सुहैल रिज़वी कवि, कथाकार और रंगकर्मी हैं। समय-समय पर ये देश के अलग-अलग हिस्सों में नाट्य मंचन करते रहे हैं। इन्होंने अपनी उच्च शिक्षण की डिग्री जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली से हासिल की है। फिलहाल, ‘जोश टॉक’ में बतौर डायरेक्टर एवं स्क्रिप्ट राइटर कार्यरत हैं। इनका ज़्यादातर लेखन कार्य समाज के उस तबके को समर्पित है जिसको हम आम आदमी बोलते है। सुबह को टिफिन लेकर जाने और शाम को खाली टिफिन लेकर लौटने वाले व्यक्ति जिनका पूरा जीवन इन दो धूरियों के बीच गुजरता है। इन्हीं दो धूरियों के बीच अपने जीवन को समाप्त करने वाले हर इंसान को समर्पित नज़र आती है सुहैल रिज़वी की हर एक रचना।
कविता में अगर शब्द न होते
तब कितना आसान हो जाता
हर किसी के लिए
बगैर किसी शब्द की सहायता लिए
अपने भावों को लिखना
मैंने एक विधि खोज निकाली है
जिससे मैं
सुबह काम पर जाने
शाम को कम से आने पर
अपने भावों को
पिंडलियों में बन चुके नसों के गुच्छे को
उनमें बस चुके दर्द को
उस विधि के द्वारा
एक सफेद कागज़ पर
उकेर सकता हूँ
मैं व्यक्त कर सकता हूँ
उन तमाम अनुभवों को
जो एक अर्से से व्यक्त नहीं कर पाया
शब्दों के अभाव में
मैं उकेर पाऊंगा
दिमाग़ में बसी तीस साल की यादों को
उन यादें को जो दब चुकी है
मस्तिष्क के सड़ चुके उत्तकों की परत के नीचे
मुझे ये मालूम हो चुका है
मस्तिष्क की महीन कमज़ोर धमनियाँ
उनमें बहता तरल
सड़ रहा है धीरे-धीरे
बिलकुल वैसे
जैसे मेरे शब्द
इसलिए
इन सड़े उत्तकों के नीचे
बदबू से भरे तरल में
बच चुकी
मेरी एक फीसदी यादें
जिनको उकेरूंगा
अपनी विधि द्वारा
बगैर शब्दों की सहायता लिए
सहजता से
आड़ी तिरछी
सपाट
सरल
सहज
रेखाएं!
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