्रश्न अधिकारी का होता है कोई जान तो नहीं गई ? रेल का सबसे मानवीय पक्ष और तुरंत 20 मिनट में एक्सीडेंट रिलीफ ट्रेन यानी एटीआर तैयार होकर रात में ही

रवाना हो जाती है। बाहर झमाझम बारिश हो रही है। कोई नींद से जगाया गया है तो कोई पिछले 24 घंटे से लगातार नौकरी पर है। रेल से बाहर की दुनिया को शायद कभी इसकी गहराई गंभीरता चुस्ती फुर्ती चुनौतियों का पता ना चले। यदि ऐसे अनुभव इतनी ईमानदारी से दीपक सपरा ने दर्ज न किए होते। दुर्घटना स्थल की एक-एक बारीक बातें, दुर्घटना के कारण की जिम्मेदारी के दावपेच।गड़बड़ कहां थी? पटरी में, पहिए में या कोई आतंकवादी गतिविधि? बीच-बीच में उच्च अधिकारियों की कड़कती आवाज, चेतावनी के बीच नीचे वाले अधिकारियों को लेखक सम्माननीय शब्दों से संबोधित, प्रोत्साहित करता है। विशालकाय क्रेन की तुलना किसी डायनासोर से लेकर बच्चे को गोद में दबाए दिल्ली की बस के पीछे भागती माँ। यह लेखक की संवेदनशीलता का बयान तो है ही मैनेजमेंट के सूत्र भी छोड़ जाते हैं कि कठिन से कठिन स्थितियों को मानवीय ताल-मेल और प्रोत्साहन से ही हल किया जा सकता है।

रेलवे में उम्मीद की किरण ऐसे ही अनुभव हैं। एनके रॉय पूर्व रेलवे के लोको शेड में तैनात हैं, 38 साल से। रिटायरमेंट में दो दिन बाकी हैं लेकिन उनकी चिंता उस इंजन को ठीक करने की है जो अचानक ही डीजल में कुछ मिलावट के कारण रुक गया है। लोको इंजन को एनके रॉय जैसे कर्मचारी अपने बच्चे की तरह रखते हैं। मीलों दूर से ही उसकी आवाज से उन्हें एहसास हो जाता है की इंजन में क्या खराबी है कहां खराबी है। पिस्टन में, पंप में या तेल में। उनके रिटायरमेंट के दिन शाम के 4:30 बजे सभी कर्मचारियों के साथ इंतजार हो रहा है ।बड़ा अफसर भी वहां आ गया है। लेकिन मिस्टर राय नहीं पहुंचे। अफसर इस बात से भी कुरकुरा रहा है कि मुझे पहले क्यों बुला लिया गया। काफी इंतजार के बाद काले कपड़ों में तेल से सने हुए हाथ में एनके राय अपने कुछ साथियों के साथ रिटायरमेंट की मेज की तरफ बढ़ते हैं। पिछले दो दिन से वे रात दिन उस इंजन को ठीक करने में लगे हुए थे जिससे कि कोई यह न कह पाए की एन के राय के चलते इंजन रुक गया। निष्ठा, लगन, कर्तव्य परायणता की बेमिसाल तस्वीर! हजारों रेल के ऐसे कर्मचारियों के अंदर है। रेलवे ने उन्हें कुछ सुविधाएं दी हैं तो रेल के लिए वह भी जान की बाजी लगाए रहते हैं। अगले दिन मई दिवस है। एनके राय रिटायर हो चुके हैं लेकिन बावजूद इसके फिर कुछ बचे कुचे कामों को करने के लिए सुबह 8:00 बजे फिर हाजिर होते हैं। ऐसी हर इमरजेंसी में कभी भी उस डिब्बे में बैठकर घटनास्थल की तरफ जा रहे हैं जिसमें पशु गाय बैल भैंस हैं बियाबान जंगलों के बीच रेल की पटरियों की सुरक्षा के लिए रातभर पहरा देते हैं तो कुछ महत्वपूर्ण पुलों को आतंकी और देशद्रोही गतिविधियों से बचाने के लिए। मनुष्य गत गलतियां भी होती हैं लेकिन हर साल ड्यूटी के दौरान रेल कर्मियों की मौत भी बहुत सामान्य बात हो चुकी है।

