कुमार मुकुल की कविता: मृत्यु सूक्त

कुमार मुकुल की कविता: मृत्यु सूक्त

[पेशे से पत्रकार और मूलत: कवि कुमार मुकुल के अब तक तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हुए हैं। प्रभात प्रकाशन से ‘डाक्टर लोहिया और उनका जीवन-दर्शन’ (2012) नामक किताब प्रकाशित। ‘अंधेरे में कविता के रंग’ (2012) शीर्षक से एक आलोचना की पुस्‍तक और ‘सोनूबीती-एक ब्‍लड कैंसर सर्वाइवर की कहानी’ (2015) का प्रकाशन। विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक-सामाजिक विषयों पर प्रचुर लेखन। कुछ विश्‍व कविताओं का अंग्रेजी से हिन्‍दी अनुवाद। 2007 से ‘कारवाँ’ ब्लॉग का संचालन, संपादन।]

(1)

हे मृत्यु,
कौन हो तुम
कहां से आती हो
चली जाती हो कहां…
कैसे तुम, महाबली और बलि पशुओं को
समदृष्टि से निहारती गुजर जाती हो?

(2)

हे मृत्यु,
कहां निवास है तुम्हारा
हमारे ही भीतर रहती हो तुम
या बाहर कहीं से आकर
हमारे जीव का हरण करती हो?

(3)

हे मृत्यु,
क्या तुम्हारी कोई पुकार है
गर्जना, हहास और तांडव करती
आती हो तुम
या चुपचाप विषाणु सी प्रवेश कर
सुला देना पसंद है तुम्हें ?

(4)

हे मृत्यु,
तुम क्षण हो
या जीवन हो पूरा
जन्म लेते ही
समेटने लगती हो, अपनी उम्र?

(5)

हे मृत्यु,
निष्करुण हो तुम
या तुम्हारा आतंक ही
अविरल स्रोत है, करुणा का?

(6)

हे मृत्यु,
हम तुम्हें गहन अंधकार की तरह देखते हैं
पर तुम कड़ी धूप में लू की लहर बन
उसी तरह त्रस्त करती हो
जैसे कालरात्रि में शीतलहर बन?

(7)

हे मृत्यु,
कैसे तुम हमें
अपनी आगोश में आने को
प्रेरित करती हो
कि राम को अश्रुपूरित नेत्रों से देखती सीता
धरती में समा जाती हैं
और लक्ष्मण के वियोग में राम
उतर जाते हैं सरयू में?

(8)

हे मृत्यु,
तुम सदा हमें भयाक्रांत करती हो
पर जब कोई मुस्कुराता हुआ
विष के प्याले को
अपने होठों से लगाता है
तब तुम उसका स्वागत कैसे करती हो ?

(9)
हे मृत्यु,
हर क्षण लटकती तलवार-सी
सर पर टंगी मत रहा करो
गहरे आतंक से
यह सर
अक्सर फिर जाया करता है
जो तुम्हारी महत्ता को कम करता है!

रचना प्रक्रिया

कल रात नींद में, के स्वप्न में एक पंक्ति बार बार उभर रही थी- हे मृत्यु, तुम कौन हो…! सुबह जगने तक इस पंक्ति के साथ इसके जवाब में भी कुछ कौंध रहा था। जगा तो लगा कि इन्हें दर्ज कर दूं, नहीं तो शायद ये धूमिल पड़ जाएं। तो आरंभ के तीन-चार स्टांजा लेटे-लेटे ही लिखा। फिर चाय आदि पीने के बाद बाकी हिस्सा पूरा किया। चूंकि ये पंक्तियां मुझे स्वप्न में दिखीं तो खुद को दृष्टा (देखने वाला) मान कर इन्हें मृत्यु सूक्त पुकारना सहज लगा। पिछले तीन-चार साल से वेदों का अध्ययन चल रहा। हालांकि, कोरोना के इस बन्दी काल में उनकी तरफ कभी नहीं देखा, फुरसत के बाद भी।

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