प्रज्ञा मिश्र की चार कविताएं: कोहरा, सुख, मेसेंजर और प्रतीक्षा

प्रज्ञा मिश्र की चार कविताएं: कोहरा, सुख, मेसेंजर और प्रतीक्षा

कम्प्यूटर एप्लिकेशन में स्नातकोत्तर कवयित्री प्रज्ञा मिश्र मुम्बई के बोरीवली में रहती हैं। काव्यांकुर 7, काव्यचेतना साझा संग्रह, साहित्यनामा पत्रिका व अन्य डिजिटल प्लेटफार्म पर कविताएँ प्रकाशित। फिलहाल सूचना एंव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत हैं।

कोहरा

प्रज्ञा मिश्र की चार कविताएं: कोहरा, सुख, मेसेंजर और प्रतीक्षा

ज़ीरो माइल से शुरुआत की
ज़िन्दगी के अंजाने रास्तों पर
न धूप थी न गर्माहट
घर में सीलन, तन में सिहरन
सर्द साँसों में जमा मन भी
घने कुहासे की चादर पर
टोह-टोह आगे बढ़ना हुआ
कैसे बताए तक़दीर
तेरी नेमतों तक आने में
किन-किन काँटों पर गुजरना हुआ।

सुख

प्रज्ञा मिश्र की चार कविताएं: कोहरा, सुख, मेसेंजर और प्रतीक्षा

आम ज़िंदगी में ख़ास पल,
फुटपाथ के किनारे भी मिल जाते हैं
जगह तय नहीं करती, खुशियों की तारीख़
सुख, खिलखिलाते शैशव की तरह
बेमौका एक उम्र लिए आता है और
याद बनकर तस्वीर में बस जाता है।
मैं मौके पर मौजूद थी,
मैंने सुख को देखा है।

मेसेंजर

प्रज्ञा मिश्र की चार कविताएं: कोहरा, सुख, मेसेंजर और प्रतीक्षा

चुभते एकाकीपन में
हँसते हुए निभाया लादे गए फैसलों को
ज़िन्दगी जैसे सरकारी फाइलों का
भूला बिसरा बैच हो गई हो
लाल लिनेन में लिपटी धूल
और ग़ैर-ज़रूरी समान होकर
किसी कोने में खो गई हो
खूँटी पर पर्स के साथ रोज़
फिर जीने की उम्मीद भी टांग देती हूँ
नज़रें बचा कर मन दौड़ जाता है दरीचे पर
लोहे की ग्रिल से चिपक जाता है मन
प्रेम पाने की आतुरता
सेपियन प्रजाति में संस्कार हीनता है
मोहब्बत के मेसेंजर
वर्जित व्यवहारों में मिलते हैं
लोग झूठ-मूठ के
सोलह सोमवार रखते हैं…
बेवजह प्यार के लिए
इंतज़ाम रखते हैं

प्रतीक्षा

प्रज्ञा मिश्र की चार कविताएं: कोहरा, सुख, मेसेंजर और प्रतीक्षा

मन और परिवेश में
कोई अंतर नहीं
प्रतीक्षा पतझड़ बन कर
माइग्रेन में बदल गई
सुख सुविधाओं का
सारा साजो सामान
अनुपयोगी है
सूखे पत्तों की चरचराहट में
सुकून मिला इतना
तुमसे मिलकर भी
नहीं मिलता जितना
प्रतीक्षारत हम दोनों
कितने अपरिचित हो गए प्रेम

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