जब रेल में ऐसे कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी कर्मचारी हैं तो आखिर रेल डूबी क्यों? एक कहानी से इसे समझा जा सकता है अध्याय का नाम है। पाजीपुर ज़ोन का निर्माण। बहुत सही ढंग से शुरुआत होती है। शाम को घर पहुंचते ही टेलीविजन पर समाचार चल रहे हैं और नए नए बने मंत्री कह रहे हैं कि सब कुछ दिल्ली में ही क्यों हो? हम दिल्ली को यहां पाजीपुर लेकर आएंगे। मंत्री जी के बारे में यह मशहूर है कि केंद्र की सत्ता कोई भी हो उन्हें मंत्री पद जरूर मिलेगा। उन्होंने जनता से वायदा भी किया था कि नया जोन रेलवे का यही बनेगा और मंत्री पद संभालते ही उन्होंने अपना जॉन तो बनाया ही, जिससे उन पर कोई पक्षपात का आरोप न लगा सके, इसलिए सात और जोन भी बना दिए। नई जोन बनेंगे तो करोड़ों का खर्चा और उनके भवन, उनकी सुविधाएं भले ही उससे कोई आमदनी हो या ना हो। लोकतंत्र का इतिहास तो यह याद रखेगा कि उन्होंने अपनी जनता से जो वादा किया था वह पूरा हुआ। रेल और रेल का तंत्र गया भाड़ में। वर्षों तक नई जोनों की उठापटक चलती रही। हजारों कर्मचारी इधर से उधर। रात दिन इसी व्यस्तता में कि कौन कहां तैनात होगा। तैनाती के लिए सिफारिशों के फोन, व्यक्तिगत परेशानियों के दुख दर्द न जाने क्या क्या। रेल जनता को पहुंचाने के लिए बनी है या राजनीतिक इस्तेमाल के लिए। रात-दिन की ऐसी व्यस्तता कि नौजवान अफसर को शादी के लिए भी मुश्किल से तीन दिन की छुट्टी मिली। सब बहुत सहजता से लेते हैं इन बातों को। सिर्फ उन्हें छोड़कर जो रेलवे की नौकरी यूनियन की ठसक, नेताओं की पहुंच और सिफारिशों के बूते मौज से करते हैं। बहुत इमानदारी से लिखे इस प्रसंग से रेल के डूबने की दास्तान भी सामने आती है। हकीकत यह है पाजीपुर मंडल में अभी भी उस बिहार के लोग भी तैनाती नहीं चाहते जिनका जन्म वही हुआ है। भारत सरकार की ज्यादातर राजनीतिक निर्णय इस लोकतंत्र में ऐसे ही होते रहे हैं।

रेल की दुर्गति के कारणों की तरफ इशारा करते हुए एक और अध्याय। लेखक के बॉस का नाम प्रेम कुमार है। उनकी कर्कश आवाज लेखक के कानों में पढ़ रही है। धोबी का गधा घर का न घाट का। ये मेकेनिकल डिपार्टमेंट के मुख्य अभियंता है और इस बात से बौखलाई रहते हैं कि ब्रिटिश काल में जो मेकेनिकल डिपार्टमेंट सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था, आज उसकी कोई पूछ नहीं है। माल मलाई ट्रैफिक खा रहे हैं, इलेक्ट्रिकल डिपार्टमेंट का बोलबाला है। सिविल इंजीनियर को करोड़ों के ठेके मिलते हैं और मैकेनिकल डिपार्टमेंट को कोई दुर्घटना होने पर गालियां। चाहे डिब्बा खराब हो ,पहिए में खराबी हो। चाहे ट्रेन लेट हो। वे नई उम्र के अफसरों को अपने चेंबर में बुलाकर जोश भरते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो रेलवे की दुर्गति का कारण विभागों की आपसी खींचतान हैं। एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति। वे उन्हें तरह-तरह की लालच दिखाते हैं कि विदेशों की ट्रेनिंग दूसरे विभागों को क्यों मिल रही है आपको क्यों नहीं? उन्होंने बताया कि 1950 में अमेरिकन लोकोमोटिव कंपनी से डीजल इंजन खरीदते वक्त सभी को अमेरिका की ट्रेनिंग मिली थी हमें भी ऐसा कुछ करने की जरूरत है कि आप सब भी विदेश ट्रेनिंग के लिए जाएं। विदेश ट्रेनिंग मौज मस्ती करने की ताक में मानो इस देश का हर विभाग लगा हुआ है। इनका बस चले तो यह वही रहे और भारत सरकार से तनखा लेते रहे। बहुत मजेदार प्रसंग है। लेखक चुटकी भी लेता है कि उसके हाथ में तो विदेश जाने की लकीर भी नहीं है तो वह भूटान हीं घुम आया। यहां चोट ज्योतिषी और उनके गोरखधंधे पर भी की गई है। इसको गलत साबित करने के लिए। सरकारी व्यवस्था में बिना जरूरत के विदेश ट्रेनिंग किसी को भेजा जाना और काम कुछ और करने के जीवंत उदाहरण इस अध्याय में मिलेंगे। लेखक की खूबसूरती है हर ऐसी घटना को एक कहानी में बुनना है। और जैसे ही मैकनिकल डिपार्टमेंट को यह एहसास होता है कि विदेश जाने की तैयारी है तो लेखक सबकी नजरों में महत्वपूर्ण हो जाता है। उसकी चापलूसी शुरू हो जाती है ।

ऐसा नहीं है कि पूरी पुस्तक में रेलवे डिपार्टमेंट के रोने धोने ही हैं प्रेम प्रसंग भी उतनी ही ईमानदारी से लेखक ने लिखे है। बहुत चुटीली और रोमाँटिक भाषा में। जब उसकी प्रेमिका उससे मिलने आती है और उसके पूछने पर कि बताइए आपको क्या चाहिए तो प्रेमिका की यह कहने पर, “मैं रेल का इंजन को चलाना चाहती हूं।” बड़ी असमंजस की स्थिति होती है। लेकिन अंत में सफल होता है। इस बात से डरते-डरते कि कहीं अगले दिन सभी के बीच उनकी प्रेम प्रसंग की चर्चा न हो जाए। बहुत खूबसूरत अंदाज कथा का भी, भाषा का भी। एक अच्छे उपन्यासकार की भनक !

पुस्तक की खास बात है कि कहीं से भी आप खोलकर पढ़ना शुरू करें उस प्रसंग को पूरा किए बिना नहीं रह सकते। एक बेहद खूबसूरत कहानी का सा आनंद और रोमांच और और पढ़ने को प्रेरित करता। अंतिम पृष्ठ के एक पेज को ही पढ़ लीजिए! लेखक के बेटे का नाम जादू है। 5 वर्ष के बच्चे के जन्मदिन पर सैकड़ों उपहार ,गिफ्ट मिलते हैं। वह सब को एक तरफ सरकारते हुए पापा को आवाज लगाता है। क्योंकि उसे पसंद आया है रेल की पटरी और उस पर छुक-छुक दौड़ता रेल का इंजन मानो डार्विन को काटते हुए अनुवांशिकी का कोई दूसरा नियम पूरा हो रहा हो! बेमिसाल। वैसे ही छोटे-छोटे प्रसंग रेलवे स्टाफ कॉलेज बडौदा के हैं। गप्पब्बाज, तथाकथित कई प्रोफेसरों से लेकर नौजवान सहकर्मी यतीश के साथ जुगाड़ तक। खूबसूरत श्वेता अय्यर की तलाश ही जिंदा होने का प्रतीक है। जीत अरोड़ा! हम सब के अनुभव ऐसे ही होते हैं लेकिन लेखक वे बनते हैं को नैतिकता के आडंबर को दूर करते हुए उसे शब्द देते हैं। इसीलिए ऐसी पुस्तक हर कर्मचारी के लिए अनिवार्य कर देना चाहिए और सभी भाषाओं में अनुवाद हो तो सोने में सुहागा। लेखक दीपक सपरा ने रेल विभाग और देश के प्रति अपनी निष्ठा लगन का बेमिसाल उदाहरण पेश किया है। और सैकड़ों अपने कर्मचारियों, सहकर्मियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए।


